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धम्मपद्द अपमादवग्गो~ सूत्र-६ अंक~२६ — आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में अपमादवग्गो के छठें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“पमादमनुयुञ्जन्ति बाला दुम्मेधिनो जना ।
अप्पमादं च मेधावी धनं सेट्ठं व रक्खति।।६।।”
अब पुनः आर्य-श्रेष्ठ कहते हैं कि” पमादमनुयुञ्जन्ति बाला” अर्थात जो कुछेक मेरे जैसे अज्ञान-अंधानुपथ गामी होते हैं ! बालकों के जैसी भोली नहीं किन्तु अविकसित असद् प्रवृत्तिओं वाले होते हैं ! वे इस दुर्लभ मानव जन्म को पाकर भी व्यर्थ ही गँवा बैठते हैं–
“लख चौरासी भमन कियो मानव जन् पायो।
कहें नानक नाम सम्हार नौ दिन नैंणें आयो।।”
मैं सच कह रहा हूँ,जब मैं छोटा सा गुड्डा जैसा था तो इतना सुँदर था कि सभी प्यार से गोद में लेकर दुलारते थे ! फिर किशोर होने लगा-नैसर्गिक बाल सुलभ सुँदरता-चंचलता कहीं खोता हुआ और युवा होता गया,और भी बलिष्ठ होता गया ! बल-गर्वित !
और फिर तो युवा हो गया”कामी क्रोधी,लोभी और मोही ! नर्कगामी और नर्कों का प्रवेशद्वार भी ! और अब तो ढलती आयु है,धीरे-धीरे काल रूपी धीमा जहेर दिन प्रति दिन मुझे चिता की तरफ ढकेल रहा है ! अर्थी सजने की भी बेला कभी न कभी आ ही जायेगी-
“बालस्तावद् क्रीडा सक्तः तरूणी तरुणाऽरक्त सक्तः।
वृद्धोयाति गृहित्वा दण्डम् तदपिन न मुंञ्चति त्याशापिंडम्।।”
हाँ प्रिय मित्रों ! “दुम्मेधिनो जना”ये जो मेरे प्रमाद के कारण ! मन की अपने कृतिम् रूप के प्रति अनवधानता है,असावधानी है ! जो मुझे इस बल और रूप के द्वारा विषयासक्तिओं की तरफ बलात् मोड़ देती है ! इस संदर्भ में मैं आपको एक अद्भुत बात बताता हूँ-मुझ जैसे काम-क्रोध गृस्त लोगों का उद्धार मंदिरों में जाने की अपेक्षा”मानसिक-प्रक्षालन”से ही संभव हो सकता है।
दोष मेरे या आपके  रूप और बल का नहीं है, हमारे स्त्री अथवा पुरूष होने का दोष भी नही है ! हममें व्याप्त प्राकृतिक स्वाभाविक वासनाओं की तरफ प्रवाह का भी दोष नहीं है ! यह तो एक सामान्य सी प्राकृतिक प्रक्रिया है ! बाल्य-युवा या वृद्धावस्था एक नदी है ! यह तो बहती ही रहेंगी ! जो आज बालक है वह कल युवा होगा और परसों वृद्ध होगा ! जो आज जन्मा है वो कल मरेगा ! इस नदी में बारम्बार इन शरीरों की लाशें बहती भी रहेंगी,अपने को असमर्थ समझकर मोहित हो शोक करता रहता हूँ।
मित्रों ! अभी कुछ दिनों पूर्व यहीं सिल्चर में  हमारे एक मित्र जैन बन्धु के यहाँ हमसे उनकी चर्चा हो रही थी ! मैंने कहा कि पक्षियों को दाना देना अच्छा होता है ! कौवे,कबूतर चिडियों को दाना देने से अपने आप को भी मानसिक सन्तुष्टी मिलती है ! तो वे बोले कि हमलोग कौवे को नहीं देते ! हमारे आचार्य कहते हैं कि क्या तुम्हारे पूर्वज इतने पापी हैं कि वो कौवे बन कर आयेंगे ? मुझे दुःख हुआ कि भला ऐसा किसी आचार्य को कहना चाहिए ? क्या हमें अपने आपको इतना धर्मात्मा समझना घमंड नहीं है ? श्रीमद्भगवद्गीता गलत कहती है ? क्या महावीर स्वामी तक के पूर्व जन्म हाथी आदि योनियों में हुवे ऐसा स्वयं उन्होंने स्वीकार किया तो हम अपने कर्मों से कौवे क्यों नहीं बन सकते ?
