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हिंदी के हत्यारे…आप/हम,और कौन!! -संजीव शर्मा 

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‘हिंदी के हत्यारे’…पढ़कर आप चौंक गए न और हो सकता है कुछ लोग शायद नाराज भी हो गए होंगे क्योंकि हमारी अपनी सर्वप्रिय और मीठी हिंदी भाषा के साथ हत्यारे जैसा क्रूर शब्द सुनना अच्छा नहीं लगता । लेकिन, जब मैं यह कहूं कि मैं,आप और हम सभी हिंदी के हत्यारे हैं तो शायद आपको और भी ज्यादा बुरा लग सकता है और लगना भी चाहिए क्योंकि जब तक बुरा नहीं लगेगा तब तक हम अपनी गलतियों को सुधारने या खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रयास नहीं करेंगे। किसी भाषा में मिलावट, व्याकरण बिगाड़कर,उसकी अनदेखी करना और उसकी बनावट एवं बुनावट से छेड़छाड़ करते जाना उसे तिल तिल कर मारना ही तो है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा कि ‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के समान है।जो मातृभाषा का अनादर करता है वह देशभक्त कहलाने के लायक नहीं है।’ जब गांधी जी जैसी संजीदा और संयम वाली शख्सियत मातृभाषा का सम्मान नहीं करने वालों को देशद्रोही जैसा मानने की हद तक कट्टर हो सकती है तो हमारी हिंदी भाषा को बर्बाद करने वालों को हिंदी के हत्यारे कहने में क्या बुराई है।
हम सब हिंदी की हत्यारे हैं। यहां हम सब का मतलब मैं/हम/आप/ मीडिया/ सिनेमा/ बाजार और सरकारी कार्यालय सभी शामिल हैं। सबसे पहले हमारी बात कि आखिर ‘हम-आप’ हिंदी की हत्यारे कैसे हुए? अगर सही मायने में देखें और समझे तो हम हर दिन हिंदी की या अपनी भाषा की हत्या करते हैं। हिंदी में लेख/कविता/कहानी लिखना हिंदी की सेवा है लेकिन दिन प्रतिदिन उसकी अवहेलना करना अपराध। उदाहरण के लिए हम, अपने परंपरागत रिश्तों को आंटी और अंकल कहकर संबोधित करते हैं। हम, अपने बच्चों से कहते हैं कि वे आगंतुकों को आंटी कहें या उन्हें अंकल कहकर बुलाएं। क्या, दादी/ नानी/ मामी/ चाचा/ मौसी/ भाभी जैसे रिश्तों को अंकल-आंटी से पूरा कर सकते हैं । जिस भाषा के पास अहम पारिवारिक रिश्तों के लिए शब्द नहीं हैं तो वह ममेरे भाई, फुफेरे भाई या चचेरी बहन जैसे विस्तृत रिश्तों के लिए संबोधन कहां से लाएगी? ऐसी कंगाल अंग्रेजी भाषा को अपनाने के लिए हम अपनी मातृभाषा को ठुकराने के लिए तत्पर हैं।
हम, दूसरी बड़ी गलती करते हैं कि अपने बच्चों को रिश्तेदारों के सामने नमूने की तरह पेश करते हुए उनसे अंग्रेजी की फलाना ढिकाना पोएम सुनाने का अनुरोध करते हैं या फिर उनसे कहते हैं बेटा 100 तक काउंटिंग सुनाओ।  हम कितनी बार यह कहते हैं कि बेटा गिनती सुनाओ या   हिंदी की कोई कविता सुनाओ । फिर हमारा यही बच्चा जब बाजार में सामान लेने जाता है और दुकानदार उससे कहता है कि उनचालीस रुपए हुए तो वह आंखें फाड़ कर मुंह ताकता रह जाता है या फिर कहता है भैया इंग्लिश में बताओ । नई पीढ़ी की इस कमी पर केंद्रित कई सारे चुटकुले बाजार में और मोबाइल पर उपलब्ध है जैसे कि दो लड़कियां एक गोलगप्पे की दुकान पर जाती है और वहां गोलगप्पे खाने के बाद वह दुकानदार से पूछती कितने पैसे हुए तो वह कहता है उन्नचास रुपए… लड़कियां सोचती है कि दुकानदार उन्हें ठगने की कोशिश कर रहा है और एक लड़की थोड़ा ज्यादा स्मार्टनेस दिखाते हुए कहती है कि भैया, हम तो हंड्रेड देंगे । बार बार समझाने के बाद अंततः दुकानदार भी सोचता है कि भाई जब बैठे ठाले दोगुने पैसे मिल रहे हैं तो लेने में क्या बुराई है। सोचिए, यह चुटकुला हकीकत भी हो सकता है। अगर उन बच्चियों के मां-बाप ने उन्हें सिखाया होता है कि 49 का मतलब एक कम 50 रुपए है तो शायद वह 100 रुपए देकर नहीं आतीं।
