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धीरे-धीरे कदम बढ़ाती, पग-पग बढ़ती जाती हिंदी
विश्व पटल पर, अपने बल पर, देखो अपनी लहराती हिंदी!
सहिष्णुता और धैर्य, भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विरासत है। समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है। हम परिवर्तनों के लिए सदा तैयार रहते हैं और आज के समय में अल्पकालिक परिवर्तम भी बड़े दीर्घकालिक प्रभाव वाले होते हैं। ये परिवर्तन इतनी द्रुत गति से हो रहे हैं कि आदमी अपने आप को कब, कहाँ, कैसी परिस्थिति में पाए, वो परिस्थितियाँ सकारात्मक भी हो सकती हैं और नकारात्मक भी, कहना मुश्किल है। लेकिन इन तीव्र परिवर्तनों के दौर से गुजरकर भी हमने बहुत हद तक अपने उपरोक्त दोनों गुणों को नहीं खोया है।
यही विशेषता हमारी भाषाओं में भी है। लगातार परिवर्तनों के दौर से गुजरते हुए उन्होंने भी अपनी विशेषताओं को अक्षुण्ण बनाए रखा है और कभी तीव्रता से और कभी धीमी गति से लेकिन वे प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं। और हमारी हिंदी इन सभी भारतीय भाषाओं के बीच सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है। अगर हम स्वधीनता संग्राम काल को ही लें अर्थात् 1857 से 1947 के बीच की बात करें, तब भी हिंदी की भूमिका भुलाई नहीं जा सकती। हिंदी ने उस सेतु का काम किया जिसने पूरे भारत में विभिन्न दिशाओं से बह रही भाषाई नदियों को स्वयं में आत्मसात कर सबको एकजुट कर दिया। संपूर्ण राष्ट्र उस समय अगर एकसूत्र में बंधा था, तो इसका पूरा श्रेय हिंदी को जाता है। यह देश कृतज्ञ था हिंदी का, जिसने उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कन्याकुमारी और पूर्व कामरूप से पश्चिम कच्छ तक, पूरे देश की भावनाओं को जोड़ दिया। उसमें राष्ट्रीयता की ऐसी लहर उड़ेल दी, जिसका मुकाबला करना अंग्रेजों के बस का नहीं रहा। हिंदी भाषी नेताओं को छोड़ भी दें, गैर हिंदी भाषी क्षेत्र के नेता भी हिंदी के एकमात्र विकल्प को ही साथ लेकर चले। वे सभी भाषा के विषय पर निस्संदेह एकमत थे कि पूरे भारत की संपर्क भाषा एक ही है, वह है हिंदी, जिसे भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। इंडोनेसिया, तुर्की और इजरायल जैसे देशों ने स्वतंत्रता उपरांत तत्काल अपनी भाषा में काम शुरू कर दिया.. लेकिन हमने ऐसा नहीं किया.. और आज परिणाम सामने है।
खैर! कारण क्या था… क्यों ऐसा हुआ… क्या मिलना चाहिए था, क्या मिला.. अब अगर इस बहस में यहाँ ना ही पड़ें तो बेहतर होगा, क्योंकि हमें यहाँ यह देखना है कि सारे अवरोधों, बाधाओं, मुश्किलों, परेशानियों के बावजूद आज हिंदी कहाँ खड़ी है। कभी-कभार निराश होते हुए हम यह भले ही सोच लें कि अंग्रेज जाते-जाते अपनी अंग्रेजीयत यहाँ क्यों छोड़ गए, जिसका अनुसरण करने में आज भी ज्यादातर भारतीय लगे हुए हैं। आज हमारी युवा पीढ़ी भले ही आजाद देश की निवासी है और आजादी की भावना की पराकाष्ठा से ओत-प्रोत है, मन की स्वच्छंदता, पेशे की स्वच्छंदता, अभिव्यक्ति.. पहनावे की स्वच्छंदता, खान-पान.. पठन-अध्ययन.. रहन-सहन की स्वच्छंदता उनमें कूट-कूट कर भरी है, लेकिन कहीं न कहीं वे भाषागत गुलामी से जकड़े हुए हैं। जिम्मेदारी पूरी उनकी नहीं है, इसके लिए जिम्मेदार कई कारण हो सकते हैं, लेकिन एक पक्ष से कोई इंकार नहीं कर सकता कि जैसे देश का उत्थान हर देशवासी का कर्तव्य है, अपने-अपने स्तर पर; वैसे ही भाषा का उत्थान भी हर देशवासी का कर्तव्य है। हम अपनी भूमिका से अनवगत बने रहें, इसके लिए हमें माफी नहीं मिल सकती।
