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धम्मपद्द यमकवग्गो~ सूत्र -६ अंक~६………. आनंद शास्त्री

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सम्माननीय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में यमकवग्गो के सातवें पद्द का पुष्पानुवाद भगवान श्रीतथागत के श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
और इसे संस्कृत में कहते हैं कि–
“परे च न विजानन्ति मयमेत्थ यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा।।६।।”
और इसे संस्कृत में कहते हैं कि–
परे च न विजानन्ति वयमत्र म्रियामहे।
तथा ये तु विजानन्ति तेषां द्वेष: प्रशाम्यति।।
प्रिय मित्रों ! भगवान अजातशत्रु जी पुनः कहते हैं कि–
” परे च न विजानन्ति मयमेत्थ यमामसे”अद्वैत के महान समर्थक महात्मा बुद्धजी के ये वचन सर्व प्रथम तो यही उद्घोस करते हैं कि-“एक एव ही भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः”
“एकोऽहम् बहुस्यामः प्रजायेयम्” और यहीं से समस्याओं का जीवन में पदार्पण होता है ! किसी का जन्म होने का ये भी अर्थ होता है कि-“किसी की मृत्यु हुयी” और मृत्यु होना हिंसा है ?
ये शाश्वत सत्य है कि जीवन-मृत्यु दोनों साथ-साथ चलते हैं !
वे कहते हैं कि यदि मैं प्रतिहिंसा की भावना से निष्ठुर ह्यदय होकर अपने से अन्य ! अपने से पृथक अपने अपघाती को देखता हूँ ! और उससे प्रतिशोध लेने हेतु उसे कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ! और तो और उसकी हिंसा तक करने को तत्पर हो जाता हूँ ! और ऐसा करते हुवे मैं यह क्यों नहीं विचार कर पाता कि,मैं जिनका हनन कर रहा हूँ,जिसे उसके किये का दण्ड देने को उद्यत हो रहा हूँ ! “उसकी” आत्मा ! और मेरी आत्मा भिन्न भिन्न तो नहीं ही है ! अर्थात मैं किसी को कष्ट नहीं दे रहा,अपनी आत्मा को ही कष्ट दे रहा हूँ।
मैं किसी दूसरे से प्रतिशोध लेने के स्थान पर अपनी ही आत्मा से प्रतिशोध ले रहा  हूँ ! मेरे और उसके शरीर पृथक पृथक कदाचित् हो सकते हैं ! किंतु उसकी और मेरी आत्मा एक ही है !
मित्रों ! यह एक प्रश्न अपने आपसे पूछता हूँ कि “तथागत” पर “अभक्ष्याऽभक्ष्य” का आरोप भला कोई कैसे लगा सकता है ?
मैं यह कहना चाहता हूँ कि—-” ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा” मैं उपनिषद के एक मंत्रको यहाँ पर उद्ध्रित करना उचित समझता हूँ-“अहिंसा प्रतिष्ठायाम् तत् सन्निधौः वैर त्यागः”अर्थात जो अहिंसा वृत को धारण कर लेते हैं ! शनैः शनैः उनके प्रति भी सभी जीव अपने वैर-द्वेष भाव का परित्याग कर देते हैं ! किंतु  प्रथम मैं आगे तो बढूँ”अहिंसा-पथ”पर ? मैं बारम्बार एक बात कहता आ रहा  हूँ कि,मैं “बौद्ध”विचार उपस्थित कर रहा हूँ ! तो बुद्ध के विचारों को समझने हेतु “बुद्ध”के चरणों में तो बैठना होगा ! जो बुद्ध यह कहते हैं कि किसी की भी “हिंसा”करने से अपनी “हिंसा”होती है !
उन के सच्चे अनुयायी ! कदापि और किसी भी स्थिति में “हिंसा” के समर्थक भला कैसे हो सकते हैं ?
भगवान बुद्ध की विरासत हो अथवा कि विचारधारा दोनों के गहन विश्लेषण की आवश्यकता है ! आवश्यकता ये भी है कि बुद्ध यदि अहिंसक थे तो बुद्धिस्ट मांस भक्षी भला कैसे हो सकते हैं और लेह हे लेकर लद्दाख तक ! धर्मशाला से लेकर बोधगया तक यत्र तत्र सर्वत्र बुद्धिस्ट मांसाहार करते हैं ! अर्थात वे बुद्धिस्ट नहीं हैं ? और यदि वे बुद्धिस्ट हैं तो बुद्ध अहिंसक नहीं हैं ?
जबकि इस पद्द में यह स्पष्ट करते हैं कि ! तो “तथागत”किसी भी तरह की “हिंसा”के विरुद्ध थे, हैं,और रहेंगे भी ! और इस प्रकार  इस सिद्धांत के द्वारा मैं यह स्पष्ट देख रहा हूँ कि”महात्मा-बुद्ध” सैद्धांतिक रूपेण सम्पूर्णतया वेदों के समर्थक हैं ! औपनिषदीय ज्ञान के उत्प्रेरक हैं-“अ-द्वैत” वाद के स्फुरण कर्ता हैं ! अद्वितीय सनातन धर्मी हैं ! आरक्षण अथवा अनारक्षण की आग तो राजनितिज्ञों ने लगायी है ! जाति,सम्प्रदाय,भाषा,प्रांतीयता,और अधर्म का दावानल तो राजनीतिज्ञों ने हमारे-आपके झोपड़ों को अपनी रोटियाँ सेंकने के लिये दहकाया है।
मित्रों ! यहाँ यह भी विचारणीय है कि आखिर ऐसी कौन-सी विशेषता है कि तथाकथित दलित उत्पीड़न केवल डाक्टर भीमराव अम्बेडकर जी को हिन्दू धर्म में दिखा ! मुस्लिमों के सैकड़ों दलित वर्ग उनको नहीं दिखे ! हिन्दू धर्म के प्रति हदों को पार कर घृणित टिप्पणी करते हुवे उनहोंने ये कैसे भुला दिया कि वे जिस लोकतंत्र का संविधान लिखने जा रहे हैं उसमें हिन्दू बहुसंख्यक हैं ! अपनी जीवनी में उन्हें ये स्वीकार करने की क्या आवश्यकता थी कि वे -“गौ मांस” खाते हैं ! अर्थात कहीं न कहीं यह आगामी भूकम्प और सुनामी की एक चेतावनी है कि जिस बौद्ध धर्म को उन्होंने स्वीकार किया उस बौद्ध धर्म के अंतर्राष्ट्रीय रूप से विख्यात धर्मग्रंथ को उन्होंने कभी पढा ही नहीं ! ऋग्वेद एवं बाजसानेय यज्ञों को बदनाम करने के लिये-“आम्बेडकर” ने एक लेख लिखा कि ऋग्वेद के अनुसार इन्द्र ने एकबार पांच से अधिक बैल पकाते,घोडे,गाय,भेंड,सांड आदि की बलि देने का विधान ऋग्वेद में है ! इनका मांस हमारे ऋषि-मुनियों का सामान्य आहार था ! ऐसी घृणित व्याख्या करने वाले लोगों के ही कारण हिन्दू समाज की आज भी दुर्गत्ति हो रही है ! मित्रों ! ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी हिन्दू धर्म पर अनावश्यक अपमानजनक टिप्पणी करते ही विख्यात हो जाता है और इसे शाश्वत सनातन कहनेवाले लोगों को रुढिवादी होंने का कलंक मिलता है ….-“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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