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स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के निमित्त भारत प्राचीन राष्ट्र, एक राष्ट्र, हिंदु राष्ट्र

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– शशिकांत चौथाईवाले
गत वर्ष से भारतवासी अपने स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। इस अमृत काल में राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद शब्दों पर सर्वत्र चर्चा चल रही है।
बड़े बड़े लोगों में इस विषय पर भ्रान्त धारणा या संभ्रम है। भारत में अंग्रेजी भाषा प्रचलित कर अंग्रेजों ने भारतीयों के आँखों पर लगाया अंग्रेजी चश्मा जिन्होंने उतारा नहीं, ऐसे वाम पन्थी विचार धारा के और तथाकथित बुद्धिजीवी लोग आज भी अंग्रेजों की ही भाषा बोलते हैं। जैसे-“(1) भारत कभी राष्ट्र था ही नहीं, (2) स्वाधीनता के बाद हम नया राष्ट्र बनाने जा रहें हैं (We are nation in theयmaking). (3) यहां की संस्कृति मिश्रित संस्कृति है (Composite culture) आदि” ।
वास्तव में अति प्राचीन काल से ही भारत में राष्ट्र का विचार चल रहा है। प्राचीन और आधुनिक साहित्य में अनेक जगह पर इसका उल्लेख है। वेदों में ऋषियों ने वर्णन किया है, भद्रं इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपो दीक्षा उपसेदुरप्रे। ततो राष्ट्र बलमोजस्व जातं तदस्मे देवाः उपसे नमस्तु ।।” 48
अर्थः- आत्मज्ञानी ऋषियोंने जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टी के प्रारंभ में जो दीक्षा देकर तप किया, उससे राष्ट्र निर्माण हुआ। इस लिए सब विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र हो कर उसकी सेवा करें। बार्हस्पत्य शास्त्र में भारत का वर्णन है ” हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरं। तं देवनिर्मित देशं हिंदुस्थान प्रचक्षते।। “महा कवि कालिदास ने कहा” अस्तुत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः “। विष्णु पुराण के अनुसार “उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव
दक्षिणं। वर्षं तत भारतं नाम भारती यत्र संततिः।।” आसाम के महापुरुष श्री श्री शंकरदेव और श्री श्री माधवदेव की वाणी–“कोटि कोटि जन्म अंतरे जाहार आछे महापुण्यराशि। सि सि कदाचित मनुष्य हबय भारत बरिषे आसि।” शंकरदेव
“धन्य धन्य कलि काल धन्य नरतनु भाल धन्य धन्य भारत वरिषे ।। माधवदेव
इस प्रकार अनेक उदाहरण दे सकते हैं जो प्रमाणित करते हैं कि भारत एक सनातन एवं पुरातन राष्ट्र है।
राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई होती है। जब किसी जन समूह की ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परंपराएं एक हो तब वह राष्ट्र कहलाता है। वैसे देश, राज्य और राष्ट्र ये तीन शब्द परस्पर से संबंधित है, किंतु उनके अर्थ में अंतर है। देश यह भौगोलिक संकल्पना है। राज्य यह राजकीय व्यवस्था है। राष्ट्र यह जन तथा उनकी भावनाओं से संबंधित है। विश्व के अनेक विद्वान लोगों के अनुसार राष्ट्र होने के लिए जो आवश्यक तत्व माने जाते हैं उनमें प्रमुख हैं, (1) मातृभूमि, (2) उसमें रहने वाला पुत्ररूप समाज, (3) उस समाज का समान इतिहास, समान परंपरा, समान संस्कृति, समान आदर्श, समान जीवन लक्ष्य, समान शत्रु मित्र भाव तथा जीवन की समान आशा एवं आकांक्षाएं होनी चाहिये।
विभिन्न देशों से भिन्न भिन्न आयु के चार पाँच लोग एक घर में रहने से परिवार नहीं बनता। उनका आपस में रक्त का संबंध होना चाहिये। यही नियम राष्ट्र का भी है।