इसी प्रकार आम बोलचाल में हम सामान्य चीजों के भी अंग्रेजी नाम इस्तेमाल करने लगे हैं जैसे कि हम कहेंगे वीक डेज, वीकेंड, मंडे, ट्यूसडे, थर्सडे या फिर सैटरडे । हम कितनी बार कहते हैं कि सोमवार मंगलवार,बुधवार या फिर वीकेंड को हफ्ते या सप्ताहांत जैसे शब्दों से याद करते हैं। जब हम खुद दिन प्रतिदिन की प्रक्रिया में अंग्रेजी शब्दों का मोह नहीं छोड़ पा रहे  तो हम अपनी नई पीढ़ी में या अपने बच्चों में अपनी भाषा के बीज कैसे रोपित करेंगे ? कुछ यही हाल रंगों को लेकर है। अब हम नीला, हरा, गुलाबी या बैंगनी कितनी बार  कहते हैं उल्टा रेड/ग्रीन/ यलो/ पिंक या पर्पल की बात ज्यादा करते हैं। तो हुए न, हम हिंदी के हत्यारे..!! यह महज कुछ उदाहरण है जबकि भाषा की विकृतियां दिन प्रतिदिन हमारी जीवन शैली का हिस्सा बनती जा रही हैं। यदि आप खुद अपने बोले गए शब्दों का अध्ययन करने बैठे तो आप स्वयं महसूस करेंगे कि हमारी भाषा में 30 से 40 फीसदी अंग्रेजी घुस गई है और हम हिंदी के पिछड़ने का रोना रो रहे हैं।
हिंदी के हत्यारों में दूसरा नाम है- बाजार। हम आए दिन सुनते हैं ‘यह दिल मांगे मोर’, ‘ठंडा मतलब कोका-कोला’, ‘आई एम कॉम्प्लान बॉय’, ‘यही है राइट चॉइस बेबी’ या और भी ऐसे तमाम तरह के विज्ञापन और उनकी बेसिर पैर की लाइन…जो हमें सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं और हम उन्हें अपने व्यवहार में भी अपनाते जाते हैं। इसी तरह पैट शॉप, ग्रीटिंग कार्ड, शॉपिंग मॉल या और भी इसी तरह के तमाम शब्द जो बाजार हमारे सामने पेश करता जा रहा है और हम भी आंख बंद  कर उनको अपनाते जा रहे हैं। बाजार तो मोटे तौर पर अंग्रेजी के हवाले है ही..यदि हम अपने आसपास की कुछ स्थानीय दुकानों या और छोटे-मोटे बाजारों को छोड़ दें तो किसी भी बड़े शॉपिंग मॉल मेंअंग्रेजी का बोलबाला खुलकर दिखता है और हिंदी कहीं किसी कोने में दबी सहमी नजर आती है।
हिंदी के हत्यारों में तीसरा नाम आता है मीडिया का । मीडिया यानि समाचार पत्र,  टीवी चैनल, पत्रिकाएं या इसी तरह के अन्य माध्यम । मीडिया में इन दिनों हिंग्लिश का इस्तेमाल परवान पर है। यदि आप अपने घर आने वाले अखबार के पन्ने पलटे तो आप आसानी से समझ जाएंगे की अंग्रेजी किस तरह से हिंदी मीडिया पर हावी होते जा रही है। हिंदी के कुछ अखबारों की सुर्खियों पर नजर डाली जाए तो इस तरह के उदाहरण रोज ही  मिल जाते हैं जैसे  ‘पेट्स को खुश रखने हजारों के गिफ्ट’, ‘केंद्रीय मंत्री को मिली क्लीन चिट’, ‘गुणवत्ता में फेल हुए नमूने’, ‘धर्म की पाठशाला में सीखा टाइम और लाइफ स्टाइल मैनेजमेंट’, ‘कैश में खरीदा टीवी’, ‘वर्क लाइफ में संतुलन साधने की चुनौती’। वहीं,टीवी चैनलों में करप्शन, क्राइम, अटैक, मर्डर जैसे शब्द बहुतायत में देखने/ सुनने/पढ़ने को मिल जाते हैं । दिल्ली के एक अखबार ने तो हिंग्लिश को लगभग अपना लिया है।
