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समूचे विश्व में भारत एक इकलौता देश है, जो तीज-त्यौहारों का देश माना जाता है। यही एक अपना एक देश है जहां एक सप्ताह या पखवारे के अन्दर कोई न कोई पर्व, तीज-त्यौहार अलग-अलग जगहों पर जरूर मनाई जाती है। इसीलिए लिए विश्व में इसे त्योहारों का देश कहा जाता है। अगर अपने देश में त्योहारों कि बात हो और दिपावली की चर्चा न हो तो बात अधूरी लगती है। दिपावली को हीं ,लोग दिवाली बोलते हैं। यह संस्कृत शब्द से लिया गया। यह त्योहार भारत में सबसे ज्यादा यानी कोने-कोने में मनायी जाती है। इन त्योहारों को पांच दिनों तक अलग-अलग नाम से मनाए जाने कि परंपरा है। इन पांचों दिनों का अलग-अलग नाम से भी जाना है। इन पांच दिनों का हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथो एंव महाकाव्यों में इसका उल्लेख है। जिसको हम भारतीय लोग प्राचीन काल से मनाते आ रहे हैं। पहले दिन यम दिरि अथवा यम के दीया, धनतेरस या धन त्रयोदशी अथवा धन्वंतरि जयन्ती, दूसरे दिन छोटी दिवाली या देवदेरि अथवा देवक दिया या नरक चतुर्दशी ,तीसरे दिन बड़ी दिवाली या दिपावली ,चौथे दिन गोवर्धन पूजा या गइया डांढ़ांड़ और पांचवें या अंतिम दिन भैया दूज या भाई दूज अथवा बुट-कसैली के नाम से जानते हैं। देश भर में इस समय दिपावली की धूम देखने को मिल रही है। इस खास मौके पर हर कोई इसकी तैयारी में लगा हुआ है। यह हिन्दू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है। जिसे हर साल मनायी जाती है। देश के हर कोने में इसकी रौनक देखने को मिलती है। हालांकि अपने देश भारत हीं नहीं बल्कि विदेशों में भी इस त्योहार को धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व हर साल कार्तिक माह के अमावस्या को मनाए जाते हैं। इस बार दिपावली 12नवंबर यानी रविवार को है। वहीं अपने तरह पड़ोसी देश नेपाल में भी पांच दिनों का यह त्योहार होता है। जिसे यहां “तिहाड़ “के रुप में जाना और मनाया जाता है। नेपाल में पहले दिन गाय की पूजा, दूसरे दिन कुत्ते की पूजा की जाती है। तीसरे दिन मिठाईयां बनाकर देवी-देवताओं की पूजा होती है,वहीं घर को अच्छी तरह से सजाया जाता है। वहीं चौथे दिन यमराज (यम) की पूजा होती है।वहीं पांचवे दिन भाई दूज मनाने की परंपरा है। जबकि दक्षिण के पड़ोसी देश श्रीलंका में भी इस त्योहार को काफी धूमधाम से मनाए जाने का प्रचलन है। यहां भी इस पर्व का खास महत्व है क्योंकि यह देश रामायण महाकाव्य से जुड़ा हुआ है। यहां इस खास मौके पर लोग अपने घरों में मिट्टी के हीं दीये जलाते हैं, साथ हीं एक दूसरे से मिलते हैं। वहीं विश्व का सबसे ताकतवर और शक्तिशाली देश अमेरिका में भी दिपावली मनाने की परंपरा हाल के दिनों से शुरु हुई है। यहां पहली बार 1987में दिवाली का कार्यक्रम न्यूयार्क सिटी में आयोजित किया गया था। तभी से यहां बड़ी हीं धूमधाम से दिवाली मनाए जाने का सिलसिला चल पड़ा है। इसकी शुरुआत तत्कालिन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने व्हाइट हाउस में इस परंपरा का श्रीगणेश किए हैं। इस दिवाली के अवसर पर भारतीय मूल के नागरिकों ने संस्कृत के श्लोक को अंग्रेजी में