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नाता में बिकती आधी आबादी, झुलस रहा बचपन………… अमित बैजनाथ गर्ग

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– नाता प्रथा की वजह से समाज का ढांचा बुरी तरह बिगड़ गया है, जिसे सुधारने का रास्ता फिलहाल किसी को भी नजर नहीं आ रहा है। सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है, क्योंकि उनके पास कहीं भी जाने का कोई विकल्प मौजूद नहीं है। असल में नाता अब बेटियों और महिलाओं को बेचने की प्रथा बन गई है। इसे रोकने के लिए सख्त कानून की जरूरत है।
अमित बैजनाथ गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार

साल 2017 में राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के कलिंजरा थाना इलाके में प्रेम संबंधों के चलते एक युवक-युवती को प्यार करने की उन्हीं के गांव और परिवार वालों ने ऐसी सजा दी, जिसके बारे में हर सुनने वाला सिहर उठा। पहले दोनों को नंगा कर गांव में घुमाया गया, फिर युवती का 80 हजार रुपए में नाता कर दिया गया। इसी तरह राजसमंद जिले के आदिवासी इलाकों में कई महिलाओं के नाता के तहत अपनी इच्छा के विरुद्ध कई बार पुनर्विवाह करने के मामले भी सामने आए। नाता, नातरा अथवा नातरी एक ऐसी प्रथा है, जिसमें बिना शादी के युवती को युवक के साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता है। प्रदेश की कुछ जातियों में प्रचलित नाता प्रथा के अनुसार विवाहित महिला अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ रह सकती है। इतना ही नहीं, पुरुष भी किसी विवाहित महिला को उसकी सहमति से लाकर पत्नी के रूप में रख सकता है। असल में नाता प्रथा में महिला या पुरुष को शादी करने की जरूरत नहीं होती है और न ही किसी किस्म के रीति-रिवाज करने पड़ते हैं।
असल में राजस्थान में नाता प्रथा रुकने का नाम नहीं ले रही है। हालात इतने भयावह हैं कि कोविड के दौरान भी प्रदेश में नाता के कई मामले सामने आए। डूंगरपुर जिले में भी एक मामला सामने आया। वहीं बांसवाड़ा के तोरी, खेरदा और पाटिया गांवों में कई मामले देखने को मिले। साल 2020 में बांसवाड़ा के महोली गांव में नाता के एक मामले में एक लाख रुपए में निपटारा हुआ। एक अनुमान के मुताबिक, बांसवाड़ा जिले में हर साल करीब 10-12 नाता के मामले सामने आते हैं। कई मामलों में नाता का निपटारा 50 हजार रुपए से लेकर पांच लाख रुपए तक में हुआ। असल में नाता अब बेटियों और महिलाओं को बेचने की प्रथा बन गई है। बेटी का बाप और पति को छोड़कर चली जाने वाले पत्नी, दोनों की कीमत वसूली जा रही है। कई मामलों में महिला के माता-पिता भी ग्राम पंचायत द्वारा तय की गई नाता राशि लेते हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार ने भी अभी तक इस प्रथा को रोकने के लिए कोई कानून नहीं बनाया है।
इस प्रथा में कोई भी विवाहित पुरुष या महिला अगर किसी दूसरे पुरुष या महिला के साथ अपनी मर्जी से रहना चाहती है तो वह एक-दूसरे से तलाक लेकर एक निश्चित राशि अदा कर एक साथ रह सकते हैं। कहते हैं कि नाता प्रथा विधवाओं व परित्यक्ता स्त्रियों के लिए शुरू हुई थी। उन्हें सामाजिक जीवन जीने के लिए मान्यता देने के लिए इसकी शुरुआत हुई थी। इस प्रथा में पांच गांव के पंचों द्वारा कुछ फैसले लिए जाते हैं। इस दौरान पहली शादी के दौरान जन्‍मे बच्‍चों को लेकर बात की जाती है। इसके साथ ही अन्य मुद्दों पर चर्चा कर निपटारा किया जाता है। इसमें केवल महिला, पुरुष व उनसे जुड़े पक्षों जैसे माता-पिता, महिला का पति और पुरुष की पत्नी के बीच आपसी सहमति बनानी होती है। पंचायत के जरिए पत्नी को ले जाने वाले पुरुष से निश्चित राशि की मांग की जाती है। विवाहित पुरुष विवाहित महिला से जुड़े पक्ष को एक निश्चित राशि अदा कर अपने साथ रख सकता है। सौदा तय होने पर पत्नी दूसरे व्यक्ति के साथ रहने लगती है। इस लेनदेन की जाने वाली राशि को झगड़ा छूटना कहते हैं।
