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हिंदी माह में सजने लगी संगठनों की दुकानें सालभर अतापता नहीं–मदन सुमित्रा सिंघल

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यह विचित्र विडंबना है कि आजादी के बाद हर देश का झंडा संविधान एवं राष्ट्रीय भाषा एक होती है लेकिन घोषित राष्ट्रीय भाषा तो हिंदी जरूर है लेकिन हिंदी माह सप्ताह पखवाड़ा एवं हिंदी दिवस एक सालाना त्यौहार की मनाया जाता है। हिंदी संगठनों द्वारा सालभर कोई अतापता नहीं होता कि वो क्या कर रहे हैं लेकिन सितम्बर की आहट सुनते ही चौकन्ने होकर तैयारी कर रहे हैं जो निश्चित रूप से प्रशंसनीय है कि कुछ तो कर रहे हैं जैसे केंद्र सरकार द्वारा राजभाषा क्रियांवन समिति द्वारा लिपापोती की जाती है। इसमें सभी केंद्रीय विभागों में इस महीने हिंदी का कुछ करना है यदि किया गया तो प्रमोशन में कुछ मिलेगा लेकिन नहीं किया गया तो कोई दंड का प्रावधान नहीं है।

    हिंदी दिवस अब हिंदीतर क्षेत्रों में जगह जगह मनाया जाता है लेकिन उनका ढर्रा वही पुराना है जिसमें कोई प्रतियोगिता कवि सम्मेलन बौद्धिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम किया जाता है।
   सम्मानित भी उन लोगों को किया जाता है जो उनके नजदीक है। कवि लोगों को आमंत्रित तक नहीं किया जाता कवियों की पंक्ति में अपनों को बिठाकर इतिश्री कर दी जाती है।
    जब आयोजकों एवं संगठनों के अध्यक्ष सचिव को हिंदी साहित्य बौद्धिक कवि कविता एवं सम्मान करने वालों की क्षमता तथा वरियता का ज्ञान ही नहीं होता सिर्फ परापंरागत आयोजन किया जाता है।
    हर संगठन को हर एक अथवा दो साल बाद उच्च शिक्षित हिंदी एवं साहित्य में दक्ष व्यक्ति को ही अध्यक्ष एवं सचिव बनाना चाहिए ताकि कम से कम लीक से हटकर एवं उपहास वाला काम ना हो।
     पदों के बेरोजगार लोग साल दर साल उसी नौका में सवारी करते हैं जबकि वो पतवार की क्षमता रखते हैं इसलिए कोई भी संगठन पनपता नहीं।
   हिंदी अपने आप विकसित एवं पल्वित भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में हो रही है शायद इसके कारण आज हिंदी के प्रचारक भी दिखाई नहीं देते।
   खैर जो भी अपने अनुभव एवं क्षमता से काम कर रहे हैं वो सभी धन्यवाद के पात्र है कि कुछ तो कर रहे हैं।
मदन सुमित्रा सिंघल
पत्रकार एवं साहित्यकार
शिलचर असम
मो 9435073653

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