रुपांतरण कर इसका पाठ भी किए हैं। इसके अलावा थाईलैंड, प्लोरिडा, मॉरीशस, युयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, फिजी , म्यांमार और सिंगापुर में इसी तरह दिवाली मनाये जाते हैं। दिपावली अर्थात दिवाली के नाम सुनते हीं बच्चे से लेकर बड़े-बुजूर्ग, बच्चियां से लेकर बुजुर्ग महिलाएं तक इस पांच दिवसीय त्योहार के मनाने की तैयारी नवरात्र और दुर्गापूजा के समाप्त होते हीं करने लगते हैं । दीपावली यानी रौनक का महा त्योहार भी कहने में कोई गुरेज नहीं होगा। रौनक के साथ-साथ साफ-सफाई, खुशियों के साथ मुस्कुराहट, रंग -बिरंगी रौशनी और दीये ,रंगोली बनाने से लेकर घरों को सजाने-सवांरने को लेकर सजावट का त्योहार हीं नहीं बच्चों के घरौंदे बनाने से लेकर पटाखे और फूलझड़ियां छोड़ने को लेकर मुस्कुराहट का त्योहार,मिठाई और पकवान का त्योहार अगर कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
दिपावली अर्थात दीप पर्व मनाए जाने के पीछे कई तरह की बातें सामने आती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान श्री राम जब लंका से रावण का बध कर पत्नी सीतामाता और भाई लक्ष्मण के साथ अपने नगर अयोध्या वापस लौटे तो उस दिन पूरी अयोध्या नगरी दीपों से जगमगा रही थी। भगवान राम के चौदह वर्ष वनवास के बाद अयोध्या आगमन पर दिवाली मनायी गई थी। हर नगर, हर गांव ,हर घर में दीपक जलायी गई थी। दूसरी बात महाभारत काल में श्री राम की तरह पाण्डवों ने तेरह वर्ष के वनवास पूरा करने के बाद कार्तिक अमावस्या तिथि को अपने नगर हस्तिनापुर लौटे थे। हिन्दु धर्म में प्रख्यात ग्रंथ महाभारत के अनुसार कौरवों ने पाण्डवों को सतरंज में हरा दिया था जिसके कारण उन्हें तेरह वर्ष का वनवास मिला था। पाण्डवों द्वारा इस अवधि के काटने के बाद घर लौटने पर नगर वासियों ने दीपोत्सव कर उनका स्वागत किया था। जिसका भी इस दिपावली से संबंध माना जाता है। वहीं माता लक्ष्मी के पूजन के पीछे भी शास्त्रों में इस बात का वर्णन मिलता है कि जब देवता और असुर समुद्र मंथन कर रहे थे। तब चौदह रत्नों की उत्पत्ति हुई जिसमें एक माता लक्ष्मी भी हैं। मान्यता है कि इस दिन भी कार्तिक अमावस्या हीं था।इसी दिन इनका जन्म हुआ है। मां लक्ष्मी जहां धन, यश, वैभव और सुख-समृद्धि की मालकिन हैं। वहीं विघ्नहर्ता और बुद्धि के स्वामी गणेश हैं। इसलिए दिपावली के दिन लक्ष्मी और गणेश की पूजा होती है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन दोनों को पूजन करने से पूरे वर्ष सुख-समृद्धि, घन, यश की प्राप्ति होती है। दिपावली वैसे 12नवंबर को होगा लेकिन इसकी शुरुआत 10नवंबर यानी शुक्रवार से हीं माना जायेगा। —-10नवंबर (धनतेरस)दिपावली के पांच दिनों में पहला दिन धनतेरस के नाम से जाना जाता है इसे धनत्रोदशी भी कहा जाता है।इसी दिन भगवान धन्वन्तरि का जन्म हुआ है। समुद्र मंथन में मां लक्ष्मी के साथ चौदह रत्नों में इनकी की भी उत्पत्ति हुई है। ये आयुर्वेद के जनक हैं इस दिन आयुर्वेद के जानकार इनकी पूजा अर्चना करते हैं। वहीं धन के देवता कुबेर की पूजा आज के दिन होता है।धनतेरस पर धन और समृद्धि के प्रतीक लक्ष्मी के स्वागत हेतु घर की साफ-सफाई करते हैं। साथ हीं घर में नई झाड़ू खरीदकर लाते हैं। इस दिन लोग सोना, चांदी, बर्तन के साथ-साथ अब वाहन और इलेक्ट्रानिक सामान भी खरीदने लगे हैं। इन सामानों की बिक्री कई करोड़ो में होती हीं है। अकेले झाड़ू का कारोबार करोड़ो में होता है। इस संबंध में झाड़ू कारोबारी दानिश इकबाल के अनुसार जितना झाड़ू छह महीने में नहीं बिकता उतना एक दिन में ये बेच डालते हैं।
