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महाराष्ट्र में भाजपा और विपक्ष में कौन दमदार?

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नवीन कुमार

देश में महाराष्ट्र ही एक ऐसा राज्य है जहां मोदी की गारंटी के बावजूद जीत को लेकर भाजपा का आत्मविश्वास मजबूत नहीं दिख रहा है. यह राज्य मोदी के लिए भी खास है. क्योंकि, यह उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा राज्य है जहां लोकसभा की 48 सीटें हैं जो नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने में अहम भूमिका निभाएगी. लेकिन राज्य में विपक्ष जिस तरह से एकजुटता दिखा रहा है उससे भाजपा को यह भरोसा नहीं हो रहा है कि वह 45 सीटों पर जीत हासिल कर सकती है. जीत की गारंटी के लिए ही भाजपा को अपने सहयोगी दलों शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित गुट) के साथ सीटों का बंटवारा करने में पसीने छूट रहे हैं. सीटों की हिस्सेदारी में सम्मानजनक फैसला नहीं होने से शिंदे गुट और अजित गुट दबाव में पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. नाजुक स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने 20 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. बाकी सीटों के लिए भाजपा, शिंदे गुट और अजित गुट आपस में मान-मनौव्वल का खेल खेल रहे हैं. मुख्यमंत्री और शिवसेना (शिंदे गुट) के मुख्य नेता एकनाथ शिंदे ने विश्वास व्यक्त किया है कि सीटों को लेकर उनके हक में सम्मानजनक फैसला होगा. इसके साथ ही शिंदे बार-बार दोहरा रहे हैं कि उनके सामने एक ही लक्ष्य है मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाना है.

राज्य में भाजपा के पक्ष में कई मजबूत पहलू हैं. सबसे पहली बात मोदी की गारंटी है. दूसरी बात यह कि भाजपा ने शिवसेना और एनसीपी को तोड़कर उसकी ताकत को कमजोर कर दिया है. तीसरी बात नागपुर में आरएसएस का मुख्यालय है. चौथी बात हिंदू जागृत है और भाजपा उसे अपने पक्ष में मानता है. फिर भी भाजपा के अंदर एक डर-सा बना हुआ है कि वह 45 के आंकड़े को छू नहीं पाएगा. इस आंकड़े में थोड़ी भी चूक हुई तो इसका प्रतिकूल असर मोदी पर पड़ेगा. भाजपा की चिंता उन तीन सर्वे से भी बढ़ी है जिसे उसने गुपचुप तरीके से करवाया है. इस अंदरूनी सर्वे में स्पष्ट संकेत मिला है कि भाजपा के साथ-साथ शिंदे गुट और अजित गुट की कई सीटें हैं जहां पर उसकी जीत संदिग्ध हैं. इसलिए भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने भी कमान संभाल ली है और शिंदे गुट और अजित गुट पर उन सीटों को छोड़ने के लिए दबाव बनाया है जिस सीट पर उनकी जीत की गारंटी नहीं है. इससे शिंदे गुट और अजित गुट को अपने वर्तमान सांसदों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है. शिंदे गुट और अजित गुट महसूस कर रहा है कि अगर अपने दबदबे वाली सीटों को छोड़ दिया तो मोदी की गारंटी पर सवाल खड़े हो जाएंगे. इसलिए शिंदे गुट और अजित गुट की तरफ से भी भाजपा पर दबाव बनाया जा रहा है कि उनकी सीट उनके ही हिस्से में रहने दिया जाए. मगर इस पर भाजपा की ओर से सकारात्मक पहल करने में टाल मटोल हो रहा है.

