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मानसिक स्वास्थ्य सार्वभौमिक मानव अधिकार है एक विमर्श सीताराम जाट, वरिष्ठ व अनुभवी तनाव परामर्शदाता

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मनुष्य के पास आज हजारों सुख सुविधा होने के बावजूद भी मानव आज दुःखी और उदास नजर आता है तो जरूर वह किसी न किसी मानसिक अशांति से पीड़ित है । हर मनुष्य के चेहरे पर एक विशेष प्रकार का शोक और द्वंद झलकता है। सब कुछ होने के बावजूद अगर मन की शांति और जीवन की प्रसन्नता गायब है तो इसका मुख्य कारण है तनाव जो कि मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है।
आज हम हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी मानसिक स्वास्थ्य दिवस 2023 मनाने जा रहे है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मानसिक स्वास्थ्य दिवस की शुरुआत सन 1992 ईस्वी में विश्व मानसिक स्वास्थ्य संघ की पहल पर की गई जो कि वास्तव में एक ऐतिहासिक पहल थी। कालांतर में हम प्रतिवर्ष विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मना रहे है। इस वर्ष की थीम है मानसिक स्वास्थ्य एक सार्वभौमिक मानव अधिकार हैं। मानव जीवन में हर कोई व्यक्ति अधिकार की तो मांग करता है, परंतु कर्तव्य से दुनिया का हर व्यक्ति विमुख हो रहा है, आज मानव आधुनिकता की होड़ में पारस्परिक हमदर्दी की भावना का परित्याग करके दूसरों की कब्र पर अपनी कामयाबी के झण्डे गाढ़ रहा है। इस प्रकार की दूषित मानसिकता ने मानसिक स्वास्थ्य के पर्यावरण को गंदा किया है।
आज हर व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ रहना चाहता है, लेकिन एक दूसरे के प्रति अपने दूषित मानसिकता का परित्याग नहीं कर पा रहा है। दूषित मानसिकता का शिकार व्यक्ति अपने परिवेश के साथ- साथ स्वयं भी हो रहा है, क्योंकि दूषित मानसिकता से मानव के अर्न्तमन में कलह उत्पन्न हो रहा है जो कि व्यक्ति को ईर्ष्या, चिंता, कुंठा / भग्नासा जैसे मनोविकार की ओर धकेल रहा है। जिससे व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो जाता है, इंसान का जब मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो जाता है तो उसका सीधा असर शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, चाहे आपका पेट दर्द हो, सिर दर्द हो इसके मूल में कही न कहीं आपके अंतर्मन में पलने वाला तनाव ही है। हम अक्षर फिजिशियन के पास जाते हैं, फिजिशियन हमारे रोग के लक्षणों के आधार पर दवा दे देता है। वह दवाएं कुछ समय तक तो हमें राहत अवश्य देती है, लेकिन तनाव फिर निमित्त प्रकार हमारे मनोः मस्तिष्क पर हावी हो जाता है। फिजिशियन के द्वारा दी गई दवाई ठीक उसी प्रकार की होती हैं जिस प्रकार से सुलगती हुई आग में हम घी डालते हैं, तो कुछ समय के लिए तो आगे की लपटे कम हो जाती है, लेकिन चौगुनी रफ्तार से पुनः आग की लपटे सुलग उठती हैं। अक्सर हम जान ही नहीं पाते हैं कि हमें पहले किसका ईलाज करना चाहिए। कहावतें तो आपने भी सुनी होगी कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है, लेकिन आज समय की मांग बोल रही हैं कि तन से पहले मन का इलाज परम आवश्यक है इस विषय पर हमें आत्म मंथन करने की आवश्यकता है ।
आज दुनिया की आधी आबादी तनाव से ग्रसित हैं। बाहर से स्वस्थ दिखाई देने वाला मानव अंदर से अस्वस्थ महसूस कर रहा है अर्थात बाहर से अखंड दिखाई देने वाला मानव अंदर से खण्ड-खण्ड है। यह तनाव ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से गेहूं के दाने में जब गुन लग जाता है तो बाहर से अखंड दिखाई देने वाला गेहूं का दाना भीतर से खण्ड-खण्ड हो जाता है।