मुझे ! उपनिषद का यह वाक्य अनायास ही याद आ जाता है–
“समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति_मुह्यमान:।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक:।।”
शरीर-रूपी वृक्ष पर रहने वाली मैं जीवात्मा शरीर में आसक्त होकर डूब रहा हूँ। अथवा डूब रही हूँ ! अर्थात आश्चर्य होता है कि हमने मूर्खता वश शरीर को देखते हुवे-“जीव” का भी-“लिंग” निर्धारित कर दिया ! और तो और हमने आत्मा और जीव की भी ऐक्यता निर्धारित कर ली ! यह और भी आश्चर्यचकित करने वाली मनमानी मान्यता कुछ मतों ने प्रसारित कर दी कि मनुष्य-“मनुष्य” ही बनकर आयेगा ! प्रकारान्तर से वे यही सिद्ध करने का अपराध कर रहे है कि स्त्री-“स्त्री” ही हमेशा बनेगी ! इस अधार्मिक,अवैज्ञानिकीय एवं असामाजिक विचारधारा से हमें बचने के साथ-साथ इसका विरोध करने की भी आवश्यकता है ! किंतु यदि जब वहीं स्थित ! तथा आप जैसे भक्तजनों द्वारा सेवित अपने से भिन्न परमेश्वर को आप देख लेते हैं ! और उसकी महिमा को समझ लेते हैं, तो आप सर्वथा शोकरहित हो जाते हैं।
किंतु मैं तो लक्ष्यसे भटक जाता हूँ ! और परिणामतः मेरे सभी प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं ! मित्रों ये समस्या हमारी है कि मन्दिर के द्वार बन्द हैं ! हमने ऐसे कर्म नहीं किये कि देव–“आलय” में हमसे मिलें ! और फिर भी हम उन बन्द दरवाजों पे भीख मांगते फिरते हैं ! ये विचार भी नहीं करते कि हमने कितनों को भिक्षा दी ? वासना या संसार बाधक नहीं है,धन वैभव या कर्म बाधक नहीं हैं ! ये संसार रूपी नदी के प्रवाह हैं ! आप जैसे विद्वान आत्माऐं तो इन प्रवाहों की परवाह नहीं करते। तथागतजी कहते हैं कि” मेधावी धनं सेट्ठं व रक्खति”आप जैसे श्रेष्ठ साधक अत्यंत ही सचेत रहते हुवे ! विषयों के सागर में रहते हुवे भी”आत्मा रूपी-श्रेष्ठधन” की रक्षा करते रहते हैं ! ऐसा लोग कहते है कि धन-“वैभव,पद,सम्मान,भूमि,धर्म,जाति,गोत्र,वर्ण और विद्या” धन होता है ! ये सांसारिक धन हैं ! जंजीरों में बांधने वाले धन हैं ! ये सोने के पिंजरे हैं ! सच्चा धन-“आत्म-धन” है जो सबके पास होता हुवा भी-“तद् दूरे तद्ऽवन्तिके” अपने शरीर से भी अधिक समीप और नक्षत्रों से भी बहुत दूर है ! यह किसी तत्वज्ञानी सद्गुरू की कृपादृष्टि से ही गोचर होता है-
“इस घर में चोर लुटेरे बड़े निज माल की ले संभाल जरा।
बहूते होशियार लूटाय गये नहीं कायम काहू की लाज रही।
उठ जाग मुसाफिर चेत जरा तेरे सर पर बिजली गाज रही।।”
यही इस”पद्द”का भाव है ! शेष अगले अंक में लेकर पुनः उपस्थित होता हूँ ! -“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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