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हदीस और हमास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ?” आनंद शास्त्री

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समादरणीय आत्म बंधुओं ! मध्य पूर्व एशिया अर्थात अलअक्शा मस्जिद- एक”महज जिद्द” है हमास अर्थात हैवानों की ! वैसे भी फलस्तीन के आंशिक शाषित क्षेत्र हों अथवा सीरिया,ईरान पाकिस्तान,बहरीन,कुवैत,कतर,इराक जैसे देशों की महज जिदें हों ! आंशिक रूप से इनमें भले ही नमाज अता फरमाई जाती हो किन्तु यहाँ होती तकरीरें बाबा आदम के जमाने से जिस जेहाद का फरमान निकालतीं है-“अल्लाह हो अकबर” वो ये भूल जाते हैं कि-
हर खुदा में इंसान होता है और हर इंसान में खुदा होता है ।
मुसव्वीर तो दोनों में जाकर कुछ खोजने की ज़ुर्रत करता है ।।”
और ऐसी ही जुर्रत करना आज मेरी जुरूरत बन चुकी जब मैंने आसमानी किताब ऐ जिल्द इक्कीस के अट्ठानवें सूरा में देखा कि-
“निश्चय ही तुम और वह कुछ जिनको तुम अल्लाह के अलावा पूजते हो-सब जहन्नुम के ईंधन हो।तुम उसके घाट उतारे जाओगे।”और ऐसा ही उस हमास के हवशी लोगों ने कर दिखाया जैसा उनको पिछले लगभग पन्द्रह सौ वर्षों से मदरसों में पढाया गया।
मित्रों ! आज यह निबंध लिखते हुवे ये कहने को मजबूर हूँ कि-“सन् तेईस में जो चमकी वो लेखनी पुरानी है ! हम बूढे हिन्दू लोगों में आयी नयी जवानी है।।” ये मैं नहीं कहता सभी,ईसाई और मुसलमां फरमाते हैं कि -“अलअक्शा एक ऐसी उनकी महज जिद्द” है ! आदम और हव्वा की है या फिर आदम और इव की है ! अर्थात प्रकारान्तर से वे ये कहते हैं कि ईसाई और मुसलमां का डीएनए एक है ! लेकिन यकीं नहीं होता कि इन सबका लहू सुर्ख है या सुर्खियों में रहने के लिये ये अक्सर शुतुरमुर्ग या फिर मगरमच्छ बन जाते हैं ।
मित्रों ! औरत की हत्या कर ट्रक में उसकी नंगी लाश के साथ मखलूक के सामने जबरजीना करना जिहाद है।
पचासी साल की बेकसूर औरत को कैद करना जिहाद है।
चार-पांच साल के मासूम लडकों का गला रेतना जेहाद है।
शहरी और गांव के निहत्थे लोगों को कैद करना जिहाद है।
शहर और गांव के कुत्तों और बिल्लियों पर गोलियां बरसाना जिहाद है।
यहूदी,ईसाई,यजीदी और हिन्दू लडकियों-औरतों को भीड के सामने बेपर्दा करना जिहाद है।
फिर उनके साथ जबरजीना करने के बाद अल्लाहु अकबर कहते-कहते उनको बेदर्दी से हलाल करना जिहाद है।
यदि ये सब जिहाद है तो लानत है ऐसे उस हमास पर जिसपर आज कांग्रेस वर्किंग कमेटी को नाज है।
मित्रों  ! मैं जानता हूँ कि इसके पहले गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर ईरानी और हम भारतीयों के डीएनए के एक होने की बात हमारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से आदरणीय मोहन भागवत जी ने कही थी ! अभी अधिक दिन नहीं हुए उनके उस वक्तव्य को ! मैंने तत्काल ही उनके विचारों का गंभीरता पूर्वक खण्डन भी किया था ! मैं पुनश्च कहूँगा कि-“यवन,म्लेक्ष, और आंग्लों का डीएनए एक है ! किन्तु हम हिन्दुओं का डीएनए कहीं भी किसी भी परिस्थिति में उनसे नहीं मिल सकता। वे तो खुलेआम नौवीं आयत एक सौ तेइसवां सूरा में नफरत का पैगाम देते हैं कि-“हे ईमान लाने वालों उन काफिरों से लडो जो तुम्हारे आसपास हैं और ये चाहिये कि वे तुमसे सख्ती पाएं। और ऐसी वही सख्ती उन लोगों ने जो भारत विभाजन के वक्त दिखायी थी आज इजरायल में भी दिखा दी।