लेकिन यह एकतरफा सत्य है, हिंदी की गति अपने देश के भीतर भले ही मंद हो, पूरे विश्व में वह बहुत तेजी से पैर पसार रही है। पुराने सर्वेक्षणों के अनुसार भारत विश्व की सबसे ज्यादा बोली जानेवाली तीसरी भाषा थी, लेकिन आजकल दावे कुछ और किए जा रहे हैं। ताजा सर्वेक्षणों के अनुसार 24 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिंदी है और 42 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा हिंदी है, और पूरे विश्व में लगभग 1 अरब 30 करोड़ लोग हिंदी बोलने और समझने में सक्षम हैं।
इतना ही नहीं उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक दुनिया का हर पांचवा व्यक्ति हिंदी बोलनेवाला होगा। यूएई और फिजी जैसे देशों की तीसरी राजभाषा हिंदी है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में 18000 शब्द हिंदी से लिए गए हैं। इंटरनेट पर हिंदी की दखल लगातार बढ़ रही है। इंटरनेट पर हिंदी पढ़नेवालों की संख्या हर साल 94 प्रतिशत बढ़ रही है। जबकि यह प्रतिशतता अंग्रेजी की 17 है। 2016 तक इंटरनेट पर 2.2 करोड़ डिजिटल पेमेंट के लिए हिंदी का प्रयोग हो रहा था, अब 2020 तक अंक 8.1 करोड़ तक पहुंच गया है। आज इंटरनेट पर हिंदी का प्रयोग करनेवाले लोगों की संख्या करीब 20 करोड़ है। 2016 तक डिजिटल माध्यम से हिंदी में समाचार प्राप्त करनेवाले लोग 5.5 करोड़ थे जो 2021 में 14.4 करोड़ तक पहुँच गए हैं।
अमीर खुसरो के हिंदवी से शुरू होनेवाली हिंदी, आज आगे बढ़ते हुए विश्व बाजार की सबसे अधिक संभावनों से भरी भाषा दिखाई दे रही है। इससे हिंदी की मांग बहुत बढ़ी है और हिंदी और देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता ने भी बाहर के लोगों को काफी प्रभावित किया है। लेकिन क्या यह अध्यापन पारंपरिक तरीके से संभव है बाहर के विद्यार्थियों के लिए… नहीं! इसके लिए भी डिजिटल तरीका अपनाया जा रहा है। सरकार की तरफ से इस दिशा में काफी सराहनीय प्रयास उपलब्ध हैं, जिससे विदेशी छात्रों के अलावा हमारे हिंदीतर क्षेत्र के भारतवासी काफी लाभ उठा रहे हैं और कहीं न कहीं यह इसी का नतीजा है कि आज वास्तव में हिंदी पूरे भारत की संपर्क भाषा बन गई है।
हिंदी में आज वह सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं, जो आगे बढ़ने के लिए जरूरी हैं। कुछ समय पहले तक कंप्यूटर के लिए हिंदी एक अजनबी भाषा थी.. फिर पहचान थोड़ी बढ़ी और हम अपने-अपने फोंट के साथ कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने लगे। फिर यूनिकोड का जमाना आया और इसके ओपन टाइप फोंट्स के साथ हिंदी स्वावलंबी हो गयी। बिल्कुल आत्मनिर्भर पूरी तरह से डिजिटल। आज हम बोलकर लिख सकते हैं…हम चलते-फिरते अपने समाचार पत्र को पूरा सुन सकते हैं, वह भी अपनी भाषा में। क्यों नहीं हम इस प्रौद्योगिकीय विकास को अपनी भाषा से जोड़कर ही चलें। देश अपनी भाषा के बिना अपूर्ण सा