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विनायक दामोदर सावरकर का जन्म ग्राम भगूर (जिला नासिक, महाराष्ट्र) में 28 मई, 1883 को हुआ था। छात्र जीवन में इन पर लोकमान्य तिलक के समाचार पत्र ‘केसरी’ का बहुत प्रभाव पड़ा। इन्होंने भी अपने जीवन का लक्ष्य देश की स्वतन्त्रता को बना लिया। 1905 में उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन चलाया। जब तीनों चाफेकर बन्धुओं को फाँसी हुई, तो इन्होंने एक मार्मिक कविता लिखी। फिर रात में उसे पढ़कर ये स्वयं ही हिचकियाँ लेकर रोने लगे। इस पर इनके पिताजी ने उठकर इन्हें चुप कराया।
सावरकर जी सशस्त्र क्रान्ति के पक्षधर थे। उनकी इच्छा विदेश जाकर वहाँ से शस्त्र भारत भेजने की थी। अतः वे श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्ति लेकर ब्रिटेन चले गये। लन्दन का ‘इंडिया हाउस’ उनकी गतिविधियों का केन्द्र था। वहाँ रहने वाले अनेक छात्रों को उन्होंने क्रान्ति के लिए प्रेरित किया। कर्जन वायली को मारने वाले मदनलाल धींगरा उनमें से एक थे।
उनकी गतिविधियाँ देखकर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें 13 मार्च, 1910 को पकड़ लिया। उन पर भारत में भी अनेक मुकदमे चल रहे थे, अतः उन्हें मोरिया नामक जलयान से भारत लाया जाने लगा। 10 जुलाई, 1910 को जब वह फ्रान्स के मोर्सेल्स बन्दरगाह पर खड़ा था, तो वे शौच के बहाने शौचालय में गये और वहां से समुद्र में कूदकर तैरते हुए तट पर पहुँच गये।
तट पर उन्होंने स्वयं को फ्रान्सीसी पुलिसकर्मी के हवाले कर दिया। उनका पीछा कर रहे अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें फ्रान्सीसी पुलिस से ले लिया। यह अन्तरराष्ट्रीय विधि के विपरीत था। इसलिए यह मुकदमा हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय तक पहुँचा; जहाँ उन्हें अंग्रेज शासन के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने तथा शस्त्र भारत भेजने के अपराध में आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी।
सावरकर जी ने ब्रिटिश अभिलेखागारों का गहन अध्ययन कर ‘1857 का स्वाधीनता संग्राम’ नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। फिर इसे गुप्त रूप से छपने के लिए भारत भेजा गया। ब्रिटिश शासन इस ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन की सूचना से ही थर्रा गया। विश्व इतिहास में यह एकमात्र ग्रन्थ था, जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबन्धित कर दिया गया।
प्रकाशक ने इसे गुप्त रूप से पेरिस भेजा। वहाँ भी ब्रिटिश गुप्तचर विभाग ने इसे छपने नहीं दिया। अन्ततः 1909 में हालैण्ड से यह प्रकाशित हुआ। यह आज भी 1857 के स्वाधीनता समर का सर्वाधिक विश्वसनीय ग्रन्थ है।
1911 में उन्हें एक और आजन्म कारावास की सजा सुनाकर कालेपानी भेज दिया गया। इस प्रकार उन्हें दो जन्मों का कारावास मिला। वहाँ इनके बड़े भाई गणेश सावरकर भी बन्द थे। जेल में इन पर घोर अत्याचार किये गये। कोल्हू में जुतकर तेल निकालना, नारियल कूटना, कोड़ों की मार, भूखे-प्यासे रखना, कई दिन तक लगातार खड़े रखना, हथकड़ी और बेड़ी में जकड़ना जैसी यातनाएँ इन्हें हर दिन ही झेलनी पड़ती थीं।
1921 में उन्हें अन्दमान से रत्नागिरी भेजा गया। 1937 में वे वहाँ से भी मुक्त कर दिये गये; पर सुभाषचन्द्र बोस के साथ मिलकर वे क्रान्ति की योजना में लगे रहे। 1947 में स्वतन्त्रता के बाद उन्हें गांधी हत्या के झूठे मुकदमे में फँसाया गया; पर वे निर्दोष सिद्ध हुए। वे राजनीति के हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं के सैनिकीकरण के प्रबल पक्षधर थे। स्वास्थ्य बहुत बिगड़ जाने पर वीर सावरकर ने प्रायोपवेशन द्वारा 26 फरवरी, 1966 को देह त्याग दी।