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3 जुलाई/पुण्य-तिथि विरक्त सन्त स्वामी रामसुखदास जी

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धर्मप्राण भारत में एक से बढ़कर एक विरक्त सन्त एवं महात्माओं ने जन्म लिया है। ऐसे ही सन्तों में शिरोमणि थे परम वीतरागी स्वामी रामसुखदेव जी महाराज। स्वामी जी के जन्म आदि की ठीक तिथि एवं स्थान का प्रायः पता नहीं लगता; क्योंकि इस बारे में उन्होंने पूछने पर भी कभी चर्चा नहीं की। फिर भी स्वामी रामसुखदास का जन्म राजस्थान के नागौर जिले के ग्राम माडपुरा में रूघाराम पिडवा के यहाँ माघ शुक्ला त्रियोदशी सन् 1904 में हुआ। ऐसा कहा जाता है।
उनका बचपन का नाम क्या था, यह भी लोगों को नहीं पता; पर इतना सत्य है कि बाल्यवस्था से ही साधु सन्तों के साथ बैठने में उन्हें बहुत सुख मिलता था। जिस अवस्था में अन्य बच्चे खेलकूद और खाने-पीने में लगे रहते थे, उस समय वे एकान्त में बैठकर साधना करना पसन्द करते थे। बीकानेर में ही उनका सम्पर्क श्री गम्भीरचन्द दुजारी से हुआ। दुजारी जी भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका के आध्यात्मिक विचारों से बहुत प्रभावित थे। इस प्रकार रामसुखदास जी भी इन महानुभावों के सम्पर्क में आ गये।
जब इन महानुभावों ने गोरखपुर में ‘गीता प्रेस’ की स्थापना की, तो रामसुखदास जी भी उनके साथ इस काम में लग गये। धर्म एवं संस्कृति प्रधान पत्रिका ‘कल्याण’ का उन्होंने काफी समय तक सम्पादन भी किया। उनके इस प्रयास से ‘कल्याण’ ने विश्व भर के धर्मप्रेमियों में अपना स्थान बना लिया। इस दौरान स्वामी रामसुखदास जी ने अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना भी की। धीरे-धीरे पूरे भारत में उनका एक विशिष्ट स्थान बन गया।
आगे चलकर भक्तों के आग्रह पर स्वामी जी ने पूरे देश का भ्रमणकर गीता पर प्रवचन देने प्रारम्भ किये। वे अपने प्रवचनों में कहते थे कि भारत की पहचान गाय, गंगा, गीता, गोपाल तथा गायत्री से है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जब-जब शासन ने हिन्दू कोड बिल और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिन्दू धर्म तथा संस्कृति पर चोट करने का प्रयास किया, तो रामसुखदास जी ने डटकर शासन की उस दुर्नीति का विरोध किया।
स्वामी जी की कथनी तथा करनी में कोई भेद नहीं था। सन्त जीवन स्वीकार करने के बाद उन्होंने जीवन भर पैसे तथा स्त्री को स्पर्श नहीं किया। यहाँ तक कि अपना फोटो भी उन्होंने कभी नहीं खिंचने दिया। उनके दूरदर्शन पर आने वाले प्रवचनों में भी केवल उनका स्वर सुनाई देता था; पर चित्र कभी दिखायी नहीं दिया।
स्वामी जी ने अपनी कथाओं में कभी पैसे नहीं चढ़ने दिये। उनका कोई बैंक खाता भी नहीं था। उन्होंने अपने लिए आश्रम तो दूर, एक कमरा तक नहीं बनाया। उन्होंने किसी पुरुष या महिला को अपना शिष्य भी नहीं बनाया। यदि कोई उनसे शिष्य बना लेने की प्रार्थना करता था, तो वे ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम’ कहकर उसे टाल देते थे।
तीन जुलाई, 2005 (आषाढ़ कृष्ण 11) को ऋषिकेश में 101 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना शरीर छोड़ा। उनकी इच्छानुसार देहावसान के बाद गंगा के तट पर दो चिताएँ बनायी गयीं। एक में उनके शरीर का तथा दूसरी पर उनके वस्त्र, माला, पूजा सामग्री आदि का दाह संस्कार हुआ। इस प्रकार परम वीतरागी सन्त रामुसखदास जी ने देहान्त के बाद भी अपना कोई चिन्ह शेष नहीं छोड़ा, जिससे कोई उनका स्मारक न बना सके।
चिताओं की अग्नि शान्त होने पर अचानक गंगा की एक विशाल लहर आयी और वह समस्त अवशेषों को अपने साथ बहाकर ले गयी। इस प्रकार माँ गंगा ने अपने प्रेमी पुत्र

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