—11नवम्बर (छोटी दिपावली/नरक चतुर्दशी)दूसरा दिन छोटी दिपावली या देवदेरि अथवा देवके दीया नाम से प्रचलित है। इस दिन को नरक चतुर्दशी के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार नरकासुर नामक एक राक्षस हुआ करता था ,जो तीनों लोको में आतंक मचा रखा था। भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभामा की मदद से आज हीं के दिन उसका बध किया था। इसी खुशी में देवताओं और ऋषियों द्वारा दीये जलाकर भगवान का स्वागत किया गया। इसलिए इसका नाम नरक चतुर्दशी पड़ा। इस दिन बिहार के सभी देवालयों में दीप प्रज्वलित करते हैं। घर सहित अन्य जगहों पर भी इस दिन दीये जलाते हैं साथ हीं प्रसाद चढ़ाते हैं। जहां प्रतिदिन पूजा-पाठ नहीं होते हैं या जो स्थान पर लोग यदा-कदा जाते हैं वहां भी इस दिन लोग पूजन-अर्चना के साथ दीपक जलाते हैं। कुलदेवी से लेकर गौरैया, डिहवार तक दीप प्रज्वलित करते हैं। इसी लिए बिहार में लोग इसे देवके दीया के नाम दिए हैं।
—12नवम्बर (दिपावली अर्थात दिवाली)पांच दिनों का दिपावली का त्योहार तीसरा दिन बेहद हीं महत्वपूर्ण है । पूरे माह का सबसे काली रात अमावस्या को हीं होती है। इस दिन लोग सुबह-सुबह मिट्टी के अगर मकान या दुकान अथवा रहने का आशियाना तो गाय के गोबर से लेपन करते हैं। अगर पक्के मकान वगैरह हैं तो उसे पानी से धोते हैं। साथ हीं घर, आंगन या दरवाजे पर रंगोली बनाते है ।इन सभी जगहों को सजाया सवांरा जाता है। रंग बिरंगी पत्ताकों के साथ-साथ रौशनी, कंदील, दीये और मोमबत्ती शाम को जलाकर दीपोत्सव मनाते हैं। वहीं बच्चे व नौजवान पटाखे और फूलझड़िया छोड़ते हैं। आज के दिन भी सभी देवालयों में दीये जलाकर दीपोत्सव लोग मनाते हैं। वहीं रात्रि में सौभाग्य, धन ,एश्वर्य और वैभव की देवी लक्ष्मी के साथ विध्न हर्ता गणेश को आमंत्रित करने के लिए लोग अपने घरों, दुकानों, दफ्तरोंऔर अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठान में इकट्ठा होकर पूजन-अर्चना पूरी विधि विधान से करते हैं। वहीं रात्रि जागरण का भी इस दिन विधान है। इस दिन लोग जहां मिठाई सहित अन्य उपहार भी एक दूसरे को देते हैं। वहीं गलत कार्य के श्रेणी में आने वाले द्रुत क्रीड़ा (जुुआ)भी खेलते हैं। महिलाएं जहां इस अवसर पर तरह -तरह कि पकवान बनाती हैं ।वहीं बच्चियों द्वारा घरौंदा में गुड़े-गुड़िया से सजाकर सात तरह के मोटे अनाज से बने भूंजे और गुड की मिठाई से घर भरती है।
इस तरह अन्य सामानों की तरह मोटे अनाज से बने भूंजे का साल में पहली बार इतना बड़ा कारोबार होता है। “बिहार में इसी रात्रि के समाप्त होने पर महिलाएं द्वारा भोर में घर का कचरा साफ करते और
सुप को लोहे से पीटते हुए घर से बाहर जाने की अनूठी परंपरा है। इस दौरान महिलाएं लक्ष्मी का स्वागत करने के लिए बोलती है लक्ष्मी आव और दरिदर (दरिद्र ) भागे।”कहीं-कहीं शंख भी बजाने का रिवाज है।