मित्रों-“हजारों बरस पत्थर सागर में रहने पर भी भीतर से सूखा ही रहता है” लाशों के साथ बलात्कार करने वालों का डीएनए हमसे मिलेगा ? मैं समझता हूँ कि हदीस और हमास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ! जिस अयातुल्ला खुमैनी को सुन्नी मुसलमां अपना खुदायी बंदा मानते हैं ! तुर्किए को जितनी इज्जत देते हैं ! जिसके नाम पर खुलेआम गांधी ने खिलाफत के आंदोलन का समर्थन किया था ! आप अभी भी देखना- मक्का से लेकर मदीने तक ही उनकी निगाह जाती है ! ये निश्चित है कि साल दो साल महीने दो महीने बाद ही सही इन दरिन्दों के टीड्डी दल पंजाब,राजस्थान,पश्चिम बंगाल,सिल्चर में भी अल्लाहू अकबर कहते हुवे घुसेंगे ! जरूर घुसेंगे ! तब क्या होगा ? यहाँ तो मैं बस इतना ही कह सकता हूँ कि-
“इनके दामन पे कोई छींट ना खंजर पे निशां है,
तुम कत्ल कर रहे की करामात कर रहे।
तुम्हारी कत्ल करने की अदा हसीं उनको दिखती है,
काफिर का कातिल ही हसीं है तो वारदात हसीं है।।”
पांचवीं जिल्द के एक्यानवें सूरा में आसमानी फरमान है कि-“ऐ ईमान वालो तुम यहूदियों,काफिरों (हिन्दू) और ईसाइयों को अपना दोस्त मत बनाओ गर कोई उनको अपना दोस्त बनायेगा तो उनमें ही गीना जायेगा। वे तो नवीं आयत के तेइसवें सूरा में यहाँ तक फरमाते हैं कि ऐ ईमान वालों, अपने बाप और भाईयों को अपना दोस्त मत बनाओ अगर वे ईमान के मुकाबले कुफ्र में यकीं करते हों ! अर्थात हमारे अल्पसंख्यक भाईयों को मदरसों में यही शिक्षा दी जाती है कि वे भारत के प्रति वफादारी की अपेक्षा मुस्लिम जगत के प्रति अधिक वफादार रहें। और ये तो निश्चित है कि हम हिन्दूओं को -“काफिर” के तमगे से इसलिए नवाजा गया क्यों कि अरब के मुशकरीन उन जेहानी हुकूको को नहीं मानते जो खुदा के जैसी खुदाई रखते हैं ! उनको शिर्क कहते हैं! मुशरिकीन मुहम्मद पैगम्बर से पहले जहिलिय्याह मतलब वे जाहिल थे जो उनके पहले हुवे ! मित्रों आप ध्यान देना उन्हें ही ये आसमानी किताब- “उम्मी” अर्थात अनपढ़,गंवार कहती है जो उनके पूर्वज हैं।… आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″

पितृ-सूक्त छठां मंत्र,द्वादश अंक-
मित्रों ! इस ऋचा में ऋषि कहते हैं कि-
“आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केनचिन्नोयद्व आग पुरुषताकराम।।”
अर्थात- हे पितरों ! बाँये घुटने मोड़कर वेदी के नीचे दक्षिण दिशा में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञकी प्रशंसा करें ! मानवीय स्वभावानुसार हमने आपका कभी कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें हमें दण्ड न दें।
