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दिल्ली
समाज के पिछड़े और वंचित तबकों को न्याय व्यवस्था से बड़ी उम्मीद रहती है। ऐसे में अदालतों का भी यह नैतिक दायित्व होता है कि वो इस उम्मीद को न सिर्फ कायम रखें, बल्कि इसे और मजबूती प्रदान करें। संविधान निर्माताओं ने भी शायद अदालतों की इस भूमिका को स्वीकारते हुए अनुच्छेद 142 का प्रबंध किया था। यह अनुच्छेद देश की सर्वोच्च अदालत को अधिकार देता है कि वो किसी विशेष मुद्दे पर लीक से हटकर फैसला या आदेश दे सके। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इसी अनुच्छेद का उपयोग करके वह नजीर पेश की जिससे हर असहाय की अदालतों को प्रति आस्था अटूट हो जाए। फिर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाया बल्कि फैसला देने वाले जज ने एक कदम बढ़ा दिया।
आस्था को मजबूत करने वाला आदेश
पहले बात सुप्रीम कोर्ट के सामने आए एक मामले की। शीर्ष अदालत के पास एक स्टूडेंट की शिकायत आई कि उसे आईआईटी बॉम्बे ने इसलिए दाखिला देने से इनकार कर दिया क्योंकि वो वक्त पर पूरा एडमिशन फीस नहीं भर पाया। उसने बताया कि फीस भरने की आखिरी तारीख तक वह तय रकम से कुछ कम पैसे ही जुटा पाया था, इसलिए जब वह ऑनलाइन पेमेंट करने लगा तो सिस्टम ने इसे स्वीकार नहीं किया। फिर उसने बाकी पैसे जुगाड़ किए अगले दिन लाख प्रयास किया, लेकिन चूंकि तय समयसीमा खत्म हो गई थी, वह पेमेंट करने में असफल रहा। फिर वह खड़गपुर आईआईटी जाकर फीस लेने की गुहार लगाई, लेकिन वहां भी उसका आग्रह स्वीकार नहीं हुआ। ऐसे में वह एडमिशन से वंचित रह गया है।
आदेश में जज ने कही बड़ी बात
स्टूडेंट की पूरी बात समझकर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश देने में देर नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि बुनियादी सामान्य ज्ञान की बात है। जब किसी स्टूडेंट को आईआईटी बॉम्बे में सीट मिलेगी तो कौन स्टूडेंट होगा जो 50 हजार रुपये जमा नहीं करेगा। बेंच ने कहा कि इस मामले को मानवीयता के साथ डील किए जाने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने याची स्टूडेंट को बीटेक (सिविल इंजीनियरिंग) में दाखिला देने का आदेश दिया है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि जाहिर तौर पर कुछ वित्तीय परेशानी रही होगी। सिर्फ इसलिए कि ऑनलाइन पेमेंट प्रक्रिया में तकनीकी गड़बड़ी के कारण दलित स्टूडेंट की फीस स्वीकार नहीं हो पाई इस कारण अगर स्टूडेंट को आईआईटी बॉम्बे में सीट देने से मना किया जाएगा तो यह न्याय के उपहास की तरह होगा। सुप्रीम कोर्ट ने जॉइंट सीट अलॉटमेंट अथॉरिटी (जेओएसएए) को निर्देश दिया है कि वह उक्त स्टूडेंट के लिए अतिरिक्त सीट का निर्धारण करे और कहा कि आदेश पर 48 घंटे के भीतर अमल हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दलित स्टूडेंट तकनीकी गड़बड़ी के कारण दाखिला प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाया और अगर उसे मौजूदा एकेडमिक सेशन में शामिल नहीं किया गया तो वह अगली बार प्रवेश परीक्षा में नहीं बैठ पाएगा क्योंकि वह दो लगातार प्रयास पूरे कर चुका है। तब आईआईटी बॉम्बे ने कहा कि सीटें भर चुकी हैं और स्टूडेंट को दाखिला किसी अन्य स्टूडेंट के बदले देना पडे़गा। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि किसी स्टूडेंट का एडमिशन कैंसल करने की जरूरत नहीं है बल्कि इस स्टूडेंट को अतिरिक्त सीट दें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘आप इस स्टूडेंट कोअधर में नहीं छोड़ सकते हैं।’ सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-142 का इस्तेमाल करते हुए स्टूडेंट को दाखिला देने का आदेश दे दिया।
इलहाबाद हाई कोर्ट के जज ने पेश की नजीर
अब बात इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज दिनेश कुमार सिंह के सामने पेश आए एक मामले की। एक दलित छात्रा ने अदालत को बताया कि उसके परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वो आईआईटी में दाखिले के लिए जरूरी फीस भी नहीं जुटा सकी। उसने बताया कि पिता के गुर्दे खराब हैं और उसका प्रत्यारोपण (Kidney Transplantation) होना है। अभी उनका सप्ताह में दो बार डायलसिस होता है। ऐसे में पिता की बीमारी एवं कोविड की मार के कारण वह समय पर फीस नहीं जमा कर पाई।
छात्रा ने अदालत को बताया कि उसने दसवीं की परीक्षा में 95 प्रतिशत तथा बारहवीं कक्षा में 94 प्रतिशत अंक हासिल किए थे। वह जेईई की परीक्षा में बैठी और उसने मेन्स में 92 प्रतिशत अंक प्राप्त किये तथा उसे बतौर अनुसूचित जाति श्रेणी में 2062 वां रैंक हासिल हुआ। उसके बाद वह जेईई एडवांस की परीक्षा में शामिल हुई जिसमें वह 15 अक्टूबर 2021 को सफल घोषित की गई और उसकी रैंक 1469 आई।
जज साहब इस छात्रा के टैलेंट से इतने प्रभावित हुए कि खुद उसकी फीस भर दी। छात्रा की गरीबी का आलम यह है कि वह अपने खर्च पर वकील भी नहीं कर सकी। इस पर अदालत के कहने पर अधिवक्तागण सर्वेश दुबे एवं समता राव ने आगे आकर छात्रा का पक्ष रखने में अदालत का सहयेाग किया। फिर कोर्ट ने जॉइंट सीट एलोकेशन अथॉरिटी और आईआईटी बीएचयू को भी निर्देश दिए कि छात्रा को तीन दिन में दाखिला दिया जाए। अगर सीट न खाली हो तो अतिरिक्त सीट की व्यवस्था की जाए।