–13नवम्बर (गोवर्धन पूजा/गईया डांढ़)दिपावली के पांच दिनों के त्योहार में चौथे दिन पशुपालकों द्वारा गौशाला का जहां साफ-सफाई की जाती हैं ।वहीं पशुओं को नहलाते धुलातें हैं। खासकर गौधन को जरुर साफ सुथरा करते हैं। उनके सींघ में जहां देसी घी लगाने के साथ-साथ उनके शरीर में रंग लगाने के साथ उनके बांधने की रस्सी भी जरुर नये बदलते हैं। वहीं टीका लगाकर गुड़और मिठाई खिलाने के साथ आरती भी उतारते हैं। इस दिन पशुपालक को छोड़कर अन्य लोग भी गौधन को पूजने की परंपरा है। जबकि जहां जानवर चरने के दौरान इक्ट्ठा होते हैं जिसे बथान कहते हैं। वहां स्थापित या किसी गांव में अन्य जगह भी गोवर्धन भगवान (पर्वत) स्थापित हैं। वहां पर सामुहिक रुप से इनका पूजा-अर्चना किया जाता है। दिपावली के रात में हीं इन घरों में दूध
और अरवा चावल (कच्चा चावल)का खीर बनाये जाते हैं। सुबह होते हीं पशुओं को नहला -धोकर अपने-अपने घरों के देवता घरों में अन्य देवताओं के साथ गोवर्धन भगवान का आवाहन करते हुए खीर का प्रसाद भोग लगाकर पूरे परिवार में खाया जाता है। वहीं कुछ जगहों पर आटे के बने दीये में देसी घी डालकर परिवार के मुखिया द्वारा खाने की भी परंपरा है।
गोवर्धन पूजा के संबंध में बताया जाता है कि द्वापर युग में जन्म लेने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने मेघराज इंद्र के कुपित होने के कारण ब्रज वासियों को भयंकर मूसलाधार बारिश और तुफान से बचाने के लिए अपनी सबसे छोटी उंगली पर सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत को उठाकर इंद्र के घमंड तोड़ने के लिए रखा था। इस दौरान गोप, गोपिकाएं और गौवंश गोवर्धन पर्वत की छाया में सुखपूर्वक एवं शांतिपूर्ण रहे थे। सातवें दिन भगवान कृष्ण ने गोवर्धन को नीचे रखा और प्रति वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से तह उत्सव मनाया जाता है। अन्नकूट के अवसर पर गोशालाओं और जहां श्री कृष्ण या गोपाल जी की प्रतिमा मंदिर में स्थापित हैं वहां छप्पन तरह के भोग अभी भी लगते हैं। बिहार में यह त्योहार ग्रामीण क्षेत्र में बड़े हीं धूमधाम से मनाए जाते हैं। कुुछ वर्ष पूर्व तक गोवर्धन पूजा के अवसर पर सांड और सुअर में लड़ाई करवाये जाते थे। लेकिन अब समय बदल गया। अब जहां पहलवानों को पहलवानी देखने के लिए दंगल का आयोजन होता है। इस दंगल में बड़े-बड़े राजनेता उपस्थित होकर पुरस्कार वितरित करते हैं। प्राचीन काल में पशुपालकों द्वारा जहां विरहा और लोरकाईन, लोकगीत का गायन करते थे। वहीं अब युवा पीढी ने नाच- गाने और तमाशे में बदल दिए हैं।
—14नवम्बर (भैया दूज/भईया दूज/गोधन कुटाई)दिपावली के पांचवे दिन अर्थात अंतिम दिन को भैया दूज, भईया दूज, गोधन कुटाई या बुट कुटाई बोला जाता है। इस दिन बिहार और झारखंड की बच्चियाँ, युवा एवं विवाहित महिलाएं द्वारा सुबह-सुबह उठकर अपने -अपने भाई भतीजों को गाली देने का रिवाज है। वहीं घर के बाहर खुले स्थान पर गांव के अन्य महिलाओं के साथ मिलकर गाय के गोबर से एक चोकोर घर नुमा बनाया जाता है। इस चोकोर नुमा के बीच में खाली जगह पर