राष्ट्र के लिए आवश्यक सभी गुण हैं किंतु अपनी भूमि नहीं है, फिर भी वह समाज राष्ट्र कहलाता हैं। इस्रायल में अरब लोगों के आक्रमण और अत्याचारों से पीड़ित ज्यू लोग अपनी मातृभूमि छोड़ दुनिया के विभिन्न देशों में बस गये थें। किंतु वे भूले नहीं। प्रति वर्ष अपने उत्सव में मिलते समय अगले साल जेरुसलेम मे मिलेंगे बोल कर अपनी स्मृतियाँ उन्होंने जागृत रखी। और अठारह सौ साल पश्चात् सन 1949 में अपनी मातृभूमि प्राप्त की। आज इस्रायल एक प्रबल राष्ट्र है।
एक ही राष्ट्र में अनेक राजा अथवा उनके राज्य हो सकते हैं। भारत प्राचीन काल से ही एक राष्ट्र है। किंतु यहाँ अनेक राज्य थे। वे आपस में संघर्ष भी करते थें। किंतु वे यह नहीं भूले कि भारत अपना राष्ट्र है। यहां के त्यौहार तीर्थयात्राएं, कुंभ मेला आदि सभी अबाध गति से चलते थे। जगद्गुरु शंकराचार्य, श्री श्री शंकरदेव, स्वामी विवेकानंद आदि संत भारत परिक्रमा करते थें। किंतु किसी ने कभी पारपत्र (Passs Port) लिया नहीं। संतों ने चलाये भक्ति आंदोलन के कारण ही भारत में राष्ट्र भाव जीवित रहा। इसीलिये कवि इकबाल ने लिखा है “यूनान मिस्र रोमा सब मिट गए जहाँ से, पर बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
भारत में अनादि काल से चले सांस्कृतिक प्रवाह के कारण कुछ मान्यताएं निर्माण हुई हैं। जैसे, वसुधैव कुटुंबकम्, मातृ देवो भव, एक सद् विप्राः बहुधा वदन्ति, यत मत तत पथ, स्त्री के प्रति देखने का दृष्टिकोण, ईश्वर एक, रूप अनेक, प्रकृति में भी देवत्व का भाव, अतः तुलसी, वट वृक्षका पूजन,गाय और गंगा को
माता मानना, पुनर्जन्म आदि। ये मान्यताएं केवल हिंदु समाज की ही हैं। इससे प्रमाणित होता है कि भारत यह हिंदु राष्ट्र है। पूर्व प्रधान मंत्री श्री राजीव गांधी रशिया में भारत महोत्सव में जाते समय तुलसी तथा पीपल वृक्ष, नारियल, मणिपुर का खोल वाद्य ऐसे हिंदु संस्कृति के ही प्रतीक ले गये थे। उसी प्रकार मार्क्स वादी नेता श्री नंबुदी पाद जापान जाते समय भेंट देने के लिए नटराज की मूर्ती साथ ले गये, कार्ल मार्क्स की नहीं।
भारत में मुसलमान तथा ईसाई मत मानने वाले लोग भी रहते हैं, जो पूर्व में हिंदु ही थे। जिस प्रकार अन्य देशों में रहने वाले हिंदु उस देश के नागरिक होने पर भी वहां की राष्ट्रीयता का भी आदर करते हैं, उसी प्रकार भिन्न मतावलंबी लोग भारत में सन्मान से नागरिक हो सकते हैं।
हिंदु संस्कृति के इस प्रवाह को निरंतर बहते रहना चाहिए। गंगा के प्रवाह में अनेक नदियां मिलती हैं, किंतुअंत तक उसका नाम गंगा ही रहता है। चाय के बागानों में दूसरे भी पेड़ पौधे रहते हैं। किंतु उसको चाय बागान ही कहते हैं।
उसी प्रकार हिंदु संस्कृति में अनेक विचार प्रवाह मिले हैं। सतत चिंतन, चर्चा अथवा संवाद के द्वारा इस धारा को अक्षुण्ण रखा है। यही हिंदु संस्कृति है। महात्मा गांधीजी ने भी लिखा है, “आपको अंग्रेजोंने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे, और एक राष्ट्र बनने में आपकों सैंकडों बरस लगेंगे। यह बात बिलकुल बेबुनियाद है। जब अंग्रेज हिंदुस्थान में नहीं थे, तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे, हमारा रहन सहन एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां राज्य कायम किया। जिन दूरदर्शी पुरुषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरद्वार की यात्रा ठहराई उन का आपकी राय में क्या ख्याल है?वे जानते थे कि ईश्वर भजन तो घर बैठे भी होता है। उन्होंने हमें यह सिखाया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। लेकिन उन्होंने सोचा कि, कुदरत ने हिंदुस्थान को एक देश बनाया है।
इसलिए यह एक राष्ट्र होना चाहिए।” महात्मा गांधी (हिंद स्वराज्य पृष्ठ 29)
( माननीय श्री शशिकांत चौथाई वाले जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक है।)
फोन – 7002376830

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