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राजु दास, शिलचर: दुर्गोत्सव का अर्थ है भक्ति, आनंद और मेल-मिलाप का पर्व। लेकिन इस बार उस पर्व को खुलेआम कारोबार का रूप दे दिया है चेंकुड़ी तीनअली बुलबुलैया पूजा कमेटी ने। प्रतिमा दर्शन के लिए सौ रुपये का टिकट अनिवार्य करने की उनकी घोषणा से हजारों भक्तों का गुस्सा फूट पड़ा है।
गौरतलब है कि उदारबंद में पहली बार कूपन प्रणाली शुरू हुई थी, लेकिन वहाँ भी आम श्रद्धालुओं के लिए अलग लाइन रखी गई थी। बिलपाड़ ने भी वही तरीका अपनाया, जहाँ कम से कम देवी दर्शन का दरवाजा सबके लिए खुला रहा। लेकिन बुलबुलैया ने साफ कह दिया पैसे दिए बिना देवी दर्शन का कोई मौका नहीं। आम भक्तों के लिए अलग प्रवेश द्वार तक नहीं रखा गया।
नतीजा, मंडप के सामने पहुँचकर भक्तों को दीवार से टकराने जैसा अनुभव हो रहा है। गुस्साए लोग कह रहे हैं कि इस तरह पैसों के बदले देवी दर्शन किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं। भक्ति से ज्यादा पैसे को महत्व देना बेहद शर्मनाक है।
यहाँ असल सवाल यही है कि वास्तव में पूजा हुई भी है या सिर्फ मनोरंजन का एक मंच तैयार किया गया है।
दर्शक गौरव दास ने सीधा आरोप लगाया यह पूजा नहीं, पूजा के नाम पर बेशर्म कारोबार है। अगर अब देवी दर्शन टिकट पर मिलेगा, तो आगे चलकर शायद प्रतिमा के सामने खड़े होने के लिए भी सौदेबाजी करनी पड़े। अगर यह धंधा तुरंत नहीं रुका, तो दुर्गोत्सव की पवित्रता पूरी तरह नष्ट हो जाएगी।
लोगों के गुस्से की जड़ सिर्फ पैसे नहीं, बल्कि इसके पीछे छिपी दोहरी नीति भी है। एक तरफ सत्तारूढ़ दल खुद को कट्टर हिंदुत्ववादी शक्ति के रूप में पेश करने पर तुला है, दूसरी ओर हिंदुओं के सबसे बड़े पर्व में ही देवी दर्शन पर पैसों का दरवाजा बैठा दिया गया। इस विरोधाभास पर भक्तों का सवाल है यह कौन-सा धर्म, यह कौन-सी संस्कृति?
भक्तों के मुताबिक दुर्गोत्सव केवल पूजापाठ नहीं, यह बंगाल का सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन उत्सव है। वहाँ टिकट की दीवार खड़ी करना पर्व को कलंकित करने के बराबर है। श्रद्धालुओं की चेतावनी साफ—अगर अभी यह व्यावसायिक धौंस बंद नहीं हुई, तो आने वाले दिनों में दुर्गोत्सव अपनी असली पहचान खो देगा और बचा रहेगा सिर्फ कारोबार का मंच।




















