देश के पूर्वोत्तर राज्य असम के बंगलाभाषी कछार जिले के मुख्यालय सिलचर शहर में आज से पचास साल पहले सन 1961 ई. की 19 मई को संग्राम परिषद् के तत्वाधान में बांग्ला को राज्य की द्वितीय राज्यभाषा की माँग के समर्थन में आन्दोलन आयोजित किया गया था। इसे सफल बनाने के लिए हड़ताल का आह्वान किया गया था । हड़ताल मुकम्मल रही। आन्दोलनकारियों ने रेलवे ट्रैक पर धरना दिया था। पुलिस ने लाठी चार्ज किया और आँसू गैस के गोले छोड़े। वालंटियर्स घायल होते रहे, पर एक ने भी प्रतिकार नहीं किया। अन्य वालंटियर्स घायलों को ढोकर निकट में बनाए गए फर्स्ट-एड कैम्प में पहुँचा देते और घायलों की जगहों पर नए लड़के-लड़कियाँ बैठ जाते। यह सिलसिला एक घंटे से अधिक समय तक चलता रहा । आखिर शायद निरुपाय होकर पुलिस ने गोली चलाई जिससे एक लड़की सहित 11 छात्र मारे गए थे। उन दिनो सिविल सोसायटी का उदय नहीं हुआ था । आन्दोलनकारी मूलतः स्कूल कॉलेज के छात्र ही हुआ करते थे। मैं वहाँ के कॉलेज में एक व्याख्याता था। हमारे मकानमालिक ने घटनास्थल से लौटकर इस दुखद घटना की जानकारी दी। जानकारी के साथ एक टिप्पणी भी उन्होंने की थी कि बिहारी पुलिस बंगालियों पर कितनी निर्मम हो सकती है। मुझे उनकी इस टिप्पणी से साम्प्रदायिक तनाव की आशंका हो गई थी। मैंने अपनी आशंका संग्राम परिषद् के दफ्तर में की तो उन लोगों ने तुरत अपने कार्यकर्ताओं को आगाह कर दिया कि सरकारी दमन चक्र को कोई साम्प्रदायिक रूप नहीं देने दिया जाए। सचमुच फिर कोई बाधाकारी अफवाह बाजी नहीं सुनाई दी।
गोली चलने और छात्रों के मारे जाने की खबर आग की तरह शहर में फैल गई थी। प्रशासन ने आनन- फानन में कर्फ्यू की घोषणा कर दी। पर कर्फ्यू का कोई असर दिख नहीं रहा था। सड़कें लोगों से भरी हुई थीं। पर कोई शोर नहीं, इसी प्रकार की चुप्पी को ‘बहरा करने वाली चुप्पी’ कहा जाता होगा। सभी लोगों का रूख अस्पताल की ओर था, जहाँ लाशें ले जाई गई थीं। एक रिक्शे से घोषणा हो रही थी कि आज किसीके घर चुल्हा नहीं जलेगा। मैं भी भीड़ में शामिल हो गया था। हमारे घर भी रात को चुल्हा नहीं जला था। यद्यपि हम आन्दोलनकारियों में शामिल नहीं थे।
दूसरे दिन। रिक्शे से संग्राम परिषद की ओर से घोषणा हुई। शहीदों की लाशों के साथ मौन जुलूस निकलेगा। सभी लोग नंगे पाँव चलेंगे , बाँहों पर काले फीते लगे रहेंगे। आज दिन को चूल्हे नहीं जलेंगे। हम शवयात्रा में शामिल होने के लिए घर से निकलने लगे तो देखा एक मध्यवयसी महिला प्राथमिक कक्षा की किताब पर नजर गड़ाए हुई है, उससे पूछा कि क्या देख रही हैं। तो उसने कहा, ”बांग्ला की किताब है। फिर तो देखने को मिलेगी नहीं।“
रास्ते में एक महिला अंजलि में फूल लेकर जा रही थी। उससे रास्ते में खेलते हुए एक बालक ने पूछा, “पीसीमाँ, कहाँ जा रही हो? महिला ने बिना मुड़े जवाब दिया—दिल्ली।” सिहरन दौड़ गई थी।
फिर जुलूस निकला। काँधों पर एक एक कर ग्यारह किशोर-किशोरी के जनाजे, आगे आगे तख्तियों पर एक एक नाम। पीछे पीछे नंगे पाँव चुपचाप चल रहे हम लोग। भयानक शान्ति थी।
रोज सुबह तरूण लड़के लकड़ियों की प्रभात फेरी निकलती। इसमें नारे नहीं लगते थे, समवेत स्वर में गीत गाए जाते। गीत क्रान्ति के ही नहीं, प्रेम के भी होते थे। आदमी के आदमी से लगाव के। एक गीत की एक पंक्ति अभी भी याद है, “हमारे ही रक्त से सूर्य लाल हुआ है।“