प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के सातवें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो ।
पुञ्ञ पापपहीनस्स नत्थि जागरतो भयम् ।।७।।”
निजात्म स्नेही प्रिय मित्रों ! अब पुनः तथागतजी कहते हैं कि- “अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो” और इसे समझने हेतु मैं प्रथम आपको एक दृष्टाँत सुनाता हूँ, आप यह ध्यान रखियेगा कि-“दृष्टांत” का तात्पर्य अपने-“सिद्धांत की स्पष्टता करना होता है – रामकृष्ण परमहंसजी के एक उच्चतम् साधना रत शिष्य थे-“कालीचरण जी”वे भी एक महान सन्यासी हुवे हैं ! उनके अनेक शिष्य थे ! एक बार एक धनाढ्य के युवा पुत्र- “शीतला चट्टोपाध्यायजी” उनके पास आकर बोले कि गुरूजी आप मुझे दिक्षा दे दो !
तो कालीबाबू बोले कि यदि दिक्षा लेनी है तो उच्चतम् शक्तियों को ! विद्याओं को प्राप्त करो तथा योग्य पात्र बनकर तब आना पड़ेगा ! और अब तो शीतला जी लग गये विद्याओं को प्राप्त करने में ! शस्त्र-निर्माण,संचलन,मल्ल,भौति
वे बोले कि गुरुदेव ! आप किसी भी विद्या के निष्णात से मेरी प्रतिस्पर्धा कराकर मेरी पात्रता का अब निश्चय कर लें ! प्रिय मित्रों ! दूसरे दिन कालीबाबू ने अपने एक शिष्य को उनके पास भेजा-और वो शिष्य जाकर अकारण ही शीतलाजी को गालियाँ देने लगा ! कुछ देर तक तो उन्होंने सहन किया परन्तु फिर शीतलाजी ने उठाया डँडा और दौड़ा लिया उनको ! बिच्चारा किसी तरह से पिट-पिटाकर लौटकर आ गया।
उन दिनों में दतिया नरेश के दीवान-“दिवाकर-बिश्नोई जी “कालीबाबू के शिष्य थे ! दूसरे दिन दीवान साहेब का एक सिपाही शीतलाजी के पास जाकर बोला कि दीवान साहब अपना पद भार छोड़कर सन्यास लेना चाहते हैं ! और वे आपको रियासत का दीवान नियुक्त करना चाहते हैं ! क्या आप सहमत हैं ?
हाँ ! हाँ ! बिल्कुल ! मैं एकदम सहमत हूँ-तुरंन्त ही बोल पड़े “शीतलाबाबू ! अब पुनः उसी शामको एक अत्यंत ही कमनीय, सुकुमारी, सुँदर,नवयौवना षोडसी बालिका के साथ स्वयम् कालीबाबू शीतलाजी के घर पहुँच गये ! अब क्या हुवा कि जिन गुरुदेवकी एक आज्ञा के पालन हेतु शीतलाजीने अपने चौदह वर्ष लगा दिये थे ! वही काली प्रसादजी उनके घर पधारे ! किंतु– “शीतला प्रसाद उस नवयौवना की सुँदर आकृति-देह यष्टि से अपनी दृष्टि चाहकर भी नहीं हटा पा रहे थे।
“अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो” हाँ मित्रों ! “आस्त्रवो दोष” इन काम,क्रोध और लोभ को ही कहते हैं ! तभी तो मेरे श्रीकृष्ण जी नें मुझे सावधान करते हुवे गीताजी•१६•२१•में कहा कि-
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभतस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्।।”
ये काम-वासना,क्रोध तथा लोलुपता नर्क के साक्षात् द्वार हैं !
अतः-“पुञ्ञ पापपहीनस्स नत्थि जागरतो भयम्”
आप श्रेष्ठ विद्याओं को तो प्राप्त करें ! अथवा न भी करें ! इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता ! किंतु यदि मैं अपनी वासनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाता ! जबतक मुझे अपनी निंदा सुनने पर क्रोध आता है ! जबतक मैं अपनी लोलुपता पर विजय प्राप्त न कर लूँ ! तब तक इन नर्कों के द्वार में मैं जाऊँगा ही।
इन-“नर्कद्वारोंसे मुक्तिका एकमात्र उपाय है निष्कामकर्म” मित्रों ! आप-जैसे जो बुद्ध पुरुष होते हैं,वे निरंतर अप्रमाद-पूर्वक इन महान शत्रुओं के आक्रमण के प्रति जागते रहते हैं,सावधान रहते हैं ! आप जैसे लोग ऋद्धि-सिद्धियों की स्वप्न में भी कामना नहीं करते ! पुरुषार्थ इन विद्याओं की,धन,वैभव,पद, प्रतिष्ठा,मठ, आश्रमों,सुँदर-पुरुषों,सुँदरियों
मित्रों ! साधना पथ पर जो चलते दिखते हैं वास्तविक रूप से उन्होंने जो त्याग किया वही उनकी साधना का स्रोत है- “पुत्रेक्षणा,वित्तेक्षणा,कामे
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- Admin
- May 13, 2024
- 12:14 pm
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धम्मपद्द चित्तवग्गो~सूत्र- ७ अंक~४२– आनंद शास्त्री
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