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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण दामोदर सावरकर का जन्म 25 मई, 1888 को हुआ था।
मैट्रिक के पश्चात 1908 में वे उच्च शिक्षा के लिए बडोदा गए तथा उन्होंने वहां `अभिनव भारत’ की शाखा स्थापित की । इस शाखा के लगभग दो सौ नवयुवकों ने शपथ ली बडोदा का संगठन कार्य नारायणराव ने `मित्रसमाज’ की भांति चहू ओर फैलाया । उस समय उन्होंने पढाई के साथ ही माणिकराव की व्यायामशाला में कुश्ती, मल्लखंब, लाठी इत्यादि का उत्तम ढंग से प्रशिक्षण प्राप्त किया ।
1899 से 1908-9 तक नाशिक में क्रांतिकार्य चरम सीमापर था । इस क्रांतिकार्य के फलस्वरूप केवल 18 वर्ष की आयु में इतिहास प्रसिद्ध `नाशिक षडयंत्र’ अभियोग में नारायणराव को छः महीने का दंड दिया गया 21नवंबर 1909 को बाबाराव को आजीवन कारावास दिया गया । उसके पहले कर्णावती में हुए बम विस्फोट कांड में नारायणराव भी पकडे गए थे । लंदन में विनायकराव पर भी ब्रिटिश शासन की वक्रदृष्टि थी । पुलिस की मार सहकर भी वे अंत में बिना किसी प्रमाण के निर्दोष छूट गए । 18 दिसंबर 1909 को वे घर आए ही थे, कि 21 दिसम्बर को नाशिक में अनंत कान्हेरेने जेक्सन की हत्या कर दी । उसी रात नारायणराव पकड लिए गए तथा पुनः छल यातना के चक्र में फंसा दिए गए
21 जून 1911 को छूटने पर उन्हें किसी भी महाविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल रहा था । अंत में कोलकाता के `नेशनल मेडिकल महाविद्यालय में’ उन्हें प्रवेश मिल गया । आर्थिक बाधाएं, शासकीय गुप्त पुलिसों का पीछा, पुन:पुनः होनेवाली पूछताछ का सामना करते हुए 1916 में नारायणरावने `ऐलोपेथी’ तथा `होमियोपेथी’ दोनों विषयों की उपाधि प्राप्त की । `दंतचिकित्सा’में भी उन्होंने उपाधि प्राप्त की । इन दिनों अध्ययन के व्यय के लिए उन्होंने बीच-बीच में व्यापारी के पास लेखापाल का काम भी किया । पढते समय मैडम कामाद्वारा फ्रांस से भेजी गई आर्थिक सहायता की तुलना किसी से नहीं की जा सकती !
कोलकाता में उन्हीं दिनों नारायणराव तथा डॉ. हेडगेवार में मित्रता हो गई । उन दिनों तीन-चार मित्रों का एक समूह बन गया था । आर्थिक बाधा तो सदा की थी ही । भोजनालय से दो व्यक्तियों का भोजन मंगाना तथा चार व्यक्तियोंने बांटकर खाना, ऐसे ही चल रहा था । वह भी पूरा नहीं पडता । `जो भोजन आप भेजते हैं वह पूरा नहीं पडता है ऐसी शिकायत करनेपर भोजन देनेवाले से थोडा वाद-विवाद हुआ; परंतु उसने कहा, “तुम लोगों में से कोई एक यहां एक दिन आकर खाए । वह जितना खाएगा उतना मैं भेज दिया करूंगा ।”
निवासगृह आने पर विचार-विमर्श के पश्चात निर्णय किया गया कि डॉ. हेडगेवार खाने के लिए जाएं । हेडगेवार खाना खाने गए तथा उन्होंने बाईस-चौबीस रोटियां खाईं ! भोजनालयवाला देख रहा था । उसकी वृति एक दानी जैसी थी । उसने अपना वचन निभाया । वह प्रतिदिन उतनी रोटिया भेजने लगा तथा चारों की अच्छी उदरपूर्ति होने लगी ।
इस प्रसंग के विषय में विख्यात लेखक पु.भा. भावे एक लेख में लिखते हैं, “पेटूपन की यह कथा हिंदुत्व के लिए अमृतवाणी बन गई, क्योंकि उस समय खाया गया प्रत्येक ग्रास (निवाला)दिन-प्रति दिन हिंदुजाति को तेजपुंज एवं पराक्रमी बना गया । सन् 1940 तक अनेक स्थानोंपर मुस्लिम अत्याचारों का मर्दन किया गया । यह सावरकर- हेडगेवार की मैत्री के कारण हो सका !”
ये व्यवसाय से दन्त-चिकित्सक थे। इन्होंने अपने दोनों बड़े भ्राताओं को जेल से छुड़ाने के लिए अथक प्रयास किए। ये नासिक में क्रांतिकारी गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। इन्होंने स्वामी श्रद्धानंद की स्मृति में श्रद्धानन्द साप्ताहिक का तीन वर्षों तक प्रकाशन किया।
ये मुम्बई की हिन्दू महासभा के सक्रिय व वरिष्ठ कार्यकर्ता रहे, तथा बाद में कुछ वर्षों के लिए अध्यक्ष भी रहे। मुंबई में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रथम शाखा इन्ही के दवाखाने में आरम्भ हुई थी। गांधी हत्याकाण्ड के उपरांत जब बम्बई प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों के खिलाफ दंगे हुए, तब उसी दौरान भीड़ द्वारा की गई पत्थरबाजी से उनको चोट पोहची थी। अंततः लगभग डेढ़ साल बाद 19 अक्टूबर, 1949 को उनकी मृत्यु हुई।