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स्वामी करपात्री जी के नाम से प्रसिद्ध संन्यासी का बचपन का नाम हरनारायण था। इनका जन्म सात जुलाई, 1907 ग्राम भटनी, उत्तर प्रदेश में पण्डित रामनिधि तथा श्रीमती शिवरानी के घर में हुआ था। सनातन धर्म के अनुयायी इनके पिता श्रीराम एवं भगवान शंकर के परमभक्त थे। वे प्रतिदिन पार्थिव पूजा एवं रुद्राभिषेक करते थे। यही संस्कार बालक हरनारायण पर भी पड़े।
बाल्यावस्था में इन्होंने संस्कृत का गहन अध्ययन किया। एक बार इनके पिता इन्हें एक ज्योतिषी के पास ले गये और पूछा कि ये बड़ा होकर क्या बनेगा ? ज्योतिषी से पहले ही ये बोल पड़े, मैं तो बाबा बनूँगा। वास्तव में बचपन से ही इनमें विरक्ति के लक्षण नजर आने लगे थे। समाज में व्याप्त अनास्था एवं धार्मिक मर्यादा के उल्लंघन को देखकर इन्हें बहुत कष्ट होता था। ये कई बार घर से चले गये; पर पिता जी इन्हें फिर ले आते थे।
जब ये कुछ बड़े हुए, तो इनके पिता ने इनका विवाह कर दिया। उनका विचार था कि इससे इनके पैरों में बेड़ियाँ पड़ जायेंगी; पर इनकी रुचि इस ओर नहीं थी। इनके पिता ने कहा कि एक सन्तान हो जाये, तब तुम घर छोड़ देना। कुछ समय बाद इनके घर में एक पुत्री ने जन्म लिया। अब इन्होंने संन्यास का मन बना लिया। इनकी पत्नी भी इनके मार्ग की बाधक नहीं बनी। इस प्रकार 19 वर्ष की अवस्था में इन्होंने घर छोड़ दिया।
गृहत्याग कर उन्होंने अपने गुरु से वेदान्त की शिक्षा ली और फिर हिमालय के हिमाच्छादित पहाड़ों पर चले गये। वहाँ घोर तप करने के बाद इन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके बाद इन्होंने अपना शेष जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में अर्पित कर दिया। ये शरीर पर कौपीन मात्र पहनते थे। भिक्षा के समय जो हाथ में आ जाये, वही स्वीकार कर उसमें ही सन्तोष करते थे। इससे ये ‘करपात्री महाराज’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
1930 में मेरठ में इनकी भेंट स्वामी कृष्ण बोधाश्रम जी से हुई। वैचारिक समानता होने के कारण इसके बाद ये दोनों सन्त ‘एक प्राण दो देह’ के समान आजीवन कार्य करते रहे। करपात्री जी महाराज का मत था कि संन्यासियों को समाज को दिशा देने के लिए सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना चाहिए। अतः इन्होंने रामराज्य परिषद, धर्मवीर दल, धर्मसंघ, महिला संघ.. आदि संस्थाएँ स्थापित कीं।
धर्मसंघ महाविद्यालय में छात्रों को प्राचीन एवं परम्परागत परिपाटी से वेद, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय शास्त्र व कर्मकाण्ड की शिक्षा दी जाती थी। सिद्धान्त, धर्म चर्चा, सनातन धर्म विजय जैसी पत्रिकाएँ तथा दिल्ली, काशी व कोलकाता से सन्मार्ग दैनिक उनकी प्रेरणा से प्रारम्भ हुए।
1947 से पूर्व स्वामी जी अंग्रेज शासन के विरोधी थे; तो आजादी के बाद कांग्रेस सरकार की हिन्दू धर्म विरोधी नीतियों का भी उन्होंने सदा विरोध किया। उनके विरोध के कारण शासन को ‘हिन्दू कोड बिल’ टुकड़ों में बाँटकर पारित करना पड़ा। गोरक्षा के लिए सात नवम्बर, 1966 को दिल्ली में हुए विराट् प्रदर्शन में स्वामी जी ने भी लाठियाँ खाईं और जेल गये।
स्वामी जी ने शंकर सिद्धान्त समाधान; मार्क्सवाद और रामराज्य; विचार पीयूष; संघर्ष और शान्ति; ईश्वर साध्य और साधन; वेदार्थ पारिजात भाष्य; रामायण मीमाँसा; पूंजीवाद, समाजवाद और रामराज्य आदि ग्रन्थों की रचना की।
महान गोभक्त, विद्वान, धर्मरक्षक एवं शास्त्रार्थ महारथी स्वामी करपात्री जी का निधन सात फरवरी, 1982 को हुआ।