।। हमारी विरासत, हमारा इतिहास।।
चाय बागान में रहने वाले हिन्दीभाषियों तथा अन्य चाय जनगोष्ठी के लोगों को आज भी भूमि मालिकाना, जमीन की पट्टा क्यू नहीं मिल रहा है। आज भी जमीन का पट्टा मिलने के पक्ष में कोई कानून बनने का संभावना नहीं दिखता। जब की चाय बागान में रह-रहे हिन्दी तथा अन्या जनगोष्ठी यहा बसे सौ साल से ज्यादा हो रहा है। सन १९०० के पहले पूरा बराक घाटी एक बिरान इलाका था। केवल डिमासा बर्मन जनजाती रहते थे। सड़क और रेल मार्ग नहीं था। जब अंग्रेज कम्पनियो ने चाय बागान खोलना चाहा तो यातायात व्यवस्था अंग्रेज कंपनियों के सामने एक बड़ा चुनौती था। दूर दराज में बसे चाय बागानों तक सड़क और रेल मार्ग से जोड़ना बड़ा कठिन कार्य था। जिस क्षेत्र में सैकड़ों उद्योग स्थापित करने का संभावना हो, उस क्षेत्र को अंग्रेज कम्पनियां कैसे छोड़ सकती थी। सड़क और रेल मार्गे चाय बागान से शहरों तक और शहरों से रेल मार्ग गुवाहाटी खोला गया था। सबसे बड़ा चुनौती बदरपुर लांडिंग को जोड़ना, जो पहाड़ो को चीरते हुए ३८ बोगदाओ (Tunnel) के अंदर से होते हुवे लांडिंग तक पहुँचाना था।
केवल चाय बागान खोलने के लिए ही उस समय का महा दुर्गम पहाड़ियों के अंदर से रेल मार्ग को इस घाटी में लाना पड़ा था। घने जंगल दुर्गम, पहाड़ियों, हिंसक बन्य पशुओं के बीच न जाने कितने लोगों को अपना जान गवाना पड़ा। रेल मार्ग लाने का शुरुआत सन १८८० के बाद हुवा था, कोई चाहे तो पुराने रेल मार्ग लंडिंग के ओर् से आते समय बोगदा (tunnel) में साफ लिखा सन १८८५/८७ देख सकते है। उनदिनों आज के ज़ैसे मशीन न होने कारण मजदूरों को छोटे छोटे औजारों से काम करना पडा था, जो मजदूर उन दुर्गम क्षेत्रों मे कार्यरत थेे, वे सब हमारे लोग थे, उन्हे झूठे प्रलोभन,अधिक सुख सुबिधा देने का वादा कर के श्रमिकों को लाते थे। उन दुर्गम इलाकों में आ-जाने के बाद मजदूूर, श्रमिक वापस जा नहीं पाते। करो या मरो का स्थिति था। इस घाटी में श्रमिकों और उद्योग के लिए सामान लाने के लिए और एक मार्ग था वह था जल मार्ग। बराक नदी मे जहाजों से, बिहार उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से श्रमिकों को लाया गया था। आज उन्ही श्रमिकों का बंशजो का स्थाई ठिकाना, अपना जमीन नहीं है। सौ साल पहले भारत के जिन राज्यों से अपना बिरासत घर-बार छोड़कर आये थे क्या वहाँ फिर से वापस जा पायगे ? कभी नहीं, आज इनमे ज्यादातर लोग जानते भी नहीं की उनके पुरखों का जिला और गांव कौन सा था।
बर्तमान समय चाय उद्योग के मालिक जमीनों को बेच रहे है। लेकिन वहा रह रहे लोगों को जमीन का अधिकार पट्टा नहीं दे रहा है। नेता, मंत्री और सरकार चुप हैं, जैसे हम कोई बिदेशों से आये हुवे शरणार्थी हैं। बड़े बड़े उद्योग, शिक्षा प्रतिष्ठान (कागज कल पाँच ग्राम, चीनी उद्योग आनीपुर, ओ एन जी सी, मेडिकल कालेज भोराखाई , एन आई टी भोराखाई, पोलेटेक्निक भोराखाई, वेटेनारी कोलेज भोराखाई, असम विश्वबिद्यालय, दुर्गाकोना, तीन तीन नवोदय विद्यालय ) और भी अनेकों प्रतिष्ठान चाय बागान के जमीन में स्थापित हो चुका है। पर हमे क्या मिला ? कितने हिन्दी भाषी या अन्य चाय जनगोष्ठी के लोगों को नोकरी मिला ? जमीन का पट्टा मिला ?
चाय बागानों के मालिक चाय उद्योग के जरूरत से ज्यादा जमीन रोके हुवे है, उद्योग मालिक उन अतिरिक्त जमीनों को बेचते है, पर वहाँ के श्रमिकों को नहीं देते। आज चाय उद्योग में रहने वाले श्रमिकों मजदूरों के बारे में सरकार क्यू नहीं सोचती। जबकि पूरे असम में सरकार बनने में चाय बागान के वोटर की मुख्य भूमिका होती है। फिर भी हमे जानबूझकर नजर-अन्दाज कर दिया जाता है।
देश का कानून अगर चाय बागानों में रहने वाले हिन्दी भाषी तथा अन्य लोगों के जमीन का पट्टा सहित जीने का हक नहीं दिला पाया तो उस कानूून को काला कानून कहने में बाध्य है। सरकार को चाय उद्योग एक्ट हो या कम्पनी एक्ट जो भी एक्ट या कानून है उसमे सुधार लाकर चाय बागान श्रमिकों का हित के बारे में सोचना होगा।
आज समय आ गया है अपना अस्तित्व को बचाने का, हमारे पूर्वजों के खुन पसीने से सीचे सजायें हुवे इस बाग (बराक घाटी) में अपना हक अदा करने का, अपने सौ साल से ज्यादा पुराने इतिहास को बचाने का।
***** नरेश कुमार बरेठा, दुर्गाकोना, काछाड़, असम ।