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। चैत्र पूर्णिमा पर विशेष । “हनुमान जन्मोत्सव ” की कहानी- फौजदार तिवारी

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“महर्षि वाल्मिकी” द्वारा रचित “वाल्मिकी रामायण” के अनुसार “हनुमान” जी का “जन्म” कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को “मंगलवार” के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हुआ था जो कि दिपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली “नरक चतुर्दशी” या “रूप चतुर्दशी” के दिन आता है। इस प्रकार से “हनुमान” जी के जन्म के संदर्भ में दो अलग दिन होने की वजह से ही “हनुमान जन्मोत्सव ” भी वर्ष में दो बार मनाई जाती है।
चैत्र माह की “पूर्णिमा” को मनाई जाने वाली “हनुमान जन्मोत्सव ” की कहानी →
एक दिन सुबह जब “केसरीनन्दन” प्रात:काल अपनी निन्द्रा से जागे तो उन्हें बहुत तेज भूख लगी। उन्होंने माता “अंजना” को आवाज लगाई तो पता चला कि माता भी घर में नही हैं। इसलिए वह स्वयं ही खाने के लिए कुछ तलाश करने लगे परन्तु उन्हें कुछ भी नही मिला।
इतने में उन्होने एक झरोखे से देखा तो सूर्योदय हो रहा था और जब सूर्य उदय होता है तो वह एक दम लाल दिखाई देता है। “केसरीनन्दन” उस समय बहुत छोटे थे, इसलिए उन्हें लगा कि उदय होता लाल रंग का सूर्य कोई स्वादिष्ट फल है। सो वे उसे ही खाने चल दिए।
केसरी नन्दन की इस बाल लीला को देख सभी देवी देवता हक्के-बक्के हो काफी चिन्तित हो गए क्योंकि सूर्यदेव ही सम्पूर्ण धरती के जीवनदाता है। जबकि पवनदेव ने “केसरीनन्दन” को सूर्यदेव की तरफ जाते देखा, तो वे भी उनके पीछे भागे जिससे कि वे सूर्यदेव के तेज से “केसरीनन्दन “को होने वाली किसी भी प्रकार की हानि से बचा सकें।
मान्यता ये है कि ग्रहण के समय राहू नाम का राक्षस सूर्य को ग्रसता है लेकिन जब राहु ने “पवनपुत”्र को सूर्य की ओर बढते देखा तो वह इन्द्र देव के पास भागा और इन्द्र को कहा कि- आप ने तो ग्रहण के समय सिर्फ मुझे ही सूर्य को ग्रसने का वरदान दिया था। तो फिर आज कोई दूसरा सूर्य को क्यों ग्रसने में लगा हुआ है।
इन्द्र ने यह सुना तो वह सूर्य के पास गये और देखा कि “केसरीनन्दन” सूर्य को अपने मुख में रखने जा ही रहे है। जब इन्द्र ने उन्हें रोका तो “हनुमान” जी उन्हें भी खाने चल पडे क्योंकि वे इतने भूखे थे कि उन्हें जो भी सामने दिखाई दे रहा था, वे उसे ही खाने पर उतारू थे। सो जब वे इन्द्र की तरफ बढे, तो इन्द्र देव ने अपने वज्र से “केसरीनन्दन” पर प्रहार कर दिया, जिससे “केसरीनन्दन” मुर्छित हो गए।
अपने पुत्र पर इन्द्र के वज्र प्रहार को देख “पवनदेव” को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने अपने पुत्र को उठाया और एक गुफा में लेकर चले गए तथा क्राेध के कारण उन्होंने पृथ्वी पर वायु प्रवाह को रोक दिया, जिससे पृथ्वी के सभी जीवों को सांस लेने में कठिनाई होने लगी और वे धीरे-धीरे मरने लगे।
यह सब देखकर इन्द्रदेव भगवान ब्रह्मा के पास गए और उन्हें सारी समस्या बताई। ब्रह्मा और सभी देवतागण पवनदेव के पास पहुँचे व ब्रह्मा जी ने “केसरीनन्दन” की मुर्छा अवस्था को समाप्त किया तथा सभी देवता गणों को “केसरीनन्दन” के जन्म के उद्देश्य के बारे में बताया व कहा कि- सभी देवतागण अपनी शक्ति का कुछ अंश “केसरीनन्दन” को दें, जिससे आने वाले समय में वह राक्षसों का वद्ध कर सके।
सभी ने अपनी शक्ति का कुछ अंश “केसरीनन्दन” को दिया जिससे वे और अधिक शक्तिशाली हो गए। उसी समय इन्द्र ने पवनदेव से अपने द्वारा की गई गलती के लिये क्षमा मांगी और कहा-
मेरे वज्र के प्रकोप से इस बालक की ठोड़ी टेढ़ी हो गई है। अत: मैं इसे यह आशीर्वाद देता हूँ कि यह पूरे विश्व में हनु (ठोड़ी) मान के नाम से प्रख्यात होगा। और इस तरह से “केसरीनन्दन” का नाम “हनुमान” पड़ा।
विशेष → “हनुमान” जी के पुनः जन्म के इस दिवस को हम चैत्र माह की पूर्णिमा “हनुमान जन्मोत्सव ” के रूप मे मनाते है।
फौजदार तिवारी: हनुमान जन्मोत्सव पर हनुमान जी की महिमा वर्णन
श्रीकृष्ण भगवान द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे, निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे हुए थे। तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था।बातो ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से
पूछा कि,”हे प्रभु, आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?”
द्वारकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का अभिमान हो गया है। तभी गरुड़ ने कहा कि, “भगवान! क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है? इधर सुदर्शन चक्र से भी रहा नहीं गया और वह भी कह उठे कि, “भगवान! मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है?”भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को, ‘अहंकार’, हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है।ऐसा सोचकर उन्होंने गरुड़ से कहा कि,हे गरुड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
गरुड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए। इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि,देवी! आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं”और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया। मधुसूदन ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि, “तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो। और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न करे।” भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए।
गरुड़ ने हनुमान के पास पहुंच कर कहा कि,हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप मेरे साथ चलें। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।”
हनुमान ने विनयपूर्वक गरुड़ से कहा,आप चलिए, मैं आता हूं।”
गरुड़ ने सोचा, “पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मैं भगवान के पास चलता हूं।” यह सोचकर गरुड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़े। पर यह क्या, महल में पहुंचकर गरुड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम ने हनुमान से कहा कि,पवन पुत्र! तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?”हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के सामने रख दिया।हनुमान ने कहा कि,
“प्रभु! आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था, इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें।”भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे। हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया, “हे प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।”
अब रानी सत्यभामा के अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था।रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरुड़, तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। वे भगवान की लीला समझ रहे थे।तीनों की आंख से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए। अद्भुत लीला है प्रभु की। अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त द्वारा ही दूर किया।

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