‘मुल्क चलो’ आंदोलन : सुरमा-बराक घाटी में चाय श्रमिकों पर घटित जलियां वाला बाग जैसी घटना
डॉ सुजीत तिवारी

भारतीयता को अपने जीवन का अभिन्न अंग करके जीनेवाले चाय बागान के श्रमिकों के साथ सालों से घटित होता आया अत्याचार , शोषण और मानव अधिकार हनन के विरुद्ध असम प्रदेश के सूरमा बराक घाटी में आज से 102 साल पहले घटित हुआ था, हज़ारों प्राणों की बलिदान से एक आंदोलन जो विश्व के इतिहास में अद्वितीय है। ठेकेदार और अंग्रेज मालिकों के अत्याचारों से मानव अधिकार हनन का वध भूमि वन चला चाय बागानों में रहने वाले निरीह शक्तिविहीन जर्जर श्रमिकों के द्वारा एकजुट होकर लड़ा गया, यह पहला आंदोलन था जिसको कि इतिहासकार ‘मुल्क चलो’ ‘कुली एक्सोडस’ या ‘चरगोला एक्सोडस’ के नाम से उल्लेख करते हैं । इस आंदोलन ने ब्रिटिश हुकूमत के जड़ों को हिला कर रख दिया था । यह गुलामी से मुक्ति पाने के लिए लड़ाई का एक अतुलनीय संग्राम था। सन 1921 में शुरू हुआ यह आंदोलन आज तक अपना उचित मर्यादा नहीं प्राप्त कर पाया। कई इतिहासकारों के मुताबिक श्रमिक आंदोलन के इतिहास में इकट्ठे और संगठित होकर विदेशियों के विरुद्ध लड़ा जाने वाला यही पहला आंदोलन था। फिर भी इस दृष्टिकोण से इसकी वर्णना दूसरे जगहों नहीं मिलता। प्रख्यात इतिहासकार अमलेंदु गुह उनकी किताब ‘प्लांटर्स राज टू स्वराज :फ्रीडम स्ट्रगल … में कहते हैं कि यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसमें अति विषम परिस्थितियों में भी सामाजिक एकजुटता के विषय में अभी भी बहुत कुछ जानने को शेष है।

औद्योगिक क्रांति के समय जब दुनिया के कई क्षेत्रों में अपनि घाटी गढ़ने के बाद ब्रिटिशों ने वैश्विक अर्थ व्यवस्था को भी अपने कब्ज़े में करने का प्रयास शुरू कर दिया था । औपनिवेशिक विस्तार में उन्होंने कपास ,कॉफी , रबर इन चीजों की उत्पादन का प्रयास मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, टोबैगो आदि देशों में बड़े पैमाने में प्रारंभ कर दिया था। जहाजों में भर भर कर लुभाकर, ठग कर या जबरन भेजा जा रहा था गरीब भारतीयों को। चाय की खेती के लिए अंग्रेजों ने भारत में असम को चुना था। यहां का मौसम चाय की खेती के अनूकुल थी और असम के सिंगफो आदिवासियों में औसधि के तौरपर चाय का प्रचलन था। उनके मुखिया बिसागम से चाय का पौधा पहले एक अँगरेज़ अफसर रॉबर्ट ब्रूस ने 1823 में प्राप्त किया और उसके पश्चात पहला चाय बागान चाबुआ में शुरू हुआ था। इसके कुछ सालों में ही सूरमा और बराक घाटी ने भी 1845 -56 के दरमियां चाय बागानों का गठन हो गया था। पहला बगीचा बरसांगन जो अभी के कटहल बागान के करीब था।
बार-बार दुर्भिक्ष महामारी, प्राकृतिक विपदाओं से कष्ट भोग रहे लोगों का हालात ब्रिटिश शासन में और बढ़ गया था जो उनके द्वारा गठित 3 जाँच कमिशनों से ज्ञात होती है। उस समय भयंकर दुर्भिक्ष तथा महामारी से बचने के लिए अपने जड़ो को छोड़कर वहां के गरीब भारतीयों को श्रमिकों लुभाकर या ठग कर सामान के भांति अपने मुनाफे के लिए अलग स्थानों पर ले जाने का प्रयास किया था। ऐसे विकट परिस्थिति में लाचार हालात का शिकार बनकर अपने जड़ों से बिछड़ गए थे, हजारों लाखों गरीब भारतीय, कुछ तो विदेशों में चले गए और कुछ भारत के ही अलग-अलग प्रांत जैसे असम में चले आए । उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश , तमिलनाडु आदि जगहों से यह गरीब