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1948 में गांधीजी की हत्या के बाद नेहरुजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें संदेह था कि इस षड्यंत्र में संघ भी शामिल है; पर न्यायालय ने संघ को साफ बरी कर दिया। प्रतिबंध भी हटा दिया गया। इस दौरान नेहरुजी और उनकी देखादेखी कांग्रेसियों ने संघ के खिलाफ बहुत जहर उगला। सरकारी प्रचार माध्यम भी उनके ही पास थे। इससे यह धारणा बन गयी कि गांधीजी संघ के विरोधी हैं; पर सच ये है कि वे संघ के अनुशासन, सादगी और छुआछूत विरोधी विचारों के बड़े प्रशंसक थे। वे 1934 में वर्धा में संघ के शिविर में तथा 1947 में दिल्ली में संघ की शाखा में आये थे।
दिल्ली में मंदिर मार्ग पर एक वाल्मीकि बस्ती है। तब उसे भंगी कालोनी कहते थे। वहां बिड़लाजी ने एक मंदिर तथा पुजारियों के लिए तीन कमरे बनवा दिये थे; पर कोई पुजारी वहां रहता नहीं था। कमरों के पीछे मैदान में संघ की प्रभात शाखा लगती थी। खाली पड़ा देखकर स्वयंसेवकों ने वे कमरे साफ कर लिये और कुछ लोग वहां रहने लगे। वहां प्रायः संघ की बैठक आदि भी होने लगीं। इससे वह स्थान अघोषित रूप से संघ कार्यालय जैसा हो गया। एक बार गांधीजी के कुछ साथी (बृजकृष्ण चांदीवाला, कृष्णन नायर, प्यारेलाल, सुशीला नैयर आदि) वहां आये। उन्होंने कहा कि गांधीजी कुछ समय यहां रहना चाहते हैं। इस पर स्वयंसेवकों ने कमरे खाली कर दिये। वे लोग अपना सामान वहां ले आये। फिर उन्होंने मैदान में दो मिलट्री वाली छोलदारियां (टैंट) लगाकर उनमें दरी आदि बिछवा दीं। स्वयंसेवक उनमें रहने लगे।
वहां एक बड़ा कमरा था। उसमें उन्होंने दरी, गद्दे, तकिये आदि लगा लिये। छोटे कमरे में गांधीजी का आवास था और बड़े कमरे में बाकी सबका। गांधीजी बड़े कमरे में ही सबसे मिलते थे। प्रतिदिन प्रार्थना सभा भी उसी में होती थी। उस दौरान जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे कांग्रेस के बड़े नेता और लार्ड माउंटबेटन आदि उनसे मिलने आते रहते थे।
शाखा के कार्यक्रमों के शोर से गांधीजी को कष्ट न हो, ये सोचकर स्वयंसेवकों ने कुछ दिन बाद शाखा का स्थान कुछ दूर कर लिया। गांधीजी प्रतिदिन सुबह टहलते थे। एक दिन वे शाखा पर आ गये। 60-70 युवाओं को देखकर उन्होंने कुछ पूछताछ की और किसी दिन स्वयंसेवकों से बात करने की इच्छा व्यक्त की। दिल्ली में उन दिनों श्री वसंतराव ओक प्रांत प्रचारक थे। वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए। गांधीजी से मिलकर 16 सितम्बर, 1947 को सुबह छह बजे का समय तय हुआ। उस दिन वहां दिल्ली की सभी शाखाओं के गटनायक तथा उससे ऊपर के कार्यकताओं का पूर्ण गणवेश में एकत्रीकरण हुआ। लगभग 600 कार्यकर्ता वहां उपस्थित थे।
मैदान में सादगीपूर्ण सज्जा और रेखांकन किया गया था। ध्वजस्थान के पास एक मंच भी बना था। ठीक छह बजे गांधीजी आ गये। उनके आने पर ध्वजारोहण, प्रार्थना और फिर ध्वजावतरण हुआ। गांधीजी ने भी सबके साथ दक्ष में खड़े रहकर प्रार्थना की। फिर उनसे मंच पर आने का निवेदन किया गया। गांधीजी और उनके साथी मंच पर आ गये। विशेष बात यह थी कि संघ का कोई पदाधिकारी मंच पर नहीं बैठा। वे सब सामने पंक्तियों में ही बैठे थे। गांधीजी ने अपने भाषण में मुख्यतः देश की एकता को बनाये रखने की बात की। सब स्वयंसेवक शांतिपूर्वक उन्हें सुनते रहेे। कहीं कोई व्यवधान नहीं था। उन्होंने मुसलमानों को भी संघ में लाने का आग्रह किया।
भाषण के बाद उन्होंने कहा कि किसी को कोई प्रश्न पूछना हो तो कहे; पर किसी ने प्रश्न नहीं पूछा। अतः कार्यक्रम समाप्त हो गया। संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी गांधीजी को उनके आवास तक छोड़कर आये। इस प्रकार गांधीजी का दिल्ली की संघ शाखा पर प्रवास पूरा हुआ।