शिंदे गुट और अजित गुट से ही भाजपा की चिंता नहीं बढ़ी हुई है बल्कि भाजपा को अपने सांसदों वाली सीटों पर भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. जिन 20 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी गई है उसमें से सात सीटों पर उम्मीदवार बदल दिए गए हैं. इन सात सीटों में यह भी परिवर्तन किया गया है कि वर्तमान सांसद के परिवार के ही दूसरे सदस्य को टिकट देकर बगावत को रोकने की कोशिश की गई है. जिस सांसद को यह लाभ नहीं मिला वो अपने समर्थकों के जरिए विद्रोह प्रदर्शन कर रहे हैं. दबाव तंत्र के जरिए इसे भी रोकने का काम किया जा रहा है. फिलहाल तो यह 20 सीटों का मामला है. भाजपा कुल 35 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है. इसलिए बाकी 15 सीटों पर भी अड़चनें कम नहीं हैं. यही वजह है कि इन 15 सीटों पर विद्रोह को दबाने और समझौते का खेल खेला जा रहा है. शिंदे गुट और अजित गुट को क्रमश: 10 और 3 सीटें देकर फुसलाने का प्रयास हो रहा है. इस झुनझुने से ये दोनों गुट खुश नहीं होने वाले हैं. अगर किसी तरह से मान भी गए तो ऐसे में यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि इनकी मदद से 45 सीटों पर जीत हासिल की जा सकती है. इन दोनों गुटों के सांसद और नेता अपने सपने को टूटते हुए नहीं देख सकते. आखिरकार शिंदे गुट वाले उद्धव ठाकरे से और अजित गुट वाले शरद पवार से बगावत का यह परिणाम नहीं देखना चाहते. उन्हें भी अपना  राजनीतिक करियर अपने हिसाब से बनाकर रखना है. अब थोड़ा जमीनी हकीकत को देखा जाए तो उसमें जनता का आक्रोश भी है जो फिलहाल दबा हुआ दिख रहा है. लेकिन जनता यानी मतदाता समझदार है जिसे पता है कि उसे अपनी बात कब और कहां पर रखनी है. जाहिर-सी बात है कि उसके सामने ईवीएम मशीन है. हर संसदीय क्षेत्र की जनता अपने क्षेत्र की समस्याओं से वाकिफ है और अपने सांसदों के कामों से भी. इसलिए 2019 में जो सांसद जीते थे उनके काम भी जमीन पर नजर आते हैं. 2019 में भाजपा और शिवसेना ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़कर 41 सीटों पर जीत हासिल की थी. शरद पवार के नेतृत्व में एनसीपी ने 4 सीटें, कांग्रेस ने एक सीट और दो अन्य ने जीती थी. शिवसेना बंट गई तो शिंदे गुट के साथ 13 सांसद हो गए और उद्धव के पास 5 सांसद रह गए. शरद पवार को छोड़कर अजित गुट में सिर्फ एक ही सांसद गए हैं. इस बिखराव के बाद भाजपा अपने नए साथी शिंदे गुट और अजित गुट के साथ पुराने प्रर्दशन को दोहराना चाहती है. यह बहुत आसान नहीं है. राजनीतिक पंडितों की भी राय है कि उद्धव ठाकरे और शरद पवार के साथ उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों की सहानुभूति है जो भाजपा गठबंधन पर भारी पड़ सकती है. इसके अलावा क्षेत्रीय जनता भी अपने क्षेत्र के विकास के बारे में कुछ अलग सोच सकती है. पश्चिम महाराष्ट्र में भाजपा ने 5, शिवसेना ने 3 और एनसीपी ने 3 सीटें जीती थी. उत्तर महाराष्ट्र की 6 सीटों पर भाजपा-शिवसेना गठबंधन का कब्जा था. मराठवाड़ा में भाजपा ने 5, शिवसेना ने 3 और ओवैसी की पार्टी को एक सीट मिली थी. विदर्भ में 10 सीटों में से भाजपा ने 5, शिवसेना ने 3 और कांग्रेस एवं निर्दलीय ने एक-एक सीट जीती थी. कोंकण और मुंबई की 12 सीटों पर भाजपा-शिवसेना गठबंधन का दबदबा रहा है. लेकिन इन क्षेत्रों में समस्याओं का अंबार है. किसानों की आत्महत्या, सूखा, बेरोजगारी, मराठा आरक्षण और नक्सलवाद जैसे पारंपरिक मुद्दे अब भी पहले जैसे हैं. इन मुद्दों के सामने भाजपा गठबंधन ने हिंदुत्व का मुद्दा तैयार कर रखा है. लेकिन ऐसे मुद्दे मतदाताओं को किस तरह से प्रभावित करेंगे यह तो बाद में पता चलेगा. फिलहाल तो राहुल गांधी की शिवाजी पार्क की रैली के बाद भाजपा गठबंधन ने हिंदुत्व के नाम पर उद्धव ठाकरे को घेरना शुरू कर दिया है. क्योंकि, इस रैली में उद्धव ने हिंदुत्व की बात नहीं की. जबकि उनके पिता और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे हिंदुत्व के सबसे बड़े पैरोकार थे और इसलिए उन्हें हिंदूहृदय सम्राट कहा जाता था. अपने हिंदुत्ववादी विचारधारा को लेकर ही बाल ठाकरे शिवाजी पार्क से गर्जना करते थे. लेकिन राहुल के साथ शिवाजी पार्क की रैली को साझा करने से उद्धव अपने पिता की विचारधारा को भूल गए. यह भाजपा गठबंधन की ओर से प्रचारित किया जा रहा है. आज के चुनावी दौर में उद्धव के खिलाफ यह प्रचार भाजपा गठबंधन के लिए कितना लाभदायक होगा, यह 4 जून को पता चलेगा.

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