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व्यंग बजट में कविताओं और शेरों-शायरी की बाइट !— सुनील कुमार महला

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जीवन में हरेक आदमी हमेशा ‘बजट’ को लेकर चिंतित नजर आता है। बजट मतलब-‘आय-व्यय पत्र।’
अजी ! आदमी इस ‘आय-व्यय पत्र’ के बारे में चिंतित हो भी तो क्यों नहीं हो ? आखिर जीवन चलाने के लिए पैसा जो बहुत जरूरी है। बजट का जुगाड़ हर व्यक्ति को अपने जीवन में करना पड़ता है, अन्यथा बजट का गणित गड़बड़ा जाता है। वास्तव में पैसे और बजट में सीधा संबंध पाया जाता है। वैसे , पैसा भगवान तो नहीं है लेकिन भगवान कसम भगवान से कम भी नहीं है। इसलिए आदमी द्वारा बजट की चिंता एकदम जायज है। हर कहीं इन दिनों बजट को लेकर अनेक चर्चाएं हो रही हैं। बजट पेश होने वाला जो है। वैसे बजट में कुछ और हो न हो, आजकल बजट में शेरों-शायरी, कविताएं खूब पढ़ी जाती हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आजकल बजट ‘शायराना’ हो चला है। यह वक्त का तकाजा है जी और कुछ भी नहीं। वैसे तकाजे के नाम से याद आया कि आज से बीस-बाइस साल पहले बजट के दौरान क्या जानदार शानदार शेरों-शायरी पढ़ी गई थी -‘ तकाजा है वक्त का की तूफान से जूझो, कहां तक चलोगे किनारे किनारे।’ सच तो यह है कि आज कोई भी बजट में किनारे किनारे नहीं चलना चाहता। सीधे ही कविताओं और शेरों-शायरी में डूब जाता है। शेरों-शायरी और कविताएं बजट में न हों तो बजट ऐसे लगता है जैसे कोई खाना खाने को बैठा है और रोटी और चावल तो उपलब्ध हैं लेकिन सब्जी या दाल नहीं है। कविताओं व शेरों-शायरी बिना बजट, बिना दाल-सब्जी का सा बजट लगता है। देखा जाए तो आजकल शेरों-शायरी और कविताएं तो बजट में गरम मसाला हो गया है, जो कि श्रोताओं/आमजन को अवश्य ही चाहिए होता है। हमारे खासमखास रामलुभाया जी कहते हैं कि दरअसल कविताओं और शेरों-शायरी के अलावा बजट में आम आदमी के लिए होता ही क्या है ? इसलिए कविताओं और शेरों-शायरी का जूस पीओ और बरसों तक जीओ। खैर, जो है सो है। वैसे एक बात बताऊं शेरों-शायरी, कविताओं से बजट की अदाएं ही बदल जाती हैं। अदाएं सिर्फ और सिर्फ हिरोइनों में ही नहीं होतीं, आजकल बजट में होने लगीं हैं। अजी ! बजट से आम आदमी अनेक मासूम उम्मीदें करता है। सच तो यह है कि आजकल आदमी बजट से नहीं, बजट के दौरान पढ़ी जाने वाली कविताओं और शेरों-शायरी से ही उम्मीद करता है। लय कैसी होगी ? ताल कैसी होगी ? बड़ा सस्पेंस बना रहता है जी। आजकल बजट नहीं, बजट में प्रस्तुत शेरों-शायरी और कविताएं ही आदमी को मोटिवेट करतीं हैं। रामलुभाया जी तो यहां तक कहते हैं कि कविताएं व शेरों-शायरी ही नहीं ,बजट में गाने-साने भी बजने चाहिए। हो सके तो ढ़ोल-नगाड़ों पर भी ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। अजी ! आंकड़ों की बाजीगरी से दूर,  बजट में मीडिया में छपने का जुगाड़ केवल और केवल कविताओं, शेरों-शायरी और संगीत से ही संभव हो सकता है। कविताओं, शेरों-शायरी और संगीत का बजट में आविर्भाव करके मुंह फुलाओ और वाह-वाही पाओ। बजट में कंजूसी करो, लेकिन कविताओं और शेरों-शायरी में बिल्कुल नहीं। मीडिया को मिले बाइट, बजट में कविताओं और शेरों-शायरी में हाथ न हो टाइट। बजट में न हो रोटी, सड़क, बिजली-पानी, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य, आम आदमी का हित और इंफ्रास्ट्रक्चर की बातें। अजी !कविताओं और शेरों-शायरी से बजट को गुलज़ार कीजिए और बजट की बोरियत को दूर कीजिए। अजी ! संगीत और कविताओं तथा शेरों-शायरी से मन को खुश रखना ही असली जीवन है। शेष तो सब व्यर्थ है। अजी ! कविताओं और शेरों-शायरी बिना बजट का न कोई अर्थ है। बजट में कविता, शेरों-शायरी प्रोत्साहन योजना चलाओ और बजट को आकर्षक व चटक बनाओ। कविताओं और शेरों-शायरी से दर्शकों का ध्यान तुम खींचों। बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, स्वास्थ्य को म्यान में डालकर भींचो। इन सब को म्यान में दबा दो। दो चार जानदार शानदार कविताएं, शेरों शायरी सुनाकर सदन को तुम हिला दो। वैसे भी बजट का उन लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ता जिनके पास पैसे हैं और उन पर भी नहीं जिनके पास पैसे नहीं हैं। शेरों-शायरी और कविताएं सुनाकर श्रोताओं/आमजन का पेट भरो। खाद्य समस्या तो चंद मिनटों में ही हल हो जाएगी और ग़रीबी तो यूं ही मिट जाएगी। सुना है कि जानदार शानदार शेरों-शायरी और कविताएं सुनने से स्वास्थ्य तो वैसे ही ठीक रहता है। हमने सुना है कि गीत संगीत, कविताओं-सविताओं में बड़ा जादू होता है। अजी ! आदमी तो यूं ही बजट का रोना रोता है। तो आइए बजट के बारे में फिल्म ‘उरी’ की तर्ज पर हम भी ‘हाउ इज द जोश’ पर कविताएं और शेरों-शायरी सुनकर दिल को ‘हूम-हूम’ करने की बजाय यह कहें कि ‘जोश इज हाई सर !’ कहें । अजी ! आप भी बजट आने पर बजट की यूं ही निंदा न कीजिए, आप तो बस महंगाई, बेरोजगारी को छोड़कर कविताओं और शेरों-शायरी का मज़ा लीजिए। जय राम जी की।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।

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