हिंदी के हत्यारों में चौथा नाम है सिनेमा का । सिनेमा ने जहां हिंदी भाषा को जनप्रिय और देशभर में फैलाने में सबसे अहम भूमिका निभाई है लेकिन भाषा को बर्बाद करने में भी यह पीछे नहीं है। उदाहरण के लिए यदि हम हिंदी फिल्मों के शीर्षकों पर ही सरसरी नज़र दौड़ाएं तो ऐसा लगता है कि हिंदी में उनके पास कोई उपयुक्त शब्द ही नहीं थे। मसलन ‘मिस्टर एंड मिसेस 55’, ‘लव इन शिमला’, ‘दाग:द फायर’, ‘गोलमाल अगेन’, ‘जेंटलमैन’, ‘सिंघम रिटर्न’ जैसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। ऐसा नहीं है कि हिंदी नाम वाली फिल्में लोकप्रिय नहीं होती। आखिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘जब जब फूल खिले’ से लेकर ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ जैसी तमाम फिल्में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। इसके अलावा फिल्मों के सफल अभिनेता और अभिनेत्री हिंदी में रोजी-रोटी कमाकर अंग्रेजी में संवाद करके गर्वित महसूस करते हैं। कुछ यही हाल टीवी पर आ रहे तमाम धारावाहिकों का है। वे खुलेआम हिंदी की टांग तोड़ते नजर आते हैं। कोरोना दौर में जन्में ओटीटी  ने तो मानो हिंदी का समूल नाश करने की कसम ले ली है। विदेशों की नकल करती ओटीटी की विषय वस्तु और भाषा हर पल यह साबित करती है कि उसका जन्म ही मातृ भाषा से बलात्कार करने के लिए हुआ है ।
हिंदी के हत्यारों में आखिरी नाम है सरकारी कार्यालय । इन कार्यालयों में
ज्यादातर अपने दैनिक कामकाज में बेवजह कठिन और दुरूह हिंदी शब्दों का इतना अधिक इस्तेमाल करते हैं कि आम व्यक्ति तो दूर शायद लिखने वालों की समझ में भी उनके पूरे अर्थ नहीं आते होंगे। उदाहरण के लिए ट्रेन के लिए लोह पथ गामिनी या मोबाइल के लिए चलित दूरभाष। शायद आप में से कुछ ही लोगों का पाला पुलिस थानों से पड़ा होगा लेकिन यदि आप इस जगह से रूबरू हुए हैं तो आपको पता होगा कि थानों में प्रथम सूचना रिपोर्ट- एफआईआर जिस भाषा में लिखी जाती है उसे समझ पाना उन हवलदार साहब के बस में भी नहीं होता जो उसे लिखते हैं।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग ने भी सरकारी कामकाज में कठिन हिंदी शब्दों के स्थान पर सहज और सरल शब्दों के इस्तेमाल की सलाह दी है। जैसे
प्रत्याभूति, मिसिल,अभिलेख और शास्ति जैसे शब्दों के स्थान पर क्रमशः गारंटी, फाइल,रिकॉर्ड और जुर्माना जैसे ज्यादा प्रचलित शब्द ।  वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी अपनी तरफ से हिंदी को सहज और सरल बनाने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है। 1960 में बने संस्थान ने अब तक आठ लाख से ज्यादा शब्द गढ़े हैं जो अब प्रचलन में भी हैं जैसे संगणक के लिए कंप्यूटर या संसद सदस्यों के लिए सांसद । कहने का मतलब यह है कि सरकार के स्तर पर भी भाषा को सहज एवं सरल बनाए रखने के लिए तमाम प्रयास हो रहे हैं बस जरूरत हमें उन्हें अपनाने की है।
सरकारी महकमों में एक चलन और बड़ी तेजी से बढ़ा है, वह है किसी योजना के परिष्कृत संस्करण को अंग्रेजी में लिखा जाना मसलन मोदी 3.0 या फिर उज्जवला 2.0 या इसी तरह के अन्य शब्द जबकि उनके स्थान पर मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल या उज्ज्वला का दूसरा संस्करण जैसे आसान शब्द उपलब्ध हैं।  कुल मिलाकर किसी दूसरे व्यक्ति या दूसरी भाषा को दोष देने की बजाय सबसे पहले हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि हम खुद अपनी भाषा को बर्बाद करने में कितने और किस हद तक जिम्मेदार हैं। सबसे पहले हमें अपने आप से, अपने घर से, अपने बच्चों से,अपनी परस्पर बातचीत से और अपने दफ्तर से शुरुआत करनी होगी तभी हम अपनी भाषा के मान, सम्मान और गुणवत्ता को बरकरार रख पाएंगे।
(संजीव शर्मा  ‘चार देश चालीस कहानियां’ और ‘अयोध्या 22 जनवरी’ जैसी लोकप्रिय किताबों के लेखक हैं)

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