आप जब भी अपनी पत्नी के साथ किसी यज्ञानुष्ठान में बैठते हैं  तो उनके दायें अंग में बैठते हैं !और वे आपके बांये अंग की शोभा बनती हैं ! और वैसे भी स्त्री-उर्जा का प्रभाव-“वाम”अर्थात नकारात्मक है। और पुरुष उर्जा का प्रवाह याम अर्थात सकारात्मकीय कहा और देखा भी गया है ! अब आप कल्पना करें कि जब वे अपने बाँयें पाँव को मोड़ कर बैठेंगी और मैं अपने दाहिने पाँव को मोड़ कर बैठूंगा ! तो मेरी-मुद्रा”वीरासन तथा उनकी मुद्रा-“रूद्धासन” की होगी ! और मेरे बाँयें घुटने से सटा हुवा उनका दायाँ घुटना अनायास ही नकारात्मक तथा सकारात्मक उर्जाओं के संयोग का साक्षी उनके तथा मेरे दोनों के लिये ही होगा। और बिल्कुल ऐसी ही प्रक्रिया साष्टांग दण्डवत तथा संसर्ग जन्य परिस्थितियों में भी होती है ! इसका भेद प्रथम तो यही है और द्वितीय एक भेद और भी है-
मित्रों ! सामवेद में कहते हैं कि-“व्यञ्जनं चार्धमात्रकं” और कुछ ऐसा ही सप्तशती कहती है कि-“त्वमेव संध्या सावित्री” अतः यह वैज्ञानिकीय सत्य है कि-“संध्या पितृप्रसूः” अर्थात संध्या से ही पितरों का जन्म भी हुवा है।
और यह भी आप ध्यान दें कि वेदमाता गायत्री का द्वितीय-“भुवः लोक” ही पितृ-लोक कहा गया है। जैसे कि आप यह भी देखें ऐसा आग्रह करूँगा-
“पुरू व्यवस्यन् पुरूधास्यति स्वतस्ततः स उक्तः पुरूषश्च पितरः!”
जो सम्पूर्ण पाप अर्थात मन और प्राणों के भोग्य-भावों को जला देते है,संतृप्त भी कर देते हैं,वे पितर हैं ! और इसमें एक भेद और भी है,आप पितरों को अपनी-“पत्नी भी कह सकते हैं।” थोड़ी कठिन बात है यह ! मैं कहना यह चाहता हूँ कि इसे समझने हेतु आपको लिंगात्मकीय भेद से ऊपर उठना होगा। जो आपकी प्रशंसा करते हैं ! वे कौन हैं ? यदि वे आपके गुण-अवगुणों को जानकर सार निकालकर प्रशंसा करते हैं अथवा निन्दा करते हैं !उससे ही आपकी-“पत्” बनती अथवा नष्ट होती है।
एक विचित्र प्रश्न मैं आप अपने पुरूष मित्रों से पूछना चाहूँगा- क्या आपने कभी ह्यदय से अपनी पत्नी से अपने किसी अपराध हेतु छमा माँगी ? आपका उत्तर यदि हाँ में होता है ! तो मैं आपसे पुनर्विचार करने का आग्रह करूँगा ! इसमें आपका अहंकार नहीं वरन् पुरूषत्व बाधक होता है !और होना चाहिये भी ! किन्तु स्त्रीत्व की एक नैसर्गिक विशेषता होती है- सिघ्रातिसिघ्र छमा माँग लेने की ! और यदि उसमें पुरूषत्व हुवा तो फिर वो और कुछ भी हो किन्तु कम से कम भीतर से-“स्त्री” कदापि हो ही नहीं सकती।

मित्रों ! पाणिनिय सूत्र•५•२•१०१•में कहते हैं कि- “प्रज्ञाश्रद्धार्चाभ्योणः” प्रज्ञा और श्रद्धा ही श्राद्ध है ! जिनमें प्रज्ञा होगी वे ही पितर हो सकते हैं ! और जिनमें श्रद्धा होगी वे ही श्राद्ध भी कर सकते हैं ! जैसे कि श्राद्धकर्ता कहते हैं कि-
“आब्रम्हस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः।
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः।।”
विश्वेदेव तथा अग्निष्वात्तादि दिव्य पितृ गण आपके संकल्पों में कथित गोत्राधार पर आपकी हव्य-कव्य सामग्री की सुगंध तथा धूम आपके पितरों तक पहुँचाते हैं ! यदि आपके पितर देव योनि में हैं तो अमृत के रूप में,पशु योनि में हैं तो तृण के रूप में,नाग योनि में-वायु के रूप में ,यक्ष योनि में द्रव के रूप में,पितृ लोक में स्वधा तथा अन्यान्य योनियों में भी तदनुसारेण उन तक पहुँचाने का कार्य भी इन्ही पवित्र पितरों का है।
