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होली का कैलेंडर के हिसाब से मनाया जाता है। कुछ इलाकों में एक हफ्ते तक आदमी को उसका पूर्वज बनाने का सिलसिला चलता रहता है। पूरे हफ्ते वह धूम रहती है कि ताजा मरे लोगों की आत्माएं भी उधर से होकर यमलोक जाने में कांपती हैं।
कमल किशोर सक्सेना: गाय-भैंस का ताजा गोबर, प्रिंटिंग मशीन की गाढ़ी काली स्याही, तारपीन के तेल में तरबतर सफेद पेंट, नाली से कुरेद-कुरेदकर खरोंचा गया थक्केदार कीचड़, लाल-हरे-नीले-पीले रंग, कुछ आदि, कुछ इत्यादि और इन सारे तत्वों का प्रयोग करने के लिए पंचतत्वों से निर्मित काया। करीब 40-45 साल पहले उत्तर भारत के कुछ शहरों की होली का यह दृश्य होता था, जो कहीं-कहीं आज भी अपनी जीवंतता बरकरार रखे हुए है। इसे खेलना…बल्कि झेलना, हर किसी के बस का नहीं। इसके लिए कंक्रीट से भी मजबूत कलेजा और स्टील से भी ज्यादा फौलादी जिगर की दरकार होती है।
होली का यह त्योहार घड़ी के हिसाब से नहीं, बल्कि कैलेंडर के हिसाब से मनाया जाता है। कुछ इलाकों में एक हफ्ते तक आदमी को उसका पूर्वज बनाने का सिलसिला चलता रहता है। पूरे हफ्ते वह धूम रहती है कि ताजा मरे लोगों की आत्माएं भी उधर से होकर यमलोक जाने में कांपती हैं। अब तो इंटरनेट मीडिया का दौर है। घर में बैठे-बैठे आदमी आनलाइन मार्केटिंग कर सकता है। मित्रों-परिचितों से व्यवहार निबाह सकता है। होली पर एक-दूसरे को रंग और अबीर-गुलाल भी लगा सकता है, लेकिन चार-पांच दशक पहले ऐसा नहीं था। होली से काफी पहले चंदा मांगने…वस्तुत: वसूलने से त्योहार की शुरुआत हो जाती थी। हर मोहल्ले में वसूली करने वालों का ‘गैंग’ होता था, जो सामान्यतः दो प्रकार के लोगों से चंदा लेता था। एक मोहल्ले वाले और दूसरे राहगीर। राहगीरों से पैसा वसूलने की मुख्यत: चार विधियां प्रचलित थीं। पहली, हाथ जोड़कर पूरे सम्मान के साथ। दूसरी, न देने पर राहगीर के वस्त्र हरण कर, पेड़ या ऊपर बिजली के तार पर लटकाकर। तीसरी, गिरेबान पकड़कर और चौथी, जमीन पर पटककर। आमतौर पर तीसरी और चौथी विधि के प्रयोग की नौबत नहीं आती थी, लेकिन कभी-कभी ‘दाता’ भी बेशर्म निकल आता था। मोहल्ले वालों से चंदा ऐन वक्त पर लिया जाता था। कुछ लोगों से पैसा वसूलना भैंसा दुहने के बराबर था।ऐसे लोगों के घर के बाहर खड़ी खटिया, तख्त या कोई भी लकड़ी का सामान चंदे की रसीद दिए बिना उठा लिया जाता। होलिका दहन के समय वह सब भी बिना किसी हीनभावना के चंदे की लकड़ियों के साथ जलते। होली पर बाबा के देवर लगने का भी रिवाज है। कुछ बाबागण तो ‘देवर’ बनने के लिए पूरे साल इसी दिन का इंतजार करते हैं। यही नहीं, होली पर असली देवरों की भाभियों पर और खालिस जीजाओं की सालियों पर विशेष कृपा होती है।कुछ लोग होली को नशे का त्योहार भी मानते हैं। गांजा, भांग, ताड़ी और देसी से लेकर विदेशी शराब तक नशे की तमाम किस्में, जेब और औकात के अनुसार आमंत्रित करती हैं। नशालीन होने पर कुछ लोग ब्रह्म के इतना करीब पहुंच जाते हैं कि उन्हें चेतन-अचेतन, नाली-परनाली, मनुष्य और पशुओं के गोबर का फर्क भी समझ में नहीं आता। वे कहीं भी समाधि जमाकर धूनी रमा लेते हैं। इसके विपरीत अनेक लोग अपने पैरों पर खड़े होकर भी घर पहुंचते हैं। दूसरे के घर पहुंचे तो भगवान मालिक और अपने तो पत्नी से जूता-चप्पल ग्रहण करने के उपरांत चैन की नींद सो जाते हैं।एक बार होली पर हमारे एक मित्र ने नशे का शीर्ष चूमने के बाद कुत्ते को गुझिया खिलाने की ठान ली। दुर्भाग्य से किसी धोबी का कुत्ता ठीक उसी समय वहां से गुजरा, जब मित्र महोदय हाथ में खोए की गुझिया लिए श्वान समुदाय का आवाहन कर रहे थे। कुत्ता और मित्र, दोनों इस बात से अनभिज्ञ थे कि कुत्तों को घी हजम नहीं होता। फिर वह तो घी के बाप खोए की गुझिया थी। कुत्ता खाकर इतना अनुग्रहित हो गया कि मित्र के हाथ पर अपने ‘टूथ प्रिंट’ छोड़कर जहां से आया था, वहीं लौट गया।कुछ ऐसे ही क्षणों में एक भक्त बरगद के पेड़ की टहनी पकड़कर लटक गए। उस बरगद के बारे में प्रचलित था कि वहां भूत-प्रेतों का निवास है। वह भूत को ‘बेघर’ करने पर उतारू थे। भूत तो नहीं उतरा अलबत्ता वह जरूर नीचे खुले मैनहोल में समा गए। उस मैनहोल के अंदर लिखा था- ‘इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार, दीवार-ओ-दर को गौर से पहचान लीजिए।’ होली के इस वृतांत के साथ आप सबको होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।साभार दैनिक जागरण