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संवाद ही नक्सलवाद का स्थाई समाधान है ! — सुनील कुमार महला

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देश से माओवाद(नक्सलवाद) लगातार समाप्ति की ओर है, यह काबिले-तारीफ है। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि छत्तीसगढ़ के बस्तर में सुरक्षाबलों ने बुधवार 21 मई को 27 माओवादियों को मार गिराया है। दरअसल, बस्तर संभाग के नारायणपुर, बीजापुर और दंतेवाड़ा ज़िलों की सीमा पर मुठभेड़(एनकाउंटर) में ये माओवादी मारे गए हैं। इस संदर्भ में हमारे देश के गृहमंत्री ने अपनी एक एक्स(ट्विटर) पर पोस्ट में यह लिखा है कि ‘ नक्सलवाद को ख़त्म करने की लड़ाई में एक ऐतिहासिक उपलब्धि। आज, छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में एक ऑपरेशन में हमारे सुरक्षा बलों ने 27 खूंखार माओवादियों को मारा है, जिनमें सीपीआई-माओवादी के महासचिव, शीर्ष नेता और नक्सल आंदोलन की रीढ़ नंबाला केशव राव उर्फ़ ​​बसवराजू भी शामिल हैं।’ उन्होंने आगे लिखा है कि-‘नक्सलवाद के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई के तीन दशकों में ऐसा पहली बार है कि हमारे बलों ने एक महासचिव स्तर के नेता को मारा है. मैं इस बड़ी सफलता के लिए हमारे बहादुर सुरक्षा बलों और एजेंसियों की सराहना करता हूँ।’ यह काबिले-तारीफ है कि ऑपरेशन ‘ब्लैक फॉरेस्ट’ के पूरा होने के बाद, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र में 54 नक्सलियों को गिरफ़्तार किया गया है और 84 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। यह दर्शाता है कि आज देश से माओवाद व माओवादी अंतिम चरण में हैं। पाठकों को बताता चलूं कि नक्सलवाद की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव में हुई थी, जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के कुछ सदस्यों ने जमींदारों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू किया था और इस आंदोलन में ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब किसानों और आदिवासियों का समर्थन था। नक्सलवादी यह मानते हैं कि भारत में कृषि श्रमिकों और भूस्वामियों के बीच वर्ग संघर्ष है, और साम्यवाद ही इस संघर्ष का सही समाधान है। नक्सली भूमि सुधारों या यूं कहें कि वे जमींदारों से भूमि को वापस लेकर गरीबों और किसानों में वितरित करने की मांग करते रहे हैं। उनकी यह सोच है कि सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष से ही वे देश और समाज में एक क्रांति ला सकते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि वे आदिवासी लोगों के अधिकारों का समर्थन करते हैं और उन्हें भूमि और विभिन्न संसाधनों पर नियंत्रण दिलाने की मांग करते हैं। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज सरकार नक्सलवाद के खात्मे के लिए लगातार कदम उठा रही है। सरकार नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में शांति स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध और कृतसंकल्पित है तथा सरकार ने नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा में लौटने के लिए अनेक प्रयास किए हैं। पाठकों को बताता चलूं कि हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुत पहले यह बात कही थी कि -‘यह सच है कि माओवादी हिंसा ने मध्य और पूर्वी भारत के कई जिलों की प्रगति को रोक दिया था। इसीलिए 2015 में हमारी सरकार ने माओवादी हिंसा को खत्म करने के लिए एक व्यापक ‘राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना’ तैयार की। हिंसा के प्रति शून्य सहिष्णुता के साथ-साथ, हमने इन क्षेत्रों में गरीब लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए बुनियादी ढांचे और सामाजिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देने पर भी ध्यान केन्‍द्रित किया है।’ आज वामपंथी उग्रवाद (एलडब्‍ल्‍यूई) या यूं कहें कि नक्सलवाद भारत की सबसे गंभीर आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों में से एक है।भारत सरकार 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह से खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है, क्योंकि नक्सलवाद को दूरदराज के इलाकों और आदिवासी गांवों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है, क्योंकि यह शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, कनेक्टिविटी, बैंकिंग और डाक सेवाओं को इन गांवों तक पहुँचने से रोकता है। बहरहाल, अच्छी बात यह है कि पिछले 10 वर्षों में, 8,000 से अधिक नक्सलियों ने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है, और परिणामस्वरूप, नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 20 से भी कम हो गई है। आंकड़े बताते हैं कि वामपंथी उग्रवाद की हिंसा की घटनाएं जो 2010 में अपने उच्चतम स्तर 1936 पर पहुंच गई थीं, 2024 में घटकर 374 रह गई हैं, यानी इसमें 81 प्रतिशत की कमी आई है। परंतु इसी बीच विशेषज्ञों का यह दावा है कि वर्तमान में माओवाद को खात्मे के रूप में देखना एक जल्दबाजी ही है। यह ठीक है कि आज केंद्र सरकार छत्तीसगढ़, बिहार, तेलंगाना से लेकर महाराष्ट्र तक नक्सलियों का सफाया करने के लिए पूरी तरह से अपनी कमर कस चुकी है और बीते दस-पंद्रह महीनों में माओवादियों के खिलाफ चल रहे सघन ऑपरेशन में चार सौ से ज्यादा संदिग्ध नक्सलियों के मारे जाने का भी दावा किया जा रहा है। माओवादियों के अनेक ठिकानों को आज नष्ट किया जा चुका है और समय-समय पर हथियार, गोला-बारूद की बरामदगी भी की गई है। पिछले कुछ समय से नक्सलियों को मिलने वाली आर्थिक मदद पर भी अंकुश लगा है। इतना ही नहीं नक्सली अब धीरे-धीरे समाज की मुख्यधारा में लौटने लगे हैं तथा  नौजवानों का नक्सलवाद के प्रति आकर्षण भी तेजी से कमजोर पड़ा है, लेकिन नक्सलवाद को पूरी तरह से खत्म करने के लिए उनके साथ संवाद स्थापित करना बहुत आवश्यक है। आज जरूरत इस बात की है नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं को प्राथमिकता देकर विकास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, जनजातीय/आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना और उनके साथ शांति-संवाद स्थापित करना बहुत ही आवश्यक व जरूरी है। इसके साथ ही, सुरक्षा बलों को सुदृढ़ करते हुए मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। वास्तव में, सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर, शिक्षा, और बेहतर जीवन स्थितियां उपलब्ध कराई जाएं। इसके साथ ही नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रोजगार की पर्याप्त व्यवस्थाएं की जाएं तथा भ्रष्टाचार पर नियंत्रण स्थापित कर समाज से सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर करने के लिए प्रयास किए जाएं।पुनर्वास, भूमि सुधार और सामूहिक प्रयास तो आवश्यक हैं ही। ग़रीबी और भुखमरी का उन्मूलन हो।नक्सलियों को मिलने वाली स्थानीय मदद पर ठोस कार्रवाई की जाएं और इस पर अंकुश लगाया जाए। वास्तव में जनता की जागरूकता से ही नक्सलवाद का पूरी तरह से सफ़ाया संभव हो सकता है। गोली नक्सलवाद का हल नहीं है, संवाद ही नक्सलवाद का असली हल है।

सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।

मोबाइल 9828108858

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