सम्माननीय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित धम्मपद्द के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में यमकवग्गो के १४ वें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“यथा अगारं सुच्छन्नं वुट्ठि न समतिविज्झति।
एवं सुभावितं चित्तं रागो न समतिविज्झति।।४।।” अर्थात-
यथा ह्यगारं सुच्छन्नं वृष्टिर्नैवाभिविध्यति।
एवं सुभावितं चित्तं नैव रागोऽभिविध्यति।।
भगवान अजातशत्रु जी पुनः कहते हैं कि–“यथा अगारं सुच्छन्नं वुट्ठि न समतिविज्झति” अर्थात जब आप जैसे स्थिरचित्त साधक वृंन्द सम्यकरूपेण अपने आप पर नियंत्रण रखना जान लेते हैं ! यहाँ सम्यक् को भी समझना होगा ! इसे संत ब्रम्हानंद जी के शब्दों में कहें तो-“हंसा ब्रम्ह रूप भाषै ब्रम्हाण्ड में जिनकी वृत्ति अखण्ड ब्रम्हाकार दुर्लभ ऐसे संत हैं !” मैं आपसे एक बात अवस्य ही कहूँगा कि-“स्वचित्तानुशाषन” साधना का प्रथम सोपान है।
आप भक्ति,ज्ञान या योग किसी भी मार्ग का आश्रय लें किंतु स्वयम् का स्वयम् पर अधिकार तो होना ही चाहिये ! तभी तो मैं बारम्बार कहता हूँ कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को शिघ्र ही परमार्थोपलब्धि हो सकती है। भले ही पुरूष स्त्री को अपनी सम्पत्ति समझते हों किन्तु इसे स्वीकार करना-“नारीत्व” की वह महानता है जिसके समक्ष पुरुषत्व की समूची व्याख्या और व्यवस्था धरी की धरी रह जाती है।
और उसका कारण भी है,अहंकार ही विषयों का पिता होता है !और अहंकार का ही दूसरा नाम पुरुषत्व भी है !मैं पुरुष विरोधी टिप्पड़ी नहीं कर रहा हूँ,मेरे विचारों को तथ्यात्मक रूपसे समझने की आवश्यकता है ! इतिदुत्तक•वग्ग•५•३•९१ में स्वयम् ही तथागतजी ! कहते हैं कि-
“धम्मं हि सो भिक्खवे पासति धम्मं परसन्तो मं परसति”
अपने चित्त पर अपना ही अधिकार हो,ये कोई विशेष बात नहीं है ! आश्चर्य तो इस बात पर होना चाहिये कि-“मन,बुद्धि,चित्त, इन्द्रियाँ हमारी होते हुवे भी इनपर हमारा अधिकार नहीं है ? ऐसा कौन सा आकर्षण है कि हमारी इन्द्रियाँ मन के बहकावे में अनियंत्रित होकर विषयों की ओर जीवात्मा को बलात्कार से खींच ले जाती हैं ?
जिस प्रकार मैं अपनी भौतिक सम्पत्तियों पर अपना अधिकार मानता हूँ और उसकी सुरक्षा हेतु कुछ भी करने को तत्पर रहता हूँ,तो उसी प्रकार यह”चित्त”भी तो मेरा ही है,तो इसकी भी तो साँसारिक “मानसिक” आपदाओं से सुरक्षा करने का दायित्व मेरा ही है ?
मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूँ कि “बुद्धत्व”में बाधक-“राग” होता है ! यह राग ही है जो कि क्रमशः काम-क्रोध और लोभादि का जनक होता है ! मैं विषयों की तरफ देखूँ उससे विषय मुझे नहीं जकड़ सकते ! मैं विषयों में राग रक्खूँ तो अवस्य ही जकड़ सकते है ! मैं यह कहना चाहता हूँ कि, मैं आपके समक्ष “बुद्धोपलब्धि” के दो विपरीत ध्रुवों का विलक्षण सा उदारहण रखता हूँ–अनेक बार मैं कुछ मित्रों को यह कहते पढता सुनता रहता हूँ कि बुद्ध ने अपनी पत्नी का त्याग कर सन्यास लिया,वे भगोड़े थे ! महावीर स्वामी भगोडे थे ! हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी भगोडे हैं ! मैं शाँत रहा क्यों कि इस तथ्यको आज स्पष्ट करता हूँ ! जिस सिद्धार्थ ने अपनी सोयी हुयी पत्नी एवम् सद्योजात् पुत्र का परित्याग सन्यासोपलब्धि हेतु कर दिया ! उसी-“बुद्धत्वस्थित” तथागतने अपने भिक्षुवों को इतना योग्यतम् बना दिया कि वे “वेश्याओं”के सानिध्य में भी अनेकों दिवस रहने के उपरांत उन्ही वेश्याओं को “बुद्धत्व”की शरणमें किसी चुँबक की तरह खीँच लाते थे। मित्रों ! सन्यास गृहस्थाश्रम का बाधक नहीं है ! गृहस्थाश्रम सन्यास का बाधक नहीं है ! स्त्री सन्यासी के लिये बाधक नहीं है ! अपितु बाधक हमारी स्वच्छन्द मनोवृत्ति है ! और मनोवृत्ति ही साधक भी हो सकती है।
इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि-संसार बाधक नहीं है ! संसार से राग बाधक है ! सिद्धार्थ ने अपनी पत्नी -पुत्र का त्याग नहीं किया था ! उन्होंने उनके प्रति अपने राग का त्याग किया था ! और इसी कारण-जब उन्होंने-“तथ्योपलब्धि”कर ली तो उनके उपदेश के सच्चे अनुयायी इतने योग्य होते गये कि वे वेश्याओं को भी “विक्षेप चित्त से रहित आत्मध्ययनोत्सुक” बनाने लगे।
मित्रों ! यही आत्मोपलब्धि का प्रशस्त पथ है ! बुद्धत्व की प्राप्ति के तीन सोपान-“बौद्ध-दर्शन के महाप्राण हैं–
(१)=जिस मोह-रात्रि को सिद्धार्थ ने-“यशोधरा” का त्याग किया !
(२)=जिस महा-रात्रि को तथागतने-“सम्यक्सम्बोधि” प्राप्त की !
(३)=और जिस काल-रात्रि में-“बुद्धत्व”शेष निर्वाण में प्रवेश करते हैं।
शंकरदास जी कहते हैं कि-“काया काम न आवे रे तजि दो तुम माया।मोह निन्द्रा का प्राणी रे झपकी से जागा। जागा ! जगत ना दिखै जिने अनुभव लागा॥” अर्थात यशोधरा का त्याग सिद्धार्थ ने नहीं किया था ! जिस रात यशोधरा के पार्श्व से सिद्धार्थ जाते हैं वही वह मोहरात्रि ही महारात्रि में प्रवेश का द्वार थी जो वास्तविक दाम्पत्य जीवन को साकार कराती हुयी अंततः बुद्धत्व के साथ-साथ यशोधरा को भी कालरात्रि में आत्मसाक्षात्कार कराती है ! जिस बोध हेतु सिद्धार्थ ने वर्षों तपस्या की वह बोध यशोधरा को अनायास ही बुद्ध के सानिध्य में प्राप्त हुवा ! अर्थात बुद्ध ऐसे योग्यतम सन्यासी थे जिन्होंने ग्रहस्थाश्रम के सभी कर्तव्यों को पूरी निष्ठा के साथ सम्पन्न किया। यही इस”पद्द”का भाव है!!शेष अगले अंक में..-“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”





