लोग असहनीय कष्ट सहकर छोटे-छोटे जहाजों में सामान के बंद होकर जहां सांस लेने की भी कष्ट होती थी महीनों तक सफर कर बागानों में पहुंचते थे। बागानों में पहुंचने तक रास्ते में ही आधे से ज्यादा लोगों की मौत हो जाया करती थी ,रास्ते में प्राण त्याग दिए श्रमिकों को बेकार सामान के भांति पानी में फेंक दिया जाया करता था। अंग्रेजों के दलीलों से ही यह पता चलता है कि सिर्फ 1863 से 1866 के बीच 30 हजार के करीब श्रमिक रास्ते में ही दम तोड़ दिए थे। अपने परिजनों को रास्ते में ही ख़ोने के बाद यह श्रमिक जब बागानों में पहुंचे थे तो उनको जंगलों को काट कर अपने लिए रहने का स्थान तैयार करने को कहा जाता था, ऊपर से सांप बिच्छू, जंगली जानवर तथा भयंकर बीमारियों का भी खतरा रहता था। हजारों श्रमिक तो लुसाईयों के आक्रमण में अपना प्राण गवां दिए। भयंकर भुखमरी से बचने के लिए यह लोग बागानों में आते थे लेकिन उन्हें यहां आकर पता चलता था कि यह तो और भी कठिन काली कोठरी में चले आए । यहां पर उनपर अवर्णनीय अत्याचार किया जाता था। सालों तक उनका शोषण किया जाता था। यहां तक कि बच्चे बूढ़े तथा औरतों के साथ भी भयंकर अत्याचार किए जाते थे। बागानों के काल कोठरी से बच निकलने के लिए उनके पास कोई उपाय नहीं रहता था। पलायन के प्रयास मात्र करने से ही उनको भयंकर दंड भोगना पड़ता था। करुण परिस्थिति में पड़े निरीह श्रमिक अपने गीतों में ही अपने दुखों का वर्णन कर सांत्वना प्राप्त करते थे। इस करुण अवस्था में उनके पास ईश्वर के दूत स्वरूप बनकर आ खड़े हुए उन्हीं के साथ कभी गोरखपुर से चले आए एक पंडित जिनका नाम था देव शरण त्रिपाठी। वे गरीब श्रमिकों के घर में पूजा पाठ कराने जाते थे , उनके दुखों को सुनते और उनको दिलासा देकर ईश्वर पर भरोसा रखना तथा एकजुटता का मंत्र देते थे । गरीब श्रमिकों के कष्ट देखकर उनका मन पिघल जाता था। कुछ ही दिनों में उनके साथ एक जैसा सोच रखने वाले कुछ और लोग जुड़े जिनमें से गंगादयाल दिक्षित जी का नाम आता है जो गांव बागानों में घूम घूम कर कपड़ा का व्यवसाय करते। थे इन दोनों ने श्रमिकों के दुख को दूर करने का ठान लिया। पंडित देव शरण त्रिपाठी जी पुजारी होने के कारण उन पर ब्रिटिश या और किसी का भी कोई संदेह नहीं होता था और ऐसे ही वे गुलामी से मुक्ति के लिए एकजुटता का अलख जागते रहते थे । उनलोगों की ही मेहनत का नतीजा था कि जब साल 1920 में यंग इंडिया अखबार में गांधीजी ने चाय श्रमिकों पर हुए अभीतक की अनसुनी अत्याचारों के विरोध में अपनी आवाज बुलंद किया था।
इसी बीच साल 1921 में खरील चाय बागान में एक अंग्रेज अफसर रेगीनाल्ड विलियम रीड ने एक किशोरी को कुप्रस्ताव भेजा जिसका विरोध करने पर उसने किशोरी के पिता गंगाराम तथा भाई नेपाल की गोली मारकर हत्या कर दिया। पहली बार इसके विरोध में पूरा श्रमिक रास्ते पर उतर आए यह घटना काफी चर्चित हुआ था। जैसे कि आमतौर पर अंग्रेजों के जमाने में अदालतों में न्याय के नाम पर प्रहसन होता था, इस घटना में भी ऐसा ही हुआ और उस अंग्रेज अफसर को हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया। इसके बाद उस जमाने के अखबारों में इस घटना की काफी निंदा हुई । उपन्यासकार मुल्कराज आनंद ने इसी घटना पर आधारित Two leaves and a bud नामक उपन्यास की रचना किया था। उस समय भारत में चारों तरफ असहयोग आंदोलन का तूफान चल रहा था कहीं ट्रेड यूनियंस जी गठित हुए थे लेकिन बागानों में उनका प्रवेश भी नहीं था।
