प्रिय मित्रों !जैसी कि मेरी प्रतिज्ञा तथा मान्यता है कि भारतीय ज्ञानमयि संस्कृति के अंतर्गत विश्व के सम्पूर्ण जीवनमुक्त महापुरुषों के शब्दों में भिन्नता होते हुवे भी”मतैक्यता-परमार्थ “ही है !और इसी संदर्भ में मैं”आज से जैन-मत के “कैवल्य प प्राप्ति” विषय पर कुछ निबंध प्रस्तुत कर रहा हूँ ! हमारे जैन बन्धुवों का अत्यंत ही महत्वपूर्ण पर्यूषण पर्वान्तर्गत भगवान श्री महावीर स्वामी जी के श्रीचरणों में यह एक मेरी बहूत समय पूर्व में लिखित श्रृंखलात्मक प्रस्तुति है,जिसका पुनर्षंशोधित् संस्करण मैं अपने श्री माधवजी के श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
कैवल्य अर्थात “विशुद्ध ज्ञान देहाय” मुनि-वर्ग कहतेहैं कि- “मोहनीय दर्षनावरण ज्ञानावरण तथा अंतराय” का भेद मिटते ही “कैवल्य”की उपलब्धि होती है,इनसे निम्नलिखित सूत्रों का स्वयम् ही प्राकट्य होता है—-
“(१) मिथ्या दृष्टि (२) सासादन (३) सम्यक् दृष्टि (४) मिश्र दृष्टि (५) अविरत सम्यक् दृष्टि (६) देश विरत (७) प्रमत्त सम्यक्
(८) अप्रमत्त सम्यक् (९) अपूर्वकरण (१०) अनिवृतिकरण
(११) सूक्ष्म साम्पराय, (१२) उपशान्तमोह (१३) क्षीणमोह
(१४) सयोगकेवली अर्थात -योग सहित केवल ज्ञान।”
इन १४ सूत्रों के आधार स्तम्भ पर अर्वाचीन युग में भारतीय वैदिकीय कर्मकांडों में आयी कुछेक विषमताओं के कारण जब सामान्य वैश्य स्वभाव का जनमानस किंकर्तव्यविमूढ़ सा होता जा रहा था, तभी हमें सम्हालने हेतु भगवान शिव ने जैन मत का प्राकट्य कर समाज को सम्बल प्रदान किया।
इन गुणस्थानों में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त आत्मशक्ति प्राप्त हो जाती है,और अयोगकेवली – योग रहित केवल ज्ञान—ये अद्भुत और अविस्मरणीय चौदह सूत्र हैं “जैन मत”के।आज मैं आपके साथ इन पर विचार करता हूँ—-
“प्रथम सूत्र “मेरे आपके परमार्थ का सबसे प्रथम आवरण ही “मिथ्या दृष्टि” है!!”मिथ्या दृष्टि”अर्थात मैं अपने आपको-“आनंद शास्त्री ” नामधारी संज्ञा वाला और एक पुरूष ही समझ बैठा हूँ।
मैं अपने भोतिक शरीर,समबन्ध,स्थान,सामग्री,विचा
काश् यह मिथ्या दृष्टि अगर मेरी मिट सकती ! इस चरण का प्रतीक ही-“सकल अज्ञान” है !अगर मैं ,अपने आपको इस स्तर से उठाने का प्रयास करूँ तो!!मैं किसी भी मत-मतान्तर के द्वारा!!सद्गुरु के द्वारा जागृत होने को यदि तत्पर होता हूँ तो इसका अर्थ यह होता है कि मैं-“स्वस्वरूप चिन्तन” हेतु कृत संकल्प हूँ’,शिव संकल्प हूँ।
मित्रों ! यदि सद्भाग्य से ऐसा होता है !तो यह भी साथ ही साथ होगा !एक घटना सी घटित होगी ! आपमें कुछ”अस्थायी उर्जा ईश्वर प्रदत्त अंतः प्रेरणा” विकसित होगी ही।
ये आवस्यक नहीं है कि आप किस गुरू के शिष्य हैं !
यह भी जरूरी नहीं है कि आप जैनी हैं या बौद्ध !
आपका ईश्वर आगम और धम्मपद में नहीं है !