गोबर से ही यम(यमराज)और उनकी पत्नी यमीन के तस्वीर बनाए जाते हैं। उसके बाद उसमें रेंगनी के कांटे (एक प्रकार के बलूआही मिट्टी में उगने वाले कैक्टस)को रखकर उस पर ईट पत्थर रखकर सामुहिक रुप से गीत गाते हुए (ओखली में कुटाई करने वाले )समाठ से कुटाई करते हैं। इसके साथ हीं इसके पहले इस चोकोर घर को पूजा-पाठ करते हैं साथ हीं सूखे नारियल का गोला, मौली, सुपाड़ी , मिश्री, छुहाड़ा, कच्चे चावल और चना का भोग लगाकर अपने -अपने भाई -भतीजे के दीर्घायु होने की मंगलकामना करते हैं। उसके बाद सभी अपने घर पहुंच कर आंगन में अइपन (कच्चे चावल का पीसा हुआ गिला तरल रुप)से भाईयों और भतीजे के संख्या के बराबर आदमी का तस्वीर बनाकर उसमें अरवा चावल (कच्चा चावल)भरकर( इसे अमर भत्ता कहते हैं)अमरत्व की कामना करते हैं। इसके बाद
उसी मौली को भाई के हाथ में रक्षा सूत्र बांधते हैं ।साथ हीं मिठाई के साथ भोग लगाये गए सूखे नारियल, चना, चावल सहित सभी प्रसाद खिलाते हैं। यह भी त्योहार रक्षाबंधन जैसा हीं है लेकिन रक्षा बंधन में मात्र एक दिन में हीं राखी बांध सकते हैं। मगर इसमें चढाये गए मौली और प्रसाद होलिकादहन से पूर्व तक खिलाने की प्रचलन है।
धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक
भैया दूज के दिन जो भाई यमुना नदी में स्नान करते हैं, तो उन्हें यमराज के प्रकोप से मुक्ति मिलती है। इस तरह यमराज ने अपनी बहन यमुना को वरदान दिया था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार यम यानी यमराज और यमुना दोनो सगे भाई बहन हैं। ये भगवान सूर्य और उनकी पत्नी छाया के ये दोनो संतान हैं। दोनो भाई बहन में बहुत हीं अगाध प्रेम व प्यार था। हलांकि अपने काम को लेकर यमराज इतने व्यस्त रहते थे कि उनको यमुना के पास जाने का समय हीं नहीं मिलता था। लम्बे समय तक यम अपने बहन यमुना के पास नहीं गए जिससे यमुना नाराज हो गयीं। एक दिन अचानक यमराज अपनी बहन यमुना से मिलने पहुंच गए। अपने सामने भाई को देख यमुना काफी खुश हुई। उस दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया था।यमुना ने अपने भाई को खुब सत्कार
किये। यमराज जब अपनी बहन के यहां से विदा होने लगे, तो यमुना ने उन्हें सूखे नारियल का एक गोला भेंट स्वरुप दे दी। इस सूखे नारियल को लेकर अपनी बहन से इसे देने का तात्पर्य पूछा तो यमुना ने बताई की ये नारियल मेरी याद दिलाते रहेगा। इसी पौराणिक महत्व के कारण भैया दूज में सूखे नारियल प्रसाद के रुप में चढ़ाने की विशेषता है। वैसे भैया दूज पूरे भारत में अलग-अलग तरीके से मनाने की परंपरा है।
इसी कारण पूरे दुनिया में भारत एक एकलौता ऐसा देश है जिसे त्योहारों का देश कहा जाता है। भारत के लाखों लोग विदेशों में रहकर विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी बनकर जहां विदेशों में रहकर योगदान अपना देते हुए यहां के मिट्टी से जुड़कर यहां के संस्कृति, विरासत और परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। इसीलिए यहां के तीज-त्यौहार, परंपरा और परिवेश से लालायित होकर यहां के समृद्ध विरासत को अपनाने हेतु अपने देश में भारतीय और भारतीय मूल के लोगों से मिलकर इसमें सहयोग कर रहे हैं।