अखंड दिखाई देने वाले मानव के मानसिक स्वास्थ्य के निम्न पहलू है जो कि उसे प्रभावित करते हुए खंड-खंड कर देते हैं, जिस पर विश्व के मनोवैज्ञानिकों को विचार किया जाने की आवश्यकता है। परिवार समाज की पहली इकाई होती है। व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर सबसे अधिक प्रभाव परिवार के वातावरण का होता है। एक स्वस्थ पारिवारिक पर्यावरण में एक स्वस्थ परिवार निवास करता है। जिस परिवार का वातावरण शुद्ध होगा उस परिवार के सभी लोगों मानसिक रूप से स्वस्थ रहेंगे।
लेकिन बड़ी विडम्बना की बात है कि आज के इस आधुनिक दौर में भारतीय समाज के परिवार में पारस्परिक वैचारिक सामंजस्य का अभाव पाया जा रहा है। परिवार में पारस्परिक वैचारिक सामंजस्य नहीं होने के कारण एक भारतीय परिवार के पारस्परिक सम्बन्ध ठीक वैसे ही हो जाते है, जैसे सूखे तालाब की मिट्टी में पड़ी दरारें परिवार का हर व्यक्ति अगर अपने आपको ज्यादा बुद्धिमान मानेगा और स्वयं को बड़ा समझकर अपने अहंकार की पुष्टि करने का प्रयास करेगा तो आप यह मानकर चले कि वह घर घर नही अपितु सूखा मरूस्थल होगा जिसमें हर सदस्य एक दूजे के प्रति शक, आक्रोश और विपरीत भावना से भरा होगा के साथ रहेंगे पर दूर-दूर एक घर में रहेंगे पर एक दूजे से कटकर तनावग्रस्त होगें। अपने क्षुद्र अहंकार के चलते एक दूसरे की भावनाओं का आदर नहीं करते है, जिसके चलते आज सास-बहू, पिता-पुत्र, माता-पुत्र, भाई-बहन एक दूसरे से कटे हुए है, जिस पर भारतीय समाज को आत्म चिंतन करने की जरूरत है।
यह तनाव इस हद तक बढ़ गया कि लोग दूषित मानसिकता का शिकार ठोकर आज वरिष्ठ नागरिकों को वृद्ध आश्रम भेज रहे हैं। बड़ी सोचनीय चिन्तनीय बात है की मां-बाप चार बेटों का सहर्ष लालन पालन करते हुए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से दक्ष करके उन्हें कामयाब बनाते हैं। पाठकों अब आप सोचिए कि आज चार बेटों द्वारा निर्मित बड़े आलीशान बंग्लों में दो मां-बाप के लिए छोटे से आश्रय के लिए जगह नहीं बन पा रही है। यदि जगह बन रही है तो केवल वृद्ध आश्रम में यह दूषित मानसिकता की पराकाष्ठा है।
पाठकों! सभी पहलुओं का तो मैं इस आलेख में वर्णन नहीं कर पाउंगा परन्तु जरूरी मुद्दे है जिन पर समाज, विभिन्न राष्ट्रीय/अंतर राष्ट्रीय सामजिक संगठन एवं सरकार को आत्म-चिंतन करने की आवश्यकता है।
शिक्षा का व्यवसायीकरण होने के कारण आज मध्यम व निम्न वर्ग भी मानसिक स्वास्थ्य का शिकार हो रहे है। यही नहीं हमारे देश के भविष्य विद्यार्थी जब उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की होड़ से वंचित रह जाते हैं या प्रवेश होने के बाद मोटी भरकम रकम का भुगतान करने से असमर्थ रह जाते हैं या प्रवेश के बाद कोचिंग संस्थानों के टेस्ट में असफल हो जाते है। जिससे विद्यार्थी मानसिक चिंता, कुंठा व भग्नासा का शिकार होकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं। शिक्षा समाज को सभ्य बनाती है लेकिन शिक्षा का व्यवसायीकरण होने से यह आम आदमी की पहुँच से बाहर होती हुई सामाजिक अपेक्षा उपेक्षा के मनोविज्ञान का शिकार करती हुई दुषित मानसिकता को जन्म दे रही है। जिस पर देश के शिक्षाविदों एवं मनोवैज्ञानिकों को चिंतन किए जाने की आवश्यकता है।
   मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता, सजगता एवं सुधारात्मक कदम उठाने का उत्तरदायित्व केवल सरकार का नहीं बल्कि समाज देश एवं विश्व के हर एक व्यक्ति का बनता है। यदि इसी प्रकार से मानसिक स्वास्थ्य के मामले बढ़ते रहे तो मानव जीवन दुष्कर हो जाएगा तथा मानव स्वयं अपने विनाश की और अग्रसर होकर जीवन को निरर्थक समझते हुए आत्महत्या का कदम उठाएगा।
सीताराम जाट, वरिष्ठ व अनुभवी तनाव परामर्शदाता।

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