कुछ दिनों बाद वह घटना घट गया जो विश्व के इतिहास में विरले था ।1921 के मार्च तथा अप्रैल महीने में चाय बागानों में खुली सभाएं होने लगी जहां पर श्रमिकों के वेतन वृद्धि से शुरू कर उनकी और सुविधाएं तथा उनके ऊपर किए गए अत्याचारों के विरोध में बातें होने लगी। साल 1921 की मई महीने की पहली तथा दूसरी तारीख में करीमगंज के चरगोला बागान में बड़ी-बड़ी सभाएं आयोजित हुई जहां पर राधाकृष्ण पांडे, गंगा दयाल दीक्षित और देवशरण त्रिपाठी, सुरेश चंद्र देव आदि ने अपने भाषण रखें। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अब हम अंग्रेजों की गुलामी नहीं सहेंगे और अगर वह हमारी मांगे नहीं मानते हैं तो चाहे कितनी भी जुल्म हम पर ढाई जाए हम अपने-अपने क्षेत्रों में वापस चले जाएंगे । इन बातों का श्रमिकों मजदूरों पर गहरा असर पड़ा और मई महीने की 5 तारीख , 1921 को आनीपुर नामक चाय बागान से सबसे पहले 750 श्रमिक अपने बच्चे स्त्रियों को लेकर निकल पड़े। अंग्रेजों ने काफी सारी बाधाएं लगाई थी पर सभी अवरोधों को उपेक्षा करते हुए वे देशप्रेमी निकल पड़े । धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ता रहा और 40 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करते हुए 30000 से भी ज्यादा श्रमिक करीमगंज में आकर इकट्ठे हो गए। अंग्रेजी हुकूमत कांप गई ,उन्होंने करीमगंज में लोगों को रेल की टिकट देने से मना कर दिया। करीमगंज में उस वक्त कुछ स्वदेशी आंदोलन के नायकों श्रीसचंद्र दत्त, जे एम् सेनगुप्ता अदि के सक्रिय भागीदारी से कुछ श्रमिकों का ट्रेन का टिकट की व्यवस्था हो पाई, जिसके वजह से स्त्रियों और बच्चों को करीमगंज से चांदपुर तक जाने में मदद हुआ। बाकी लोग पैदल ही करीमगंज से चांदपुर के लिए रवाना हो गए चांदपुर जो अभी वर्तमान बांग्लादेश में है वहां से गोवालंद के लिए वे लोग जहाज से जाने के लिए तैयार हो रहे थे । चांदपुर में जब छोटे जहाजों में सैकड़ों में औरतें बच्चों के साथ श्रमिक पार जाने के लिए तैयार थे उसी क्षण सशस्त्र सैनिकों को लेकर अंग्रेजों का नुमाइंदा Macpherson वहां के सब डिवीजन ऑफिसर सुनील सुशील सिन्हा को लेकर पहुंचा और गोलियां चलाने का हुक्म दिया। भागम भाग मच गयी और सैकड़ों लोग पद्मा नदी में डूब गए, उनकी सलिल समाधि हो गयी। इसके दूसरे दिन की घटना और भी करुण थी जिसने जिसकी क्रूरता ने हर सीमा को लाँघ मानवता को शर्मिंदा कर दिया था। अपने लोगों से बिछड़ कर चांदपुर में रेलवे स्टेशन पर जब वह श्रमिक मजदूर अपने लोगों को पानी में गवा कर रात को सो रहे थे। उसी बीच आखरी ट्रैन के गुजरने के बाद, भारी बारिश वाले रात को वहां का अफसर किरण चंद्र दे 50 गोरखा सैनिकों को लेकर अचानक से धावा बोल दिया और सोए हुए श्रमिकों के ऊपर बंदूकों से प्रहार करवा दिया। पहले से ही कष्ट सह रहे सैकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय किए अपने परिजनों को गवा कर दुख में पड़े इन लोगों के ऊपर अत्याचार की सभी सीमाओं को लांग दिया गया और 6 साल की बच्ची से शुरू करके 70 साल की बुढ़िया तक के ऊपर बंदूकों से प्रहार किया गया। कइयों की भयंकर स्थिति में मृत्यु हो गई ,सैकड़ों घायल घायल हो गए और सैकड़ो लोगों का लापता हो गए ।