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बराक वैली चाय श्रमिकों की दुर्दशा: एक विस्तृत दृष्टि The plight of Barak Valley tea workers: A detailed look- शिव कुमार पासवान

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बराक वैली, असम में स्थित, अपने चाय बगानों के लिए प्रसिद्ध है। चाय बगान श्रमिकों की दुर्दशा का एक लंबा इतिहास है, जो आजादी से पहले और बाद दोनों समयों में जारी है। इस क्षेत्र के श्रमिकों की समस्याओं और उनके जीवन स्तर में सुधार के प्रयासों पर एक संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है:
 प्रारंभिक इतिहास:
ब्रिटिश शासनकाल: 19वीं सदी में ब्रिटिश शासन के दौरान, चाय बगानों की स्थापना की गई। श्रमिकों को मुख्यतः बिहार, युपी, उड़ीसा, और मध्य प्रदेश से लाया गया। उन्हें बहुत कम वेतन अत्यधिक काम के घंटे और कठोर परिस्थितियों में काम करना पड़ता था। समाजिक और आर्थिक स्थिति: उन दिनों श्रमिकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं।
आजादी के बाद: संविधान में सुरक्षा:1950 में भारतीय संविधान लागू होने के बाद, श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए। लेकिन इनका कार्यान्वयन प्रभावी नहीं था।
योजना और नीतियां: सरकार ने चाय बगान श्रमिकों के उत्थान के लिए कई योजनाएं शुरू कीं, जैसे कि न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948; श्रम कल्याण निधि अधिनियम, 1966; और श्रम सुधार नीतियां।
 वर्तमान स्थिति:कम वेतन और अनियमित रोजगार आज भी चाय बगान श्रमिकों को न्यूनतम वेतन नहीं मिलता है, और उनकी रोजगार स्थिति अनिश्चित है।
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी,बगानों में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की गंभीर कमी है। बच्चों की शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है, और स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच नहीं है। आवास और स्वच्छता: आवास की स्थिति बहुत खराब है, और स्वच्छता की स्थिति चिंताजनक है।
 कारण: नीतियों का कमजोर कार्यान्वयन: सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन नहीं हो पाता है।
श्रमिक संघों की कमजोरी: श्रमिक संघ कमजोर हैं और उनमें प्रभावशाली नेतृत्व की कमी है, जो श्रमिकों के अधिकारों के लिए मजबूती से लड़ सके।
शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन: श्रमिकों का शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन उनकी स्थिति को सुधारने में बड़ी बाधा है।
राजनीतिक प्रभाव और विफलता:
बराक वैली के चाय बगान से कई नेता, विधायक और मंत्री बने हैं। उनके पास शक्ति और संसाधन थे, जो श्रमिकों की स्थिति सुधारने के लिए उपयोग किए जा सकते थे। लेकिन “जो लंका में गया वही रावण बन गया” कहावत यहाँ सटीक बैठती है। जब ये नेता सत्ता में आए, तो उन्होंने अपनी निजी और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को प्राथमिकता दी, और श्रमिकों की स्थिति को नजरअंदाज कर दिया।
दिलीप कुमार का योगदान:
बराक वैली के चाय बगानों में सुधार के लिए दिलीप कुमार का योगदान उल्लेखनीय है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता के रूप में, उन्होंने पैदल और साइकिल लेकर बगानों का दौरा किया और **एकल विद्यालय** के माध्यम से चाय श्रमिकों के बच्चों को शिक्षित किया। उन्होंने लगभग 25 से 30 साल तक निस्वार्थ सेवा की और वर्तमान में भी इस दिशा में कार्यरत हैं। उनके प्रयासों के कारण शिलचर से एक दैनिक हिंदी पत्रिका प्रकाशित हो रही है, जो चाय श्रमिकों और हिंदी भाषियों की आवाज बन चुकी है।
 वर्तमान चुनौतियां:
हालांकि दिलीप कुमार के प्रयासों से महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं, फिर भी स्थानीय तथाकथित नेताओं द्वारा उनकी पहल को बाधित करने के प्रयास जारी हैं। ये नेता अपने निजी स्वार्थ और राजनीतिक लाभ के लिए इस पत्रिका को बंद करवाने की कोशिश कर रहे हैं, जो चाय श्रमिकों की आवाज बनी हुई है।
 भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव:
भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद चाय बागान वासियों को मुफ्त में बिजली कनेक्शन और गैस कनेक्शन जैसी सुविधाएं तो मिलीं, लेकिन बिजली और गैस के बिल चुकाने के लिए उनके पास पर्याप्त धन नहीं है। कई चाय बगानों में मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता, सड़के खराब हैं, और अगर किसी की तबियत अचानक खराब हो जाए तो एंबुलेंस भी नहीं पहुंच पाती।
 दिलीप कुमार का राजनीतिक कदम:
इन मुद्दों को लेकर दिलीप कुमार ने 2024 के लोकसभा चुनाव में करीमगंज लोकसभा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने का एलान किया। हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिली, लेकिन उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे अपने स्वार्थ के लिए नेताओं के दलाल नहीं हैं। सत्ता के कुछ चमचों ने दिलीप कुमार के खिलाफ जनता को भ्रमित करने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाए, लेकिन उन्होंने श्रमिकों की आवाज को दिल्ली तक पहुंचाने के अपने प्रयासों को नहीं छोड़ा।
 निष्कर्ष:
चाय बगान श्रमिकों की दुर्दशा एक जटिल समस्या है, जिसे केवल सरकारी योजनाओं के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज, सरकार, और निजी क्षेत्र के संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, वेतन वृद्धि, और श्रमिक संघों की मजबूती इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं। साथ ही, राजनेताओं की जवाबदेही और नैतिक जिम्मेदारी भी सुनिश्चित करनी होगी ताकि वे अपने क्षेत्र के लोगों के हित में कार्य कर सकें। दिलीप कुमार जैसे निस्वार्थ कार्यकर्ताओं के प्रयासों को सराहा और संरक्षित करना भी आवश्यक है, ताकि चाय श्रमिकों की आवाज को दबाया न जा सके।

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