चुनाव के दौरान पक्ष और विपक्ष द्वारा विजय एवं सीटों के आंकड़ों को लेकर अपने अनुसार दावा किया जाना अस्वाभाविक नहीं है। ऐसा ही इस चुनाव के दौरान हो रहा है। नेताओं और पार्टियों के दावों से आम मतदाता एक सीमा तक प्रभावित होते हैं। इसलिए तथ्यों ,आंकड़ों तथा चुनाव के माहौल के आधार पर इनका विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। मतदान जब धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है हमारे सामने अलग-अलग दावे आ गए हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा है कि उन्हें 79 सीटें प्राप्त हो रही है। राहुल गांधी कह रहे हैं कि 4 जून के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे और भाजपा की सिटें डेढ़ सौ तक सिमट जाएंगी। ममता बनर्जी ने भाजपा को 200 से 220 सीटों तक सिमटा दिया है। अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं सरकार आईएनडीआईए की बनेगी क्योंकि भाजपा की सिटें उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ , कर्नाटक, महाराष्ट्र, झारखंड सब जगह घट रही है। इतने राज्यों में अगर भाजपा की सीटें काफी संख्या में घट जाए तो वाकई उसका सरकार बनना मुश्किल होगा। क्या वाकई अब तक के हुए मतदान , उसके वातावरण , पिछले आंकड़े आदि को आधार बनाकर इस तरह का निष्कर्ष निकाला जा सकता है?
सबसे पहले उत्तर प्रदेश को ही देखें। सपा को सबसे ज्यादा 2004 में 35 सीटें मिली थीं। तब उसे 26.74 प्रतिशत वोट मिला था। न उसके पहले न उसके बाद कभी वह यह प्रदर्शन दोहरा सकी। उस समय बसपा 24. 6 7 प्रतिशत मत पाकर 19 सीटें जीती , जबकि भाजपा 22.5 प्रतिशत के साथ 10 सीटों पर सिमट गई। वह समय उत्तर प्रदेश में विखंडित राजनीति का था। तब सपा, बसपा और भाजपा मुख्य शक्ति थी और कांग्रेस हाशिये।1993 से उप्र राजनीतिक अस्थिरता और बहुमतविहीनता के दौर से गुजर रहा था जो 2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा को बहुमत मिलने के साथ समाप्त हुई। तब से अब तक प्रदेश की जनता एक पार्टी को बहुमत देने के लिए मतदान कर रही है। सन 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी मतों का ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में हुआ तब उसे 32.06 प्रतिशत मध्य एवं 111 सिटें प्राप्त हुई। 2019 लोकसभा चुनाव में सपा बसपा के साथ मिलकर लड़ी तब भी भाजपा ने 49.6 प्रतिशत मत और 62 सीटें प्राप्त किया। सपा को 18.11 प्रतिशत मत एवं पांच सीट और बसपा को 19.4 3 प्रतिशत मत एवं 10 सीटें मिली। कांग्रेस 6.36 प्रतिशत मत के साथ एक सीट तक सिमट गई थी। प्रश्न है कि जब पहले उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ तो आज क्या बदल गया है कि भाजपा को लोग पूरी तरह ध्वस्त कर देंगे और उनकी जगह सपा और कांग्रेस के गठबंधन को सिर पर उठा लेंगे ?
कांग्रेस इस समय उत्तर प्रदेश में व्यवहार में प्रभावहीन पार्टी है। विधानसभा चुनाव में उसे केवल दो प्रतिशत से थोड़ा अधिक वोट मिला था। भाजपा को जिन कारणों से विधानसभा चुनाव एवं लोकसभा में वोट मिलते रहे हैं वो कारण क्या खत्म हो गए? लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नेतृत्व और विधानसभा में योगी आदित्यनाथ का नेतृत्व, फिर हिंदुत्व, कानून और व्यवस्था, विकास, समाज के निचले तबके तक सरकारी कल्याण कार्यक्रमों का लाभ पहुंचाना आदि प्रमुख कारण रहे हैं। यह कारण आज भी विद्यमान हैं। दूसरी ओर सपा ने प्रदेश में ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे प्रदेश के बहुमत को लगे कि राष्ट्रीय राजनीति और सत्ता का दायित्व ही उन्हें ही सौंपना चाहिए। इसके उलट माफियाओं की मृत्यु पर पूरे सपा का रवैये से जनता के बड़े वर्ग का निष्कर्ष यही है की योगी आदित्यनाथ है अपराधियों माफियाओं और गुंडो के विरुद्ध कार्रवाई कर सकते हैं सपा या अन्य दल नहीं। इसलिए इस दावे को कोई भी व्यावहारिक और विवेकशील व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता। अगर इसी पहलू को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तारित करें तो मूल प्रश्न यही उठेगा कि जिन कारणों और सामूहिक मनोविज्ञान के तहत देश के लोगों ने 2014 में स्थापित राजनीतिक नेताओं और शक्तियों को उखाड़ कर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को बहुमत दिया क्या वे कारण और उसे तरह के मनोविज्ञान खत्म हो गए? निस्संदेह , 10 वर्षों के शासन के बाद घनघोर समर्थकों, उत्साही कार्यकर्ताओं – नेताओं के अंदर भी कई प्रकार का असंतोष , निराशा और उदासीनता आती है। क्षेत्र के सांसद अगर लगातार चुनाव लड़ रहे हैं और उनका प्रदर्शन लोगों की उम्मीद के अनुरूप नहीं हो, जिन विचारधारा के आधार पर समर्थन मिला उसके प्रतिरूप वे नहीं दिखते हैं तो उससे भी असंतोष और क्षोभ पैदा होता हैं।