और यह कैसे ! तो उसे मैं बाँयें तथा दाहिने घुटने के द्वारा बैठने की मुद्रा द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास कर चुका हूँ ! आप स्मरण रखें कि ऋचा में आगे यह भी कहते हैं कि नीचे बैठकर तथा यज्ञ-वेदी की दक्षिण दिशामें ! अब मैं इसे भी आपके साथ समझने का प्रयास करता हूँ- मैं जानता और समझता हूँ कि मेरा यह अंक अनेक भ्रान्तियों को उत्पन्न कर सकता है ! कई यक्ष प्रश्न भी रखता है ! और उन शंकाओं का निवारण देवयान तथा पितृयान अर्थात उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों को समझे बिना संभव नहीं होगा। अतः अगले अंक में उसपर भी प्रकाश डालता हूँ!! पुनश्च इसी ऋचा के द्वितीय अंक को प्रस्तुत करता हूँ, ………. आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″

पितृ-सूक्त छठां मंत्र,द्वितीय भाग-तेरहवां अंक-
मित्रों ! इस ऋचा में ऋषि कहते हैं कि-
“आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केनचिन्नोयद्व आग पुरुषताकराम।।”
अर्थात- हे पितरों ! बाँये घुटने मोड़कर वेदी के नीचे दक्षिण दिशा में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञकी प्रशंसा करें ! मानवीय स्वभावानुसार हमने आपका कभी कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें हमें दण्ड न दें।
मित्रों ! अब मैं-“देवयान तथा पितृयान” पर चर्चा करता हूँ इस हेतु गीताजी आठवें अध्याय के चौबीसवें मंत्र को प्रथम उद्धरित करना चाहूंगा-
“अग्निज्योतिर्रहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रम्ह ब्रम्हविदो जनाः।।”
ये जो आप जैसे जो परमार्थ के ज्ञानीजन होते हैं वे अर्चि-मार्ग अर्थात देवयान-उत्तरायण मार्ग से अर्थात-“इन्द्रियों के उर्ध्वमुखी” द्वारों से प्रयाण करते हैं। अभी इसमें भी कुछ भेद है-अग्नि, अहर्लोक,शुक्लउत्तरायण, सम्वतसर,वायु,सूर्य, चन्द्र,विद्युत, वरूण,ईन्द्र तथा ब्रम्हलोकों में जाते हैं ! आप उन्हे क्रमशः उच्चातिउच्च देवता कह सकते हैं।
एक बात मैं प्रथम ही स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ कि आप स्थूलरूप से उत्तरायणका अर्थ यदि-“मकर संक्रान्ति” से लेते हैं तो उसे भी समझना होगा ! “मकर”को आप मीन-मार्गी कहें तो कहीं ज्यादा उचित होगा।
यदि आप ऊर्ध्वगामी हैं तो ! क्रमशः एक-एक लोकों के अधिपति देवता आपको अपने से ऊपर के लोकों में पहुँचा कर लौट आते हैं ! अर्थात उनकी वहीं तक-“गति” है! अर्थात वे ही क्रमशः पितर से श्रेष्ठ यक्षादि कहलाते हुवे क्रमशः “देवताओं” की श्रेणी में आते चले जाते हैं ! आप उपरोक्त बारह लोकों को ही द्वादश आदित्य भी कह सकते हैं।
किंतु इसी के साथ मैं-“धूम मार्ग” पर भी आपसे कहना चाहूँगा कि,गीताजी आठवें अध्याय के पच्चीसवें मंत्र में कहते हैं कि-
“धूमो रात्रिस्तथाकृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।”
अर्थात दक्षिण मार्ग से गये हुवे,अधो अर्थात निचले मार्गों से गये हुवे प्राणी चन्द्रमा अर्थात मनोमय कोशों के अधिपति पितर लोकों से लौटकर पुनश्च मानव योनि में ! आपके मेरे घर पुनश्च आ जाते हैं।
और इसके आगे भी पुनश्च मैं आपको याज्ञ•स्मृ•३•१९७• का यह मंत्र भी अवस्य दिखाना चाहूँगा-
