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सारे सहरा अपने हिस्से में रखकर
समंदर सभी, उसमें उड़ेल दिए मैंने
मेरी चाह उसकी हंसी
उसकी तलाश जाने क्या ?
क्या करें, अपनी अपनी अपनी तिशनगी का
मिजाज़ है !
जहां गया नहीं मुसाफिर कोई
उस आखिरी छोर तक भी गया मैं
हर घड़ी, हर किसी, हर कहीं
वो उस दौर तक भी गया मैं,
उसका पैमाना जाने कितना बेरहम ?
क्या करें जो उनके लिए अभी सिर्फ आगाज है!
क्या करें, अपनी अपनी अपनी तिशनगी का
मिजाज़ है !
–
तू ही तू, सिर्फ तू, बस तू
ये वाला भी किया, नहीं चला
हादसा वो हो के रहा,
मुझसे ना टला
उनकी ख्वाहिश ना मेरी खामोशी
ना खुली जुबां ?
क्या करें गर उसके शहर का यही रिवाज है !
क्या करें अपनी अपनी अपनी तिशनगी का
मिजाज़ है !
विश्वास राणा “GYPSY”