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“सलाम तुम्हें, अंतरिक्ष यात्री!”

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सलाम तुम्हें, शुभ्रांशु शुक्ला…
तुम जब अंतरिक्ष की ओर बढ़े,
तो तुम्हारे पीछे सिर्फ़ धरती नहीं थी—
एक पूरा देश था…
एक अरब धड़कनों की उम्मीदें थीं,
एक सूरज था — जो अब आकाश में नहीं,
तुम्हारी आँखों में चमकता है।
तुमने साबित कर दिया —
कि विज्ञान सिर्फ़ प्रयोगशालाओं में नहीं होता,
वो सपनों में होता है,
और साहस में।
तुम गए अंतरिक्ष स्टेशन तक,
पर तुम्हारा संदेश हर गाँव, हर शहर तक पहुँचा।
तुमने अंतरिक्ष में किया प्रयोग,
पर यहाँ, ज़मीन पर…
तुमने एक नया प्रयोग कर डाला —
हौसले का, संभावना का,
और भारत के आत्म-विश्वास का।
भारत — अब सिर्फ़ उपग्रह नहीं भेजता,
वो आत्माएँ भेजता है,
जो वहां जाकर कहती हैं —
“हम भी कर सकते हैं… और करेंगे भी!”
तुम्हारे उड़ान में शामिल था —
एक किसान का बेटा,
एक सरकारी स्कूल की बेटी,
एक शिक्षक का सपना,
और एक वैज्ञानिक की उम्र भर की तपस्या।
इस देश को तुमने ये बताया —
कि सीमाएँ शरीर की होती हैं,
सपनों की नहीं।
कि जहाँ पृथ्वी ख़त्म होती है,
वहीं से भारत की उड़ान शुरू होती है।
अब कोई बच्चा तारे देखकर चुप नहीं रहेगा,
वो पूछेगा — “क्या मैं भी…?”
और माँ कहेगी —
“हाँ, शुभ्रांशु की तरह… तुम भी जा सकते हो!”
तुम लौटोगे ज़रूर, अंतरिक्ष से…
पर तुम्हारी उड़ान लौटेगी नहीं।
वो जारी रहेगी —
हर प्रयोगशाला में, हर स्कूल में,
हर हृदय में।
सलाम तुम्हें…
तुम सिर्फ़ अंतरिक्ष में नहीं गए,
तुम हमारी संभावनाओं के सबसे ऊँचे कक्ष तक गए हो।
भारत अब नहीं पूछता —
“क्या हम कर सकते हैं?”
भारत अब कहता है —
“हम कर चुके हैं — और आगे बढ़ रहे हैं!”
जय हिन्द।
जय विज्ञान।
जय उड़ान।
हरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव
मौलिक व स्वरचित
@ सर्वाधिकार सुरक्षित

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