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क्यों मनाते हैं जीवित्पुत्रिका या जिउतिया का व्रत – डॉ. बी.के. मल्लिक

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जीवित्पुत्रिका व्रत को जितिया या जिउतिया के नाम से भी जाना जाता है। इस व्रत को मुख्य रूप से विवाहित महिलाएं अपने संतान की लंबी उम्र और अच्छी जिंदगी के लिए रखती हैं। हर साल आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका का व्रत रखा जाता है। जिउतिया व्रत तीन दिनों का त्यौहार होता है। पहले दिन महिलाएं नहाय खाय करती हैं। दूसरे दिन निर्जला व्रत रखा जाता है और तीसरे दिन व्रत का पारण किया जाता है।
   इस दिन स्त्रियां संतान की दीर्धायु के लिए 24 घंटे का निर्जला व्रत करती हैं। मान्यता है कि ये व्रत महाभारत काल से चला आ रहा है। कहते हैं इस व्रत के प्रताप से अभिमन्यु के मृत शिशु दोबारा जीवित हो उठा था। इसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहते हैं।
हिन्दू धर्म में सभी व्रतों को महत्व दिया जाता है।उन्हीं व्रतों में से एक व्रत है जीवित्पुत्रिका व्रत। इसे जितिया या जिउतिया के नाम से भी जाना जाता है। इस व्रत को मुख्य रूप से विवाहित महिलाएं अपने संतान की लंबी उम्र और अच्छी जिंदगी के लिए रखती हैं। हर साल आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका का व्रत रखा जाता है। जितिया व्रत तीन दिनों का त्योहार होता है। पहले दिन महिलाएं नहाय खाय करती हैं।दूसरे दिन निर्जला व्रत रखा जाता है और तीसरे दिन व्रत का पारण किया जाता है।
*जितिया व्रत की पौराणिक पहली कथा*
   पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के दौरान अश्वत्थामा पिता की मौत का समाचार सुनकर बेहद नाराज हो गए थे। वे मन में बदले की भावना लेकर पांडवों के शिविर में आ गए। शिविर में 5 लोग सो रहे थे। जिसे अश्वत्थामा ने पांडव समझकर मृत्यु लोक पहुंचा दिया था। मारे गए ये पांचों लोग द्रोपदी की संतान कही जाती हैं। इस घटना के बाद अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बनाकर उनकी दिव्य मणि छीन ली। जिससे क्रोधित होकर अश्वत्थामा ने गर्भ में पल रहे अभिमन्यु के बच्चे को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद भगवान कृष्ण ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा की अजन्मी संतान को अपने सभी पुण्य का फल देकर गर्भ में ही जीवित कर दिया। गर्भ में पल रहे इस बच्चे को जीवित्पुत्रिका का नाम दिया गया। तभी से माताओं द्वारा बच्चे की लंबी उम्र और रक्षा की कामना के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत रखने की परंपरा आरंभ हुई।
*जितिया व्रत की पौराणिक दूसरी  कथा*
   जितिया व्रत में इस कथा का विशेष महत्व है। कथा के अनुसार गंधर्वों के एक राजकुमार थे, जिनका नाम जीमूतवाहन था। जीमूतवाहन पिता की सेवा के लिए युवाकाल में ही राजपाट छोड़कर वन में चले गए थे। एक दिन जंगल में उनकी मुलाकात एक नागमाता से हुई। जो बड़ी दुखी थी। जीमूतवाहन के नागमाता से विलाप का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि नागों ने पक्षीराज गरुड़ को वचन दिया है कि प्रत्येक दिन वे एक नाग को उनके आहार के रूप में देंगे। इस समझौते के चलते वृद्धा के पुत्र शंखचूड़ को गरुड़ के सामने जाना था, जिससे वह बहुत परेशान थी। जीमूतवाहन ने नागमाता को वचन दिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे और उनकी रक्षा करके उन्हें वापस लौटा देंगे। जीमूतवाहन खुद को नाग के पुत्र की जगह कपड़े में लिपटकर गरुड़ के सामने उस शिला पर जाकर लेट गए, जहां से गरुड़ अपना आहार उठाता है।
जीमूतवाहन ने बचाई बच्चे की जान
   पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार एक गरुड़ और एक मादा लोमड़ी नर्मदा नदी के पास एक हिमालय के जंगल में रहते थे। दोनों ने कुछ महिलाओं को पूजा करते और उपवास करते देखा और खुद भी इसे देखने की कामना की। उनके उपवास के दौरान, लोमड़ी भूख के कारण बेहोश हो गई और चुपके से भोजन कर लिया। दूसरी ओर, चील ने पूरे समर्पण के साथ व्रत का पालन किया और उसे पूरा किया। परिणामस्वरूप लोमड़ी से पैदा हुए सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही खत्म हो गए और चील की संतान लंबी आयु के लिए धन्य हो गई।
    इस कथा के अनुसार जीमूतवाहन गंधर्व के बुद्धिमान और राजा थे। जीमूतवाहन शासक बनने से संतुष्ट नहीं थे और परिणामस्वरूप उन्होंने अपने भाइयों को अपने राज्य की सभी जिम्मेदारियां दीं और अपने पिता की सेवा के लिए जंगल में चले गए। एक दिन जंगल में भटकते हुए उन्‍हें एक बुढ़िया विलाप करती हुई मिलती है। उन्‍होंने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा। इसपर उसने उसे बताया कि वह सांप (नागवंशी) के परिवार से है और उसका एक ही बेटा है। एक शपथ के रूप में हर दिन एक सांप पक्षीराज गरुड़ को चढ़ाया जाता है और उस दिन उसके बेटे का नंबर था।
   उसकी समस्या सुनने के बाद ज‍िमूतवाहन ने उन्‍हें आश्‍वासन द‍िया क‍ि वह उनके बेटे को जीव‍ित वापस लेकर आएंगे। तब वह खुद गरुड़ का चारा बनने का व‍िचार कर चट्टान पर लेट जाते हैं। तब गरुड़ आता है और अपनी अंगुलियों से लाल कपड़े से ढंके हुए जिमूतवाहन को पकड़कर चट्टान पर चढ़ जाता है। उसे हैरानी होती है क‍ि ज‍िसे उसने पकड़ा है वह कोई प्रति‍क्रिया क्‍यों नहीं दे रहा है। तब वह ज‍िमूतवाहन से उनके बारे में पूछता है। तब गरुड़ ज‍िमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रसन्न होकर सांपों से कोई और बलिदान नहीं लेने का वादा करता है। मान्‍यता है क‍ि तभी से ही संतान की लंबी उम्र और कल्‍याण के ल‍िए ज‍ित‍िया व्रत मनाया जाता है।
   गरुड़ आया और शिला पर से अपने जीमूतवाहन को पंजों में दबाकर पहाड़ की तरफ ले गया। गरुड़ ने देखा कि हर बार कि तरह इस बार नाग न चिल्ला रहा है और न ही रो रहा है। उसने कपड़ा हटाया तो जीमूतवाहन को पाया। जीमूतवाहन ने सारी कहानी गरुड़ को बताई, जिसके बाद गरुड़ ने उन्हें छोड़ दिया। इतना ही नहीं, नागों को न खाने का भी वचन दिया। इस तरह से जीमूतवाहन ने नागों की रक्षा की, तभी से संतान की सुरक्षा और सुख के लिए जितिया व्रत में जीमूतवाहन की पूजा शुभ फलदायी मानी गई है।
जिवित्पुत्रिका व्रत पूजा विधि  जीवित्पुत्रिका व्रत में व्रती व्रत के अगले दिन स्नानादि कर कुशा से बनी जीमूतवाहन भगवान की प्रतिमा के सामने धूप-दीप, चावल और पुष्प अर्पित करती है और फिर विधि विधान से पूजा करती है। इसमें गाय के गोबर और मिट्टी से चील और सियारिन की मूर्ति बनाई जाती है। पूजा करते हुए इनके माथे पर सिंदूर से टीका भी लगाते हैं और पूजा में जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा जरुर सुनते हैं। पारण वाले दिन कई प्रकार के पकवान विशेष रूप से मडुआ की रोटी, नोनी का साग, चावल आदि बनाए जाते हैं।
*कैसे करें पूजा एवं पारण विधि*
   जितिया व्रत का पूजन करने के लिए माताएं पहले से करती आ रही है। उन्हें पता है कैसे पूजा की जाती है। पंडित जी कहते हैं इन में सर्वप्रथम नहाए खाए से मड़वा की रोटी, झिंगली का पत्ता, नौनी का साग सहित कई चीजों को विशेष प्रधानता दी गई है। जितिया व्रत में मूल रूप से सेवन किया जाता है।
   जितिया व्रत से एक दिन पहले महिलाओं को सात्विक भोजन करके नहाय खाय से आरंभ करना चाहिए। उसके बाद व्रत वाले दिन सुबह जल्‍दी स्‍नान करके स्‍वच्‍छ वस्‍त्र धारण करके व्रत करने का संकल्‍प लें। पूजा के लिए जीमूतवाहन भगवान की मूर्ति की स्थापना पानी से भरे एक पात्र में करें। फिर अक्षत, फूल, फल, पीले वस्‍त्र, सरसों के तेल और बांस के पत्‍तों आदि से भगवान की पूजा करें। भगवान को लाल और पीले रंग की रुई चढ़ाएं। उसके बाद जितिया व्रत की कथा सुनें और आरती करके पूजा संपन्‍न करें। इस व्रत में गोबर से मादा चील और मादा सियार की मूर्ति बनाकर उनकी भी पूजा की जाती है।
डॉक्टर बी. के. मल्लिक, वरिष्ठ लेखक 9810075792

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