आपके “साहिब”बीजक में नहीं हैं ! मेरे “साँवरे”जी कागज की बनी किताबों और स्याही से लिखे मंत्रों में नहीं हैं !
ये मंत्र,वेद,शास्त्र,बीजक,आगम,धम्
आप जैसे ही भगवद् मार्ग पर चलेंगे आपके आगे -पीछे के आपके ही सहयात्री आपको पीछे घकेलना !
आपको भृमित करना !आपके पथ को गलत सिद्ध करना प्रारंभ कर देंगे।
इसे ही आगम में जैन मुनी कहते हैं- दर्शनमोहनिय कर्म की पहली तीन ऊर्जा – जो वास्तविक विश्वास को रौकती हैं!!मैं आपको एक बात बता दूँ ! मैं आपका मित्र “आनंद”अज्ञानी हो सकता हूँ !व्याकरणादि से अनभिज्ञ हो सकता हूँ!!किंतु नकलची नहीं हूँ!!गूगल का आश्रित नहीं हूँ।इन सद्ग्रन्थों के अध्ययन में अपने जीवन को डुबो कर जो कुछ पढा,समझने की कोशिश की और वही आपके समक्ष रखने का प्रयास करता हूँ- मैं कभी काॅपी पेस्ट के द्वारा आपको किसी की जूठन अपने नाम से नहीं परोसूँगा !महापुरुषों द्वारा प्रकट किये गये शास्त्र उपनिषद बीजक आगम और धम्मपद जैसे सद्गगृंथों के आश्रय में ही आपके समक्ष अपने विचार प्रकट करूँगा।
और इसी के साथ इस अंक का भावानुबोधन पूर्ण करता हूँ, अगले अंक के साथ आपकी सेवा में शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ– “आनंद शास्त्री”
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जैन मत के १४~ सूत्र– अंक-२
मेरे प्रिय मित्रों ! जैन-मत के “कैवल्य पद प्राप्ति” विषय पर कुछेक निबंधों को प्रस्तुत कर रहा हूँ!!यह एक मेरी श्रृखलात्मक प्रस्तुति है,जिसका पुनर्षंशोधित् संस्करण मैं अपने प्रिय श्री माधवजी के श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–“जिन मत अर्थात अभिप्राय- यह स्पष्ट करता है कि- “अनंतनुबंधि” अनंत प्रकार के क्रोध, अभिमान, छल और लालच का कारण “मिथ्या दृष्टि” है !और ऐसा ही हमारी वैदिक संस्कृति भी कहती है !और इसके शमन का उपाय है–
(२)- “सासादन सम्यक्-दृष्टि” जो कि इस श्रृंखला का द्वितीय सूत्र है—अर्थात् जब मुझे अनंतकाल के बंधनों के कारण “अनंतनुबंधि” के कारण अनेक विधाओं से नाना प्रकार के क्रोध, अभिमान, छल और लालच सताने लगते हैं ! आगम के चौदह सूत्रांतर्गत दूसरा सूत्र यही कहता है कि-“सासादन सम्यक् दृष्टि”
अत्यंत ही मनोरम सूत्र है यह-
जिन मत का यह सूत्र कहता है कि-“सासादन”यह गुणस्थान मेरी आपकी मानसिक स्थिति को दर्शाता है जब मैं सम्यक् दर्शन से डिग रहा होउँ। इसका अर्थ है मेरे-“समयक्त्व” का विनाश। सम्यक् दृष्टि के संदर्भ में अर्थात-“सासादन” हेतु श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं कि-
“विद्या विनय सम्पन्ने ब्राम्हणे गवि हस्तिनी ।
शुनि चैव श्वपाकेश्च समदर्शिना ते ब्राम्हणाः॥
हमारे महापुरुषों ने कहा है कि-“आत्मवत् सर्वभूतेषु”! अर्थात मुझे जैसा ब्यवहार अपने लिये अच्छा लगता है,वैसा ही ब्यवहार सभी को पसंद होगा ! यदि मुझे मीठी भाषा ,सहयोग आदि अच्छे लगते हैं,तो हम दूसरों के साथ भी वैसा ही करें !
अब एक बात और !गहनता से विचार करें-“यदि मैं आपका आदर न करूँ,और आपसे आदर की अपेक्षा करूँ तो यह उचित होगा ?”