“एतद् यो न विजानाति मार्गद्वितयमात्मवान्।
दन्दशूकः पतङ्गो वा भवेत्कीटोऽथवा कृमिः।।”
और जो इन अर्चि तथा धूम मार्गों को नहीं जानते ! अर्थात जिनके जीवन में आध्यात्मिकता का लेश मात्र भी बोध नहीं है !वे अंततः सर्प,कीट,पतङ्गे और कृमियों की योनियों में भ्रमण करते रहते हैं ! अर्थात ये आपका शरीर ही एक-“यज्ञभूमि” है ! और आपकी साधना,भक्ति ही यज्ञवेदी है ! और इस वेदी के नीचे अर्थात शरीर के भीतर बैठकर ! विचार करते हुवे ! आप अपने आध्यात्मिक संसाधनो के द्वारा अपने लिये “धूम अथवा “अर्चि”मार्गों का चयन कर सकते हैं।
अभी मैं अर्चि मार्ग पर आपको बृह•उप•६•२•१५• के इस अलौकिक वैज्ञानिकीय मंत्र को दिखलाना चाहूँगा-
“ते य एवमेतदविदुर्ये…… वसन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः।।”
पञ्च विद्या अर्थात पञ्चाग्नियों के ज्ञाता विद्यावान होते हैं ! वे सत्य अर्थात हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं। वे ज्योति अभिमानी देवताओंको प्राप्त होते हैं,अर्थात उनमें ज्ञान रूपी प्रकाश हो जाता है ! उन्हें भ्रम रूपी अज्ञानमयी रात्रि प्रताड़ित नहीं करती। अतः इस अपनी सतत उपासना तथा स्वाध्याय के कारण- “तेऽर्चिरभिसम्भवत्यर्चिषोऽहरह्य” उन्हें दिनके अभिमानी देवता- “शुक्लपक्ष”के अभिमानी देवता के पास ले जाते हैं।
प्रिय मित्रों ! मैं आपको एक बात कहूँ- अंतः शुक्लपक्ष की मैं बात करना चाहता हूँ ! यदि एकबार आपके भीतर के चक्र जाग्रत होने लगें ! तो धीरे-धीरे ये जो आँखों को बंद करने पर अंधेरा छा जाता है ! ये बादल हैं ! ये छँट जायेंगे। मूलाधार के स्वामी-“गणेश” अर्थात आपके सद्गुणों के ईश आपको शुक्लपक्ष के अभिमानी देवता अर्थात-“मूलाधार उर्जा “के ऊपर के चक्राभिमिनी देवता को सौंप कर लौट जायेंगे-
“आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद् यान् षड्मासानुदङ्ङ्गादित्य।।”
तथा पुनश्च इसी प्रकार ऊपर के छे चक्रोंको क्रमानुसार उनकी उर्जा जागृत होती हुयी ऊर्ध्वगामी होती जायेगी ! और नीचे की उर्जा नीचे की ओर वापस भी लौटती जायेगी ! अर्थात इसी प्रकार की प्रक्रियाओं के कारण यह मैं प्रथम ही बता चूँका हूँ कि “उत्तरायणी” अर्थात देवताओं को इसी कारण-“दाहिना घुटना” मोड़ कर बैठने की कल्पना ऋषियों ने की है।
और इसकी बिलकुल विपरीत धर्मी आपकी नकारात्मक लौटती उर्जायें जिन्हें-“पितृयान” कहते हुवे बृह•उप•६•२• १६• में याज्ञवल्क्य जी लिखते हैं कि-
“अथ ते यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयति ते धूममभिसम्भवन्ति।”
जिन्होंने नाना प्रकारके सकाम कर्मों का आश्रय लिया ! जो यज्ञ,तप,दान-शीलादि का किसी इच्छा से पालन करते हैं !
वे धूमाभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं ! क्योंकि भ्रमित तो वे हैं ही ! अंधकार अर्थात दक्षिण मार्गी तो वे हैं ही ! और अब दक्षिणायन मार्ग को भी समझे बिना संभव नहीं होगा ! अतः अगले अंक में उसपर भी प्रकाश डालता हूँ ! ……. आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″..

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