दिखाई देता है, इसे परिपूर्ण करें। क्यों नहीं हम इन अनुवाद टूल्स की मदद से आधुनिकतम तकनीकी अध्ययन सामग्रियों को अनूदित कर वो सभी चीजें अपनी भाषा में उपलब्ध कराएं, जिससे भारत का बच्चा-बच्चा लाभान्वित हो। उसके सामने किसी विदेशी भाषा को सीखने की मजबूरी न हो। और तब हमारे देश की इस विशाल जनसंख्या के सच्चे सामर्थ्य का फायदा मिल सकेगा। यह काम सभी कर सकते हैं, लेकिन इसमें भाषाविद् के अलावा तकनीकीविद् को भी लगना होगा। भाषा को तकनीक से जुड़ना होगा और तकनीक को अपनी भाषाओं से। लेकिन इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को भी सफलता तभी मिलेगी जब उनके प्रयासों को सार्थक करनेवाले प्रयोक्ता हों। ये सभी प्रयास तभी सफल होंगे, जब इन सबकी हमें पूरी जानकारी हो और इन जानकारियों का हम पूरा प्रसार कर सकें। आज देवनागरी लिपि में टॉप लेवल डोमेन नेम की उपलब्धता भी हो गई है, लेकिन हम में से अधिकांश को इसकी जानकारी ही नहीं.. इक्के दुक्के प्रयोक्ता किसी भी नए कदम को सफल नहीं बना सकते। हर नागरिक को सजग होना होगा और स्वाभिमानी भी।
मेक इन इंडिया और स्वदेशी अभियानों की तरह अपना देश और अपनी भाषा को सफलता के उच्चतम पायदान पर ले जाने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने देश के हर पक्ष के प्रति जागरूक हों, संवेदनशील हों। अपनी प्रगति के साथ-साथ या अपने हित के साथ-साथ देश की प्रगति और देश के हित की भी सोचें। विश्व की सर्वाधिक बोली जानेवाली पंद्रह भाषाओं में चार भारत से हैं। यह हमारी अभिव्यक्ति की संपन्नता को दर्शाता है। भाषाएं उस प्रदेश के निवासियों से विकसित होती हैं। उनके द्वारा बोली जाती हैं, उनके ही द्वारा लिखी जाती हैं, उनके काम-काज का माध्यम होती है। यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम उसे आगे कितना बढ़ाते हैं और हमें यह मान लेना चाहिए कि हमारी भाषाएँ प्रौद्योगिकी सक्षम हैं। अगर हमें इसकी जानकारी नहीं है तो हम में कमी है, हमारी भाषाओं में नहीं।
क्यों न हम सोच लें, प्रयास करें और औरों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करें। क्यो न स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद ही सही, हम अपनी भाषा को नया रंग दें, नई ऊंचाई दें, नई पहचान दें, जहाँ अच्छी हिंदी बोलनेवाला विशिष्ट नजर आए और उसे विशिष्ट मानकर हम अपने देश और अपनी भाषा को यथोचित स्थान दें। हिंदी को ज्ञान से जोड़ें.. विज्ञान से जोड़ें; बाजार से जोड़ें.. व्यापार से जोड़ें; साहित्य से जोड़ें.. संस्कृति से जोड़ें और सबसे अधिक आवश्यक है कि इसे रोजगार से जोड़ें। हमारे यहाँ कुछ प्रतिशत रोजगार ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों से आते हैं, रोजगार का सृजन करनेवाले भी हमारे देशवासी ही हैं, वे ऐसे रोजगार बनाएँ जहाँ हिंदी वाले किसी से भी कमतर नहीं नजर आएँ। आज वह दिन आ गया है जब हिंदी में कोई भी कार्य असंभव नहीं है.. यह सच है कि हिंदी देश के बाहर लगातार अपने शाख फैलाती जा रही है और अपनी जड़ें मजबूत करती जा रही है, और चाहें या न चाहें.. सभी देश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत के बाजार पर छाने के लिए हिंदी के महत्व को समझना ही पड़ रहा