2014 में भाजपा को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जनता का नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों प्रकार का मत मिला था। तत्कालीन शासन, उत्तर, पश्चिम और पूरब के राज्यों की पार्टियों, नेताओं की राजनीति और सत्ता के विरुद्ध लोगों का विद्रोह था तो विचारधारा व व्यवहार के आधार पर मोदी एवं भाजपा को व्यापक समर्थन। आप देखेंगे कि यूपीए सरकार के दौरान राष्ट्रीय एवं प्रदेशों के स्तर पर सरकारों के निराशाजनक प्रदर्शनों नेताओं के अस्वीकार्य व्यवहारों, अतिवादी अल्पसंख्यकवाद, सेक्युलरवाद के नाम पर अलग प्रकार का कट्टरवाद,आतंकवादी हमले का उचित उत्तर न दिया जाना, विदेश नीति पर भारत की कमजोरी, अर्थ के क्षेत्र में निराशाजनक प्रदर्शनों आदि के साथ हिंदुत्व, हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्र चेतना तथा नरेंद्र मोदी के एक नेता के रूप में गुजरात में प्रदर्शन और उनका व्यक्तित्व लोगों के लिए आकर्षण का कारण बना। 2019 में मतदाताओं की सोच ज्यादा सशक्त हुई और परिणामस्वरूप भाजपा को ज्यादा सीटें मिलीं । 2024 में वे सारे कारण खत्म नहीं हुए हैं। विपक्षी पार्टियां नए सिरे से अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा दे रही है। साथ ही उनके पास एक देश के रूप में भारत के विकास, इसकी सुरक्षा, विदेश नीति को लेकर दूरगामी लंबी विचारधारा और नीति सामने नहीं है। हिंदुत्व और हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रवाद की विचारधारा पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र और भाजपा की प्रदेश सरकारों ने काफी काम किया है। इसलिए उम्मीदवारों , गठबंधन के साथियों के साथ-साथ कार्यकर्ताओं -नेताओं की अभिप्सायें पूरी होने के मामले में कमजोर होते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि राष्ट्रव्यापी स्तर पर इसके समानांतर दूसरे विकल्प के हाथों देश सौंपने का निर्णय मतदाता करेंगे। एक दो राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन कमजोर हो सकता है किंतु कुछ राज्यों पश्चिम बंगाल , उड़ीसा और तेलंगाना में भाजपा का प्रदर्शन काफी बेहतर हो सकता है।
विरोधी पार्टियां भाजपा के लिए तो बता रही हैं कि उन्हें बहुमत से कम सीटें मिलेंगी लेकिन वो कितनी सीटें प्राप्त करेंगे यह कोई नहीं बता रहा। सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को ही लीजिए। 2014 और 2019 के चुनावों में उसे 19 और 20 प्रतिशत के बीच वोट मिले थे। 2023 के विधानसभा चुनावों में कर्नाटक और हिमाचल में उसे सफलता मिली लेकिन गुजरात ,राजस्थान , मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा जैसे राज्यों में वह बुरी तरह विफल रही है। उसका वोट प्रतिशत और सीट अचानक किस आधार पर इतना बढ़ जाएगा कि वह भाजपा के निकट पहुंच जाएगी? दक्षिण के तीन राज्यों केरल, तेलंगाना और कर्नाटक में उसे कितनी सीटें मिले मिल सकती है जिससे यह मान लिया जाए कि कांग्रेस 150 या उससे ज्यादा स्थान प्राप्त कर लेगी? केरल में उसे पहले ही सर्वाधिक 15 और गठबंधन को 19 सीटें प्राप्त है। कर्नाटक में भाजपा अभी भी एक बड़ी शक्ति है और कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के रहते उसे पूरी तरह पराजित करना संभव नहीं दिखता। दिल्ली की ओर लौटे तो विधानसभा चुनावों में जबरदस्त प्रदर्शन करने के बावजूद अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आप मतों के मामले में कभी भी भाजपा के आसपास नहीं पहुंच सकी। कांग्रेस22.51 प्रतिशत और आप 18.11 प्रतिशत मत मिलाकर भी पिछले चुनाव में भाजपा के 56.86 प्रतिशत से काफी कम है। अरविंद के केजरीवाल को प्रचार के लिए जेल से अंतरिम जमानत मिलने के बाद उनके उम्मीदवारों, नेताओं, कार्यकर्ताओं में थोड़ा उत्साह है किंतु इसका चुनाव पर व्यापक असर पड़ेगा और वह भी स्वाति मालीवाल के विरुद्ध मुख्यमंत्री आवास पर हिंसा के बाद ऐसी कल्पना आसानी से नहीं की जा सकती। बिहार में वर्तमान गठबंधन 2019 में भी था लेकिन राजग ने 39 सीटें प्राप्त की। नीतीश कुमार की वापसी को भाजपा, उसके समर्थकों ,कार्यकर्ताओं और राजग के मतदाताओं ने बहुत सकारात्मक रूप से नहीं लिया है। बावजूद वो प्रतिशोध के भाव में आकर राजद, कांग्रेस व अन्य दलों के गठबंधन के लिए भारी संख्या में मतदान करेंगे ऐसे भी जमीनी हालात नजर नहीं आते। राष्ट्रीय स्तर पर लगभग तीन प्रतिशत कम मतदान एवं कई राज्यों गुजरात मध्य प्रदेश आदि में मतदान में भारी गिरावट अवश्य हुई है पर अभी तक चुनाव में ऐसी प्रवृत्तियां नहीं दिखी हैं जिनके आधार पर निष्कर्ष निकाल दिया जाए की आम जनता गुस्से में नरेंद्र मोदी भाजपा और राजग के विरुद्ध तथा आईएनडीआईए के पक्ष में एकमुश्त मतदान कर रही है।
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