होली, यानी रंगों का त्यौहार! बचपन में हमें लगता था कि यह त्यौहार बस गुलाल उड़ाने, भंग की तरंग में झूमने और गुजिया उड़ाने के लिए होता है। लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े हुए, हमने समझा कि असली होली तो समाज और सियासत में खेली जाती है।
अब देखिए, चुनावी मौसम में हर कोई होली की तरह ही ‘रंग बदलने’ में लगा है। किसी पार्टी का नेता सुबह हरा, दोपहर में भगवा और शाम होते-होते नीला नजर आने लगता है। वहीं, नेता जी के चमचे, पिचकारी में पानी नहीं, बल्कि झूठे वादों का रंग भरकर जनता पर छिड़क रहे हैं। जनता भी समझदार हो गई है, अब वो गुलाल की तरह नेताओं को झाड़-पोंछकर देखती है कि असली रंग क्या है!
मोहल्ले के रामलाल चाचा हर साल की तरह इस बार भी घर के बाहर बैठकर पड़ोसियों को चेतावनी दे रहे थे, “देखो भाई, रंग मत डालना! मेरी नई शर्ट है।” और अगले ही पल कोई उन्हें पिचकारी से भिगो देता है। बेचारे रामलाल चाचा फिर वही पुराना डायलॉग मारते हैं, “अरे भाई, अब जब भीगो ही दिया है, तो एक प्लेट गुजिया ही दे दो!”
उधर, भांग के ठंडाई प्रेमियों का भी अलग ही मजा रहता है। पहले तो चार गिलास ठंडाई चढ़ाकर कहते हैं, “मुझे कुछ नहीं हुआ!” और थोड़ी देर बाद किसी सड़क किनारे लेटकर गाते मिलते हैं – “रंग बरसे भीगे चुनरवाली…”।
गली के पंडित जी इस बार भी होली पर ‘समाज सुधार’ का भाषण दे रहे थे। बोले, “होली भाईचारे का पर्व है। किसी पर जबरदस्ती रंग मत लगाना!” और जैसे ही वो मंच से उतरे, पीछे से चार लौंडों ने उनके सिर पर हरा-नीला रंग उड़ेल दिया। बेचारे पंडित जी भी मुस्कुराकर बोले, “अरे! मैंने भी तो यही कहा था कि भाईचारा बनाए रखना!”
अब सोशल मीडिया की होली भी देख लीजिए। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ज्ञानीजन ऐसे-ऐसे जोक्स और ज्ञान की बातें फॉरवर्ड कर रहे हैं कि पढ़ते ही लगे – “हे भगवान! ये ज्ञान किसी विद्वान ने दिया या पड़ोस की चायवाली ने?”
खैर, होली का असली मजा यही है – हंसी, ठिठोली, दोस्ती और मस्ती। इस बार भी अगर कोई कहे, “भाई, मुझे रंग मत लगाना,” तो उसे प्यार से रंगिए और बोलिए – “बुरा ना मानो, होली है!”