वैसे तो राजस्थान में इस प्रथा का चलन कई जगहों पर है, लेकिन आदिवासी समुदायों, जनजातीय क्षेत्रों और कुछ जातियों में यह परंपरा काफी लोकप्रिय है। पहले यह प्रथा जहां केवल गांवों में मानी जाती थी, वहीं वर्तमान युग में यह कई कस्बों तक फैल चुकी है। पंचों का तर्क है कि इस प्रथा की वजह से महिलाओं और पुरुषों को तलाक के कानूनी झंझटों से मुक्ति मिल जाती है, लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है। वक्त गुजरने के साथ इस प्रथा में भी कई परिवर्तन होते चले गए। इसके कारण लड़कियों और महिलाओं के खरीदने तथा बेचने के चलन को बढ़ावा मिल रहा है। वहीं दूसरी ओर यह पुरुषवादी समाज में महिलाओं के नियंत्रण का भी हथियार बनती जा रही है। इस प्रथा से हो रहे सामाजिक नुकसान को रोकने के लिए वर्तमान में पंचायतों के पास कोई भी आधिकारिक नियंत्रण नहीं है, जिससे नाता प्रथा महिलाओं के शोषण का सबसे बड़ा हथियार बनकर सामने आ रही है।
कुछ समय पहले दक्षिण राजस्थान में एक गैर सरकारी संगठन की ओर से किए गए अध्ययन में पाया गया कि अगर बच्चों की मां नाता प्रथा के तहत किसी अन्य व्यक्ति के पास चली गई है तो बच्चों को स्कूलों में अपमान का सामना करना पड़ता है। उनमें से अधिकांश के पास अपनी भावनाओं को साझा करने के लिए दोस्त नहीं होते हैं। अध्ययन में कहा गया कि 13 प्रतिशत बच्चों को अपने परिवार में नाता के कारण स्कूलों में अपमान का सामना करना पड़ता है। इनमें से छह प्रतिशत बच्चों को मौखिक और शारीरिक शोषण का सामना करना पड़ता है। अध्ययन में 22 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि नाता संबंध के बाद वे दैनिक जीवन में परिवारों में हिंसा देखते हैं। अध्ययन में कहा गया कि आदिवासी समाज में दो प्रकार की नाता प्रथा विद्यमान हैं। पहली, जब पति की मृत्यु हो जाती है और महिला अपनी इच्छा से या समाज की सहमति से किसी अन्य पुरुष के साथ चली जाती है। वहीं दूसरी में एक महिला अपने पति के जीवित होते हुए भी किसी अन्य पुरुष के साथ चली जाती है।
इन दोनों ही मामलों में महिलाएं अपने बच्चों को पीछे छोड़ देती हैं, क्योंकि उनका नया पति अपने पहले पति से बच्चों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होता है। यह उन बच्चों के लिए कई कमजोरियां पैदा करता है, जिन्हें अपने दादा-दादी या अन्य रिश्तेदारों के साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता है। पति या पत्नी की शीघ्र मृत्यु, महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा, तलाक, पति की खराब आर्थिक स्थिति या जब वह अपनी पत्नी की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं होता है जैसे कारणों को भी नाता प्रथा के बढ़ने की वजह माना गया है। इसके अलावा समाज का आधुनिकीकरण और मोबाइल तथा टीवी का प्रचलन भी नाता के अन्य कारण हैं। इस अध्ययन में कहा गया कि नाता की वजह से समाज का ढांचा बुरी तरह बिगड़ गया है, जिसे सुधारने का रास्ता फिलहाल किसी को भी नजर नहीं आ रहा है। सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है, क्योंकि उनके पास कहीं भी जाने का कोई विकल्प मौजूद नहीं है।
नाता प्रथा पर किए गए एक और अध्ययन में चौंकाने वाले तथ्य सामने निकलकर आए। अध्ययन ने कारणों के साथ कारकों और अभ्यास में होने के अनुभवों का उत्तर देने का प्रयास किया। यह अध्ययन ग्रामीण राजस्थान के कुछ इलाकों में किया गया था। इसमें कुछ महिलाओं का चयन किया गया और आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। इसमें कई विषय सामने आए और परिणाम महिलाओं की दुर्दशा को दर्शाते हुए मिले। नाता प्रथा के कारण के रूप में पत्नी के साथ पति का अपमानजनक व्यवहार सामने आया, जिससे उसकी पूरी जिंदगी दुख में कटती रही। वहीं अनिश्चित विधवापन और तलाक की मजबूरी जैसे कारण भी सामने आए। नाता के रूप में रहने का महिलाओं का अनुभव खराब रहा, उन्हें हिंसा और परित्याग झेलना पड़ा। उनकी सामाजिक मान्यता की कमी रही और उनके बच्चों की चिंता उन्हें हमेशा सताती रही। इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का कहना है कि इस प्रथा को रोकने की सख्त जरूरत है, जिसके लिए सबसे पहले तो सरकार को ठोस कानून बनाना होगा। वहीं समाजों के स्तर पर भी हम सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बेटियां-महिलाएं ऐसे ही बिकती रहेंगी।

अमित बैजनाथ गर्ग
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