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वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः — आनंद शास्त्री

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सम्माननीय मित्रों ! एक योगी और राजा में अंतर होता है ! महाराजा को कितना भी मिल जाये ! वो संतुष्ट नहीं होते ! उनकी पिपासा बढती ही जाती है ! बढती ही जाती है, अंतर इतना ही होता है कि या तो उनकी प्यास देशवासियों के खून से बुझती है अथवा उनकी प्यास देश हित में विकास के मार्ग प्रशस्त करते हुवे बुझती है ! और एक समय ऐसा आता है कि “राजा-योगिराज” बन जाता है–“सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः”
और आज भारत विश्व गुरु अर्थात विश्व का मार्गदर्शन करने को धीरे-धीरे तैयार होता जा रहा है ! और इसका श्रेय निःसंदेह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उन धरातलीय नीति को जाता है जिसकी आधार शिला क्षत्रपति शिवाजी महाराज से लेकर महाराणा प्रताप ने रखी थी ! जिसकी आधार शिला आदरणीय गोलवलकर जी एवं पूज्य गुरू जी ने रखी थी।
मित्रों ! ये शाश्वत सत्य है कि-“हिन्दू संस्कृति” विश्व मानव समाज की मुख्य जड है ! तीन हजार एक सौ तेइस वर्ष पूर्व कोई भी यहूदी नही था ! ये सत्य है कि सन् 2033 के पूर्व कोई इसाई नहीं हुवा करता था ! सन् 624 के पूर्व कोई मुस्लिम नहीं था ! समूचे विश्व में दो प्रकार के लोग थे-“प्राकृत और संस्कृत” कृपया ध्यान देना आप यहाँ संस्कृत से तात्पर्य भाषा से नहीं है।
और यह आर्यावर्त का बल था कि-
“ऐक्यं बलं समाजस्य तदभावे स दुर्बलः।
तस्मात ऐक्यं प्रशंसस्ति दृढं राष्ट्रं हितैषिणाः॥”
प्राकृत वे लोग थे जो हम संस्कृत लोगों के अभिभावक थे ! वे हमारे पूर्वज हैं ! हमारे माता-पिता हैं  वे! उन्होंने अशिक्षित होने के दंश को झेला था ! वे चाहते थे कि उनकी सन्तानें शिक्षित होकर देश,धर्म,समाज और अपने गांव को एक पहचान दें ! हमारे उन्हीं प्रकृति के आंचल में अर्थात सुदूर ग्रामीण अंचल में,वन में, असुविधाजनक परिस्थितियों में रहते हुए भी अपने बच्चों को शिक्षित होने हेतु धीरे-धीरे बुद्ध और प्रबुद्ध लोगों के
पास भेजा ! और उनकी सन्तानों ने आश्रम में पलकर,शिक्षित होकर ! खेल खेल में-“सिंह के जबड़े” खोलकर दांतों को गीना था ! उनके नाम पर हमारे देश का नाम-“भारत” हुवा ।
मित्रों ! यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने सिंह से मित्रता की थी ! हमारे प्राचीन इतिहास को इस दृष्टि से देखने की गहरी आवश्यकता है कि हमारे यशस्वी पूर्वज सिंह का शिकार नहीं अपितु उनसे मित्रता करते थे ! ऋषियों के आश्रम में- “गौ,हिरन, सिंह” एकसाथ रहते थे ! एक-दूसरे के प्रति मित्र भाव से रहते थे ! और इसका यही कारण था कि हमारे ऋषि-मुनी भी अपनी जडें जानते थे कि वे प्राकृत स्थानों से आये वही लोग हैं जो- “नैसर्गिक प्रकृति” के बीच रहते हैं ।
एकता थी उनमें और सुदूर वनवासी लोगों में ! सुदामा और कृष्ण एकसाथ पढते थे ! महाराज सैन्धव के पुत्र उद्दालक और जंगलों में रहनेवाले एक वनवासी कृषक की सन्तान आरुणी एक ही गुरूकुल में रहते थे ! इतनी एकता हममें थी।