इस घटना की भयावहता को सुनकर उस समय के श्रीसचंद्र दत्ता, हरदयाल नाग आदि लोग रात को ही चांदपुर पहुंचे और जख्मी तथा घायल लोगों की सुध लिया । दूसरे दिन भारत के बड़ी-बड़ी अखबारों में इस घटना की निंदा की गई और इस घटना को जलियांवाला बाग की घटना के साथ तुलना किया गया। चारों तरफ धरना और हड़ताल प्रारंभ हो गया, शिलचर ,करीमगंज, सीलेट से शुरू कर बंगाल तक के जगहों में इसके विरोध में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए । 3 महीने तक ट्रेनें बंद रही , छह हफ्तों तक स्टीमर बंद रहे। कठिनाईयों के वावजूद देशबंधु चितरंजन दास चाँदपुर पहुंचे थे। उन्होंने घटना का भयावहता को देखते हुए इसे मानवता के खिलाफ सबसे बड़ा अपराध कहा था। उन्होंने कहा कि यह आंदोलन सिर्फ श्रमिकों का आंदोलन नहीं था यह आंदोलन देश के लिए आजादी के मांग करने वाले भारतीयों का स्वराज का आंदोलन था। गुवाहाटी में भी इस आंदोलन का असर पड़ा और श्रमिकों के सहायता के लिए नवीनचंद्र बर्दोलोई, तरुण राम फूकन जैसे बड़े नेता ने अपना श्रमदान देकर हिस्सा लिया था । 144 धारा का उल्लंघन के आरोप में देवशरण त्रिपाठीजी तथा कई अन्य व्यक्तियों को हिरासत में ले लिया गया। पंडित देवशरण त्रिपाठीजी को उस समय आसाम के कालापानी के तौर पर जाने जाने वाले जोरहाट जेल में भेज दिया गया। वहां पर भी पंडित जी अपने अधिकारों के लिए लड़ते रहे और अनशन प्रारंभ कर दिया, उसी अवस्था में वे 26 दिसंबर 1922 को शहीद हो गए। निहत्थे , निरीह, शोषित, कमजोर, हर तरफ से लाचार श्रमिकों के अंदर आजादी का अलख जगाने वाले यह महान आत्मा ने देश के नाम अपने प्राणों का बलिदान कर दिया।
अंग्रेजों ने कई प्रपंच अपनाएं, श्रमिकों के वेतन को कुछ हद तक बढ़ाने के लिए भी तैयार हो गए, लेकिन जो बाकी बचे श्रमिक थे उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला वह अपनी मांग पर अडिग रहे और कुछ अपने-अपने स्थानों में वापस भी पहुंच गए। इस आंदोलन ने भारतीयों के मन में एक कभी न मिटने वाली छाप छोड़ी। हालांकि शुरू में महात्मा गांधी जी ने इस आंदोलन को किसी भी रूप में कांग्रेसका आंदोलन मानने से मना किया लेकिन इसके बाद 27 अगस्त को 1921 में शिलचर आए और 28 अगस्त को उन्होंने शिलचर में एक बड़ी सभा को संबोधन किया जिसमें उन्होंने मुख्य रूप से चाय बागान के श्रमिकों के अधिकारों की बात की। इस आंदोलन के फलस्वरूप ही गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 अमल में आया और जिसके अनुसार चार जनप्रतिनिधि को सरकार में श्रमिकों की प्रतिनिधि के रूप में लिया गया। आज श्रमिक समाज आजाद भारत में सांस ले रहा है इस महान आंदोलन जिसमें निहत्थे कमजोर श्रमिकों ने अंग्रेजों की गुलामी को उनके बंदूकों के डर के आगे झुकने से मना कर दिया था ।
आज इस आंदोलन के 102 साल पूरे हो गए हैं, आज समय है फिर एक बार मुड़ के देखने का कि आज आजाद भारत में हम इन श्रमिकों के लिए कितना कुछ कर पाए हैं? कहां कमी रह गई है? अगर भारत जैसे गणतांत्रिक राष्ट्र में श्रमिक मालिक और आम जनता सभी के बराबर अधिकार हैं तो उनकी हालत में बराबरी क्यों नहीं है ? इन प्रश्नों के उत्तर जितना जल्दी हम ढूंढने में कामयाब होंगे, देश के लिए प्राण न्योछावर करने वाले अमर शहीदों के द्वारा देखे गए सपने जल्दी ही साकार हो जाएंगे। आज जरूरत है इस आंदोलन को वर्तमान समाज के सामने लाने का और आज की पीढ़ी को इससे सीख लेने का।




















