फॉलो करें

।।असम के हिंदी अखबारों के गैर-प्रतिष्ठानिक लेखक और उनके साथ प्रतिष्ठानों का रवैया।।

414 Views
असम में शायद पूरे पूर्वोत्तर-व्याप वाले छह अखबार वर्तमान में छप रहे हैं।इन छह अखबारों में एकाध शायद सभी पूर्वोत्तर राज्यों में न भी पहुंच पाए हों फिर भी इनका नाम पूर्वोत्तर के सभी प्रांत के हिंदी-भाषी लोग जानते जरूर हैं।
इन अखबारों में संपादकीय पेज पर स्थानीय लेखकों की एक अच्छी संख्यां है।इन लेखको में गंभीर आलेख लिखने वाले भी हैं,सरोकारी कविता लिखने वाले भी हैं।बेबाक राजनीतिक विमर्श प्रस्तुत करने वाले हैं तो जुनूनी सामाजिक आलेख लिखने वाले भी हैं।इन लेखकों का एक पाठक वर्ग भी है।इनमें से कइयों के लेखन का इंतजार भी पाठक करते हैं।
इनमें से अधिकतर ने संपादक के नाम पत्र लिख कर अपनी लेखन बेचैनी को मिटाने की शुरुवात की होगी।किसी जमाने में असम के हिंदी अखबारों को प्रतिक्रियात्मक पत्र नहीं मिलते थे।अखबारी प्रतिष्ठान अपने संपादकीयों पर प्रतिक्रियाएं और न्यूज़ समीक्षा अपने ही लोगों से लिखवा कर क्षद्म नामों से छापते थे।संपादक अपने पहचान के पाठकों को पत्र-लेखन के लिए भी प्रेरित करते थे।असम के हिंदी अखबारों का पाठक अधिकांश व्यापारी वर्ग का था सो उनमें उस समय समाचारों की सुर्खियां पढ़ कर या मृत्यु-सूचना पढ़ कर अखबार को रद्दी के स्थान पर रख देने स्वाभाविक आदत थी।
तत्कालीन हिंदी अखबारों के प्रतिष्ठानिक लोगों ने बड़ी मेहनत से अपना पाठक वर्ग तैयार किया और कई गैर-प्रतिष्ठानिक लोगों को लेखन के लिए भी तैयार किया।उनमें से कई लोग अच्छे लेखक के रूप में उभरे।अखबारों ने स्थानीय स्तर पर उन्हीं लेखकों में से कइयों को अपना रिपोर्टर भी बनाया।एक रिपोर्टर के रूप में वो लेखक भी एक अखबारी प्रतिष्ठान से जुड़ गए,उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा भी जाने लगा और उन्हें एक मानधन भी देना शुरू किया।याद रहे ये मानधन (पेमेंट) न्यूज़-रिपोर्टिंग के लिए थी।
कुछ लोग सिर्फ वैचारिक आलेख और कविताएं ही लिखते रहे।उनमें से कई पूर्वोत्तर स्तर पर एक लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाने में सक्षम हुए।
ये दुखद विषय है कि पूर्वोत्तर के हिंदी अखबारी प्रतिष्ठानों ने इन स्वतंत्र लेखकों को अपनी तरफ से उनके हिस्से का सम्मान उन्हें नहीं दिया।इन दिनों ऐसे लेखक पूर्वोत्तर के हिंदी अखबारों में छपते तो हैं पर ऐसा लगता है जैसे उन्हें छाप कर प्रतिष्ठान उन पर अनुकंपा कर रहे हैं।कुछ लेखक अलग अलग अखबारों में अपने निजी संबंधों के कारण भी अनवरत छपते हैं।
ऐसे स्थानीय लेखकों से प्रायः सभी अखबारों के संपादकों का ये आग्रह रहता है कि सिर्फ उन्हें ही लेखक अपना मौलिक आलेख भेजें।जब कि प्रायः सभी अखबार राष्ट्रीय स्तर के लेखकों के आलेख एक दो दिन के अंतराल में छापते हैं, चाहे उन राष्ट्रीय लेखकों के साथ उनका अनुबंध हो या न हो।