मित्रों ! कालान्तर में नगरीय भव्यता और विकास की दौड़ में अंधे होकर हमने अपने गांव से,वन और सुदूर चाय बागानों से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया ! मित्रों ! श्रुति कहती है कि-
“ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्त्तु।सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि ना मधीतमस्स्तु मा विद्विषावहै ॥”
हमें एक साथ चलना होगा ! हममें कुछ शिक्षित,स्वस्थ,उच्च कुलीन,धनाढ्य होंगे ! कुछ व्यक्ति अशिक्षित,निम्न वर्गीय, अस्वस्थ,निर्धन होंगे ! हममें कुछ अच्छे लोग होंगे-कुछ ऐसे होंगे जिनसे हमारा-“मतभेद” होगा ! कोई बात नहीं -“मन भेद” नहीं होना चाहिये।मत भेद मिट सकता है और -मन भेद वह पत्त्थर की लकीर है जो हमेशा के लिये हमें एक-दूसरे से पृथक कर सकती है।
राष्ट्रीय हित में हमें एकता पर बल देना होगा ! दरिद्रता धनाभाव से नहीं होती ! कोई व्यक्ति अपने से ऊंची पायदान पर बैठे व्यक्ति के समक्ष दरिद्र है ? अर्थात हर व्यक्ति अपने से ऊंची कक्षा में बैठे व्यक्ति के समक्ष दरिद्र है। अर्थात हर व्यक्ति दरिद्र है ! और सम्पन्न कौन है-“टुकड़े में टुकडा कर देना मेरे लाल”मित्रों ! हमारे पास आज जो कुछ है ! वो हमारे अपने श्रम के साथ- पूर्वजों,राष्ट्र,शिक्षा और समाज के सहयोग से है ! अर्थात इन सभी का हमारे विकास में योगदान है ! और यह समय की पुकार है कि हम उन सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हुवे उनका अंश ब्याज के साथ वापस कर दें ! अभी भी समय है ! यदि आज हम नहीं जागै ! हमने एकता नहीं दिखायी ! तो समाप्त हो जायेगा अस्तित्व हमारा।
दो तरह के व्यक्ति हममें होते हैं पहला व्यक्ति हिमालय के शिखर को देखकर कहता है कि असम्भव ! मैं वहाँ नहीं चढ सकता ! और दूसरा कहता है कि-मित्र ! चलो ! एक कदम बढा कर देखो कल ! यह शिखर तुम्हारे कदमों के नीचे होगा बिलकुल यही सूत्र हमें हमारी संस्कृति, हिन्दी, असम,हिन्दू और हिन्दुस्थान को अपने लक्ष्य तक पहुँचा सकता है।
मित्रों ! हममें से कुछ लोगों को-“पंच प्यारे” की तरह आगे आना होगा ! अपना सर्वस्व होम करने को तत्पर होना होगा ! जिस प्रकार संघ के प्रचारक एक चलते-फिरते ऐसे सन्यासी थे जो हमारी-आपकी चौखट पर आकर हिन्दुत्व का बिगुल फूंक कर हमारे बच्चों को जागृत कर गये ! हममें हिन्दुत्व भाव अनजाने में ही जागृत कर गये ! बिलकुल उसी प्रकार-“न दैन्यम् न पलायनम्” मेरे अपने जीवन का सिद्धांत रहा है कि-“सफलता सीता की खोज में नही अपितु रावण वध का उपाय ढूंढने में है।” हमें अपना तन मन और धन यह तीनों ही यथा संभव हिन्दी हिन्दू और हिन्दुस्थान के हितार्थ लगाना होगा ! और ऐसा करने पर ही हमारी-आपकी पीढियों को-“असम में अपनी-समकालीन” पहचान सुरक्षित रखने में सामर्थ्यवान बनायेगी–..आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″

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