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हमारी व्यथा, बदं हो रहा है हिंदी स्कूल

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आज हिन्दीभाषी समन्वय मंच शिलचर तथा सहयोगी संगठनों के द्वारा आयोजित हिन्दी माह के समापन कार्यक्रम में भाग लेने हम भी पहुँचे। कार्यक्रम बड़े भव्य तरीके से मनाया गया। अनेक वरिष्ठ बुद्धिजीवी, व्यवसायिक, सामाजिक कार्यकर्ता तथा गणमान्य साहित्यकारों, कवियों को सम्मानित किया गया। मुझे भी इसका सौभाग्य अचानक से प्राप्त हुआ। मुझे सम्मान प्रदान करने के लिए तहे दिल से आभार व्यक्त करती हूँ। आज के समय में हिन्दी और हिन्दी भाषा तथा हिन्दीभाषियों का क्या अस्तित्व है, इस बराकघाटी या पूरे असम में, इसकी गहन चिन्तन की भी आवश्यकता है।
लगभग ६०-७० के दशक में प्रायः सभी घरों के बच्चे कुछेक को छोड़कर सब सरकारी विद्यालय में ही पढ़े हैं एवं कामयाबी की बुलंदियों तक पहुँचे हैं, लेकिन समय बदला। इक्का-दुक्का प्राइवेट स्कूल खुलने लगा और पैसे वाले संपन्न लोग अपने संतानों को इन प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ाना अपने सम्मान से जोड़ लिया। देखा-देखी एक होड़ सी लग गयी। सभी अंग्रेजी, तामझाम से इस तरह प्रभावित हुए कि धड़ाधड़ अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय खुलने लगे।
अब तो यह आलम है कि अति निम्न वर्ग के बच्चे ही सरकारी विद्यालयों में दाखिला ले रहे हैं, वह भी मजबूरी में, अफसोस बाकी है कि काश मेरे पास भी पैसे होते तो मैं भी प्राइवेट में ही अपने बच्चों को पढ़ाता। खैर अब मैं मूल विषय पर आती हूँ। १९६२ ई. में बड़े संघर्ष के बाद तत्कालीन ईटखोला निवासियों के संघर्ष से ईटखोला हिन्दी पाठशाला की स्थापना हुई। उन दिनों हिन्दीभाषी लगभग सभी घरों के बच्चे उसी में पढ़े हैं और सबने कामयाबी हासिल की है। आज बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि वही सबके संघर्ष से बनी ईटखोला हिन्दी पाठशाला छात्र अभाव के कारण बंद होने के कगार पर है।
पिछले वर्ष ही हमारे विद्यालय में एक पदाधिकारी आये और विद्यालय को द्विभाषिक करने की सलाह दे गये नहीं तो विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाने के लिए कहा। हमने बहुत कोशिश की लेकिन विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाने में असमर्थ रहे कारण ईटखोला निवासी सभी संपन्न हिन्दीभाषियों के बच्चे प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ते हैं और कुछेक बांग्ला माध्यम के विद्यालयों में कारण सरकारी हिन्दी माध्यम के विद्यालय में पढ़ाने की पढ़ाई के लिए सोनापुर बद्रीबस्ती जाना सबके लिए संभव नहीं। असम सरकार पचास से कम छात्र वाले विद्यालयों को बंद करने की सोच रही है या बाईलेंगुएल कर देगी। छोटेलाल हिन्दी पाठशाला भी तो द्विभाषिक हो गया है। काछाड़ जिले के न जाने कितने ही विद्यालय कब हिन्दी विद्यालय से बांग्ला विद्यालय में परिवर्तित हो गये, किसी को पता ही नहीं चला। आखिर इसके पीछे कौन जिम्मेदार है?
हिन्दी को बचाना है तो हमारी सोच बदलनी होगी, अगर कक्षा ६, ७, ८, की हिन्दी पढ़ाई बंद हुई तो कौन कक्षा ९, १० में हिन्दी पढ़ेगा? अगर नौंवी, दशमी कक्षा में हिन्दी पढ़ने की व्यवस्था न हो तो उच्चतर विद्यालय में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी कहां से आयेंगे फिर विश्वविद्यालय की हिन्दी विभाग तो वैसे ही बंद हो जाएगी। कैसी दूरदर्शी असम सरकार की सोच है? किसी ने सच ही कहा है कि अगर किसी बड़े वृक्ष को गिराना हो तो उसके जड़ को ही कमजोर कर दो या काट दो। दूर-दूर तक फैली शाखाएँ अपने आप ही सूख जायेंगी। न हिन्दी पढ़ाई होगी, न हिन्दी शिक्षक की बहाली होगी, न हिन्दी की जानकारी होगी, न हिन्दीभाषियों का आगे बढ़ना होगा। सब कुछ रूक जाएगा। तो क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे या कुछ ठोस कदम उठायेंगे भी? अंत में हम सकारात्मक सोच के साथ आपके साथ आगे बढ़ना चाहते हैं। जय हिन्द। जय हिन्दी। जय हिन्दीभाषी।
• राजकुमारी मिश्रा, ईटखोला, शिलचर

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