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गीता के ऊपर दिल्ली के कवि हरेंद्र नाथ श्रीवास्तव जी की कविता

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निम्न कविता ( जो मैंने गीता की अपनी समझ के बारे में लिखी है और १८ अड़े का सार १८ पड़ो में अपनी अकिंचन बुद्धि के अनुसार लिखा है)
मैं “ गीता “समझ रहा हूँ – हरेंद्र नाथ श्रीवास्तव
मैं “ गीता “समझ रहा हूँ
जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
जाने जीने का मतलब मैं गीता समझ रहा हूँ
जब धर्म की हानि होगी तो ईश्वर को आना होगा
धरती पर विपदा भारी तो ईश्वर को आना होगा
जो सुनता आया बचपन से मैं वही कह रहा हूँ
जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
फल कर्म अनुसार है उत्तम कार्य ही द्वार है
समर्पित ईश्वर को सब कार्य है ये सतत लगातार है
मन में ध्यान रहे ये हमेशा मैं मंत्र जप रहा हूँ
जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
एक दिन मेरे मन में आया कुछ मैं भी लिखू गीता पर
इतने दिन सुना पढ़ा है समझा हूँ कितना गीता पर
क्षमा करें, ईश्वर इच्छा मान कर मैं अपनी समझ लिख रहा हूँ
१ ग़लत सोच बन जाये तो जीवन एक समस्या
   मन में घर कर जाये तो फिर विकट समस्या
   निवारण शीघ्र कर लेना ये वचन कह रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
२ ज्ञान प्राप्त करना है – है बहुत ज़रूरी जग में
  उचित विधा के बल पर मिलता है हल सब पल में
  उचित ज्ञान से अंतिम हल है मैं परम कह रहा हूँ
  जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
३ दुनिया में जितने दुःख है सब लोभ मोह माया है
   परमार्थ और परहित बिन यह सब जग जाया है
   सब त्याग स्वार्थ का कर लो मैं कथन कर रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
४ प्रार्थना और भजन की विधाएँ बहुत हैं सारी
   पर “करनी”मन से कर लो ये सब पर है भारी
   हर ठीक करम है “अर्चन” यह मनन दे रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
५ अपना अहम और निजता बाधाएँ हैं कुछ पाने में
  “ मैं” तज देते ही मिलता सुख परम आनंद पाने में
    बस त्याग से उपजे परम सुख मैं करम कर रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
६ इक दिन चेतन होने से नहीं होती राह सुगम है
   हर दिन मन बोध जो रहता नहीं कुछ भी कहीं अगम है
   रहे उत्तम चेतन निश दिन मैं मंत्र गुन रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
७ हम नित जीवन में अपने हैं अनुभव से कुछ पाते
   उस ज्ञान सीख के बल पर हैं मिलते अगले रस्ते
   चलना इन सीखे रास्तों पर मैं मार्ग दे रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
८ तुम में इतनी क्षमता है तुम कुछ भी हो कर सकते
   रख विश्वास ये मन में तुम अंत सत्य पा सकते
   विश्वास न ख़ुद पर तजना मैं डगर दे रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
९ जो भी मिले जहां में कभी न कमतर समझो
   आशीर्वाद मिले जो जहां से उसे ही बेहतर समझो
   महिमा आशीर्वाद मिलने की मैं जतन दे रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१० यहाँ वहाँ जहां में कुदरत ही पड़े दिखायी
    इस में उसमैं और सब में देवत्व पड़े दिखायी
    देखो देवत्व हर जन हर कण में ये प्रयत्न दे रहा हूँ
    जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
११ जो चीज जहां में जैसी वैसी ही दिखाई दे
     इतना रहे भाव समर्पण न कोई रंग चढ़ाई दे
    करें मन संपूर्ण समर्पित यह नज़र दे रहा हूँ
   जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१२ इस रास्ते पर चलते चलते कितना और जाना है
     है यह राह अभी अपरिमित पर चलते ही जाना है
     लीन रहो  तुम उच्च राह पर मैं लक्ष्य दे रहा हूँ
     जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१३ माया नहीं है ईश्वर इच्छा – इस भ्रम में मत रहना
    लोभ मोह मद क्रोध नहीं है ईश्वर की राह में रहना
    माया तज़ ईश्वर में रमना -मंत्र यह मैं सरल दे रहा हूँ
    जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१४ अपनी शैली सीधी सादी नहीं किसी भ्रम जाल में उलझी
    जीवन में ईमान साथ है गई पहेली कठिन भी सुलझी
    तो ईमानदार जीवन है जीना नहीं ये मैं गरल दे रहा हूँ
     जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१५ ईश्वर ने दी कितनी ही राहें सबने ही है खोली बाहे
     कर्म वही जो उसको भाये राह वही जो उसको जाये
     सबसे प्रथम देवत्व पथ है मैं ये समझ दे रहा हूँ
    जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१६ अच्छा बननास्वयं ही फल है सच में तो बस ये ही फल है
  जिस कार्य से मन प्रसन्न हो ईश्वर का ही  ये एक पल है
     अच्छायी ही बस इक सही मार्ग है मैं चलन दे रहा हूँ
    जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१७ जब द्वन्द हो दो समप्रिय में और एक को पड़ता है चुनना
तज सुहावन और मनभावन उचित और सही ही है चुनना
      यही धर्म है यही कर्म है मैं गुंजायमान कर रहा हूँ
       जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
१८ मुक्त हो जाओ सारे बंधन से जीवन भी एक बंधन
     अगली राह पकड़ लो बढ़कर जो ईश्वर से गठबंधन
     आत्म मिले परमात्म में जिसमें मैं व्याप्त हो रहा हूँ
     जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
गीता को जितना समझा जितना जाना अपनी छोटी बुद्धि से
जितना भी अब तक समझा मैं लिखा सीधी सरल वाणी से
धृष्टता क्षमा करें सब मेरी मैं लघु हूँ बड़ा लिख रहा हूँ
जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
अपनी छोटी बुद्धि से जितना समझा मैं उतना भी नहीं लिख पाया
स्वयं भगवान के श्रीमुख से निकाला मैं सार भी समझ नहीं पाया
क्षमा करें और ख़ुद समझें जो मैं नहीं समझ पा रहा हूँ
आत्म निरीक्षण करना है जो भी लिखा गया है
आत्म दर्शन से संभव है करना जो कहा गया है
अंतर्दृष्टि जागृत हो मैं लौ लगा रहा हूँ
जो अर्थ निकालेंगे मैं उनसे कह रहा हूँ
जितना पढ़ियेगा जितना गुनियेगा उतना ही समझेंगे
उतरेंगे जीवन में सदगुण – दुख पास नहीं फटकेंगे
गीता है जीवन दर्शन – मैं कुछ कुछ समझ रहा हूँ
जो अर्थ निकालेंगे मैं नई कह रहा हूँ
जीवन जीने का मतलब “गीता” से समझ रहा हूँ
( इसमें सुधार हेतु सुझावों का स्वागत है । आप से अनुरोध है की अपने सुझाव देकर अनुगृहीत करें )
हरेंद्र नाथ श्रीवास्तव
स्वरचित व अप्रकाशित
सर्वाधिकार सुरक्षित

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