मैं सबका आदर करूँ ! यह मेरा कर्तब्य है,और मेरे वश में भी है !आप मेरे साथ कैसा ब्यवहार करते हो,यह आपकी ईच्छा और आपके वशमें है !
लेकिन मैं तो सम्यक-दृश्टि का पालन कर सकता हूँ ! महापुरुषों का सदैव से ये उपदेश रहा है कि अपने शत्रुओं का भी यथोचित सत्कार करना न्यायोचित है, मित्रों ! तिर्थंड़्कर कहते हैं कि-
“आसन से मत डोल री तुझे पिया मिलेंगे”
मैं आपको यह स्पष्ट कर दूँ कि तीर्थ॔कर अर्थात जिन्होंने “आत्म गंगा” अपने भीतर की गंगा में स्नान कर लिया !”निवृत्त” हो गये जो परमार्थ से ! और वही तो स्नान की विधी भी बतला सकते हैं।
सूत्र कहता है कि-“सासादन”अब यहाँपर एक बात कहूँगा-प्राचीन जैन गृंथों में बाद में कुछेक भटके हुवे लोगों ने प्रक्षेपित कर सनातन के विरूद्ध आग उगली है!!सनातन के राम कृष्णादि के प्रति घृणिततम् शब्दों का प्रयोग किया गया है !भगवती सीता के चरित्र को अत्यंत ही घृणास्पद चित्रित किया गया है !राम कृष्णादि को नर्क गामी कहा गया !उनके शाषन काल में अनेक मंदिरों को तोड़ दिया गया।
और हमारे भी कुछ आचार्यों ने प्रतिकार करते हुवे कहा है कि- अगर तुम्हारे पीछे पागल हाथी तुम्हे कुचलने को दौड़ रहा हो!!तुम्हारे दाहिनी तरफ खंदक हो!!और बाँयी तरफ-“जैन देरासर” तो हाथी के पाँव तले कुचल जाना!!खाई में कूद जाना!!पर बचने के लिये जैन देरासर में मत जाना।
इतनी गहेरी “शत्रुता”है हममें और उनमें!!ईशापूर्व ८७० वर्ष पूर्व आचार्य प्रवर पार्श्वनाथ जी ने इस खाई को पाटने के लिये यह सूत्र कहा था!!किंतु किसी ने भी इस सूत्र को समझने का प्रयास नहीं किया ! समय बहुत बडे बडे घावों को भर देता है ! सामान्य जैन धर्मावलम्बियों ने अपने-आप को कभी अहिन्दु नहीं समझा ! कुछेक पारिवारिक परम्परागत दूरियाँ कितनी भी हों नजदीकियाँ उनसे हजार गुना अधिक हैं।
मैं तो आपसे इतना जरूर कहूँगा कि-जो शराबी हैं,हिंसक हैं, असामाजिक हैं,जिन्हें अध्यात्मादि में रुचि नहीं है !वे तो इस सूत्र को कदाचित न समझें !किंतु जो- “मुनी”हैं ,उन्हे तो समझना ही होगा !कल तक किसने समझा न समझा !छोड़ दें इन सब बातों को ! भूल जायें !कि कुछेक “जिनाचार्यों “ने हमारे सनातन को जैन मत से खण्डित करने हेयु यह सब प्रक्षेपित “दुष्ट-दष्टांत”भर दिये।ज्ञानी बदला नहीं लेते,आग में ईंधन नहीं डालते ! गंगाजल डालते हैं ! आज भी एक प्रसिद्ध जैन-मुनी सनातन के विरुद्ध आग उगलते हैं।
आप देखना ! शायद फेसबुक,प्रिंट और शोशल मीडिया पर ही जैन मत के कोई विरोधी तथाकथित सनातन के कट्टर समर्थक मेरे निबंध पर भी नकारात्मक विचार रख सकते हैं ! किन्तु क्या यह उचित होगा ?
सासादन- अर्थात हम आप अपनी सम्यक दृष्टि से डिग रहे हैं! यह सूत्र हमें सावधान करता है!! तो इसके विषय मे अगले अंक में चर्चा करता हूँ–“आनंद शास्त्री “
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- Admin
- August 16, 2023
- 12:49 pm
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जैन मत के १४ सूत्र– अंक-१
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