ये सभी अखबारी प्रतिष्ठान स्थानीय लेखकों को कहते हैं हमारे यहां कई आलेख और पत्र कतार में रहते हैं सो अपनी बारी का इंतजार कीजिये।ये बात सही भी है,पर ये इंतजार कई वार कभी न खत्म होने वाला इंतजार होता है।
राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं पर लिखे जाने वाले आलेख सामयिक होते हैं।संपादक की टेबल पर सामयिकता की मौत हो जाती है।कई वार अच्छे खासे आलेखों को पत्र वाले कॉलम में छाप कर आलेख का महत्व ही खत्म कर दिया जाता है।
आश्चर्य इस बात का है कि इन सभी अखबारों के संपादक उस दौर के लेखक हैं जब पोस्टकार्डों और लिफाफों में रचनाएं भेजी जाती थीं और संपादक उन रचनाओं की अस्वीकृति भी ससम्मान नवोदित लेखकों तक रिपोस्ट करता था।आज सोसल मीडिया के जमाने में मेल पर भेजे आलेखों की अस्वीकृति इन लेखकों को न भेज कर उसकी रचना को अपनी मौत मार देना रचनाकार के साथ अच्छा व्यवहार तो नहीं ही कहा जा सकता।अगर आलेख या किसी भी फॉर्मेट की रचना को उसकी सामयिकता देखते हुए लेखक को अस्वीकृति की सूचना मिल जाये तो वो अन्य अखबार में छपने की कोशिश कर सकता है और ये उसका अधिकार भी है।
मुझे नहीं पता कि ऐसे छपनीय लेखकों को इन प्रतिष्ठानों ने कभी सौ रुपये के मानधन का भी चेक दिया है या नहीं।बात मेहनताने की नहीं है बात ये है कि छापने वाला और छपने वाला दोनो एक संवेदनशील दुनिया बनाने के पक्षकार होते हैं।जब एक गैर नामचीन लेखक को उसकी रचना पर कोई भी रकम मिलती है तो उसे जो गर्व होता है उसका अहसास अखबारों के प्रतिष्ठानिक लेखकों को न हो ऐसा हो नहीं सकता।
खैर छोड़िए एक लेखक पैसों की बात करे ये भी उसके संकोची स्वभाव से मेल नहीं खाता पर ईमानदारी से जेनरल बात रखना भी उसका धर्म होता है।मैं दूसरी बात कहता हूँ क्या इन अखबारों ने ऐसे स्थानीय लेखकों को अपने प्रतिष्ठानों में बुला कर एक फुलाम गामोछा के साथ अपने प्रतिष्ठान के नाम का स्वतंत्र-पत्रकार का प्रेस परिचय पत्र भी प्रदान किया है?क्या नहीं करना चाहिए?कई स्वनामधन्य लोग यूनिवर्सिटियों से मानद उपाधियां ले आते है पर चौथाई शताब्दी से लिखने वाले ये स्थानीय लेखक आज तक प्रेस के कार्ड के अधिकारी भी नहीं माने गए..!
ये आलेख लिखते हुए लेखक के मन में किसी एक अखबारी प्रतिष्ठान विशेष का चित्र नहीं चल रहा,ये एक जेनरल प्रतिष्ठानिक व्यवहार है।हर अखबार की अपनी अच्छाइयां हैं कमजोरियां हैं जो कि वैसे ही स्वाभाविक है जैसे हर इंसान की अपनी अच्छाइयां होती है और कमजोरियां होती है।व्यक्ति विशेष या प्रतिष्ठान विशेष पर सार्वजनिक लिखना वितंडावाद भी है और ओछापन भी है।.. परंतु किसी भी क्षेत्र की जेनरल कमजोरियों पर लिखना एक बेबाक लेखन धर्म है।पाठक और प्रतिष्ठान इस आलेख को उसी दृष्टि से देखें और प्रतिक्रिया करें ये अभीष्ट है…
-संवेद अनु,गुवाहाटी
(अखबार से संबंधित मेरे मित्र इस आलेख को मित्रवत आलोचना समझें,अन्यथा न लें।मेरे मन में उठे विचार मैंने खुल कर लिखे हैं।)

Share this post:

Leave a Comment

खबरें और भी हैं...

लाइव क्रिकट स्कोर

कोरोना अपडेट

Weather Data Source: Wetter Indien 7 tage

राशिफल