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“लुप्त होती मानवता”

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सभ्यता हुई थी विकसित
मानव को बुद्धि आने से,
इसलिए मानव हुआ श्रेष्ठ
पशु से अंतर दिखलाने में।
मानव को हुआ ज्ञान बोध
आदर्श समाज का निर्माण हुआ,
मगर आजके सभ्य जीवन मे
मानव फिर से अज्ञान हुआ।
व्यक्तिगत लाभहानी के चलते
अपना मानवता भूल गया,
आधुनिकता के चकाचौंध में
समाज निर्माता समाजिकता भूल गया।
लुप्त होती मानवता आज
प्रेम सदभाव पर गिरा गाज
करुणा परोपकार का हुआ अंत
नहीं रहा अब कोई संत
धन-यश केलिए मानव
मन से बना है दानव
रिश्ते नाते दोस्ती यारी
सब पर पड़ा है स्वार्थ भारी
औरों का दुख विपत्ति देखकर
शोक व्यक्त करता है हंसकर
मन में लिए कुटिल मुस्कान
अलापता है जटिल निदान।
साथ में चलने वाले को
कैसे लंगड़ी मार गिराए,
जिससे रास्ता हो सुना
आगे बढ़ने में ना कोई टकराए।
मिला है मानव तन
पार कर लाख चौरासी जीवन
इसलिए इतनी दया तो कर भगवन
ताकि जीवित रहे मानवता मन।
राजदीप राय
दुल्लभछोड़ा, करीमगंज
8011960168

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