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कोयल कुहूक रही,तन को सुलगाई रही,
केतेकी की खुशबू तो मस्ती बढ़ाई रही,
खोपे में ‘कपोऊ’ लगा,बेचैनी बढ़ाई रही,
कमरिया टूट रही,बलखाई के मचल रही.
भाई बोहाग आई गवा, बिहू आई गवा,
ढो़ल पेंपा बाजन लागे,नाचोनी नाचन लागी.
ढ़ोलक की थाप पर,टोलीयां मचल रही,
बिहू के गान पर,’होरु हजाई’ सजी रहा.
पहिन के रेशमी कुर्ता, ‘कोका’लोगन भी,
‘आईता’ को संग ले, ढ़ोलक की ताल पर,
ताल पर ताली दे , दुनोंं पैरों को नचाईके,
कमरिया मटकाय के ,बिहू में नाचन लगे.
बिहू बिन कछु नाहीं ,हम लोगन के जीवन में,
दही -चीड़ा जो नहीं खाया हमने जलपान में,
खुशीयों के ठाठ है गर तिलपिठा हो साथ में,
गामुछा पिन्हा के मान की, रीत हमरे आसाम में.
मुरारी केडिया. ९४ ३५० ३३०६०.