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परिस्थितियों से मजबूर

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आज रिया बहुत खुश थी, कल से बच्चों का स्कूल बंद हो रहा था। गर्मी की छुट्टियां लगभग एक महीने के लिए होने वाली थीं। वह मन ही मन सोच रही थी कि इस बार वह पक्का घूमने जाएगी। किसी भी हाल में वह पति के सुझाव को नहीं मानेगी। जो भी हो, इस बार उसका सहेली के साथ मनाली जाने का प्लान फेल नहीं होगा। संयोग से उसकी सबसे प्रिय सहेली के हसबैंड उसे छुट्टियों में वहीं लेकर जा रहे थे, इसलिए प्लान सहेली ने ही बनाया था। उसने रिया को कहा था कि सारी व्यवस्था वह कर लेगी, बस रिया अपने पति को राजी कर ले।
रिया पूरे दिन इसी उथल-पुथल में थी कि वह कैसे मनाएगी अपने पति को साथ में चलने के लिए। सात साल हो गए शादी हुए, लेकिन उसके पति उसे कहीं भी नहीं ले गए घुमाने-फिराने। हर बार एक ही बहाना, “अबकी रहने दो, अगली बार जरूर चलेंगे हम दोनों।” कहते-कहते दो से चार हो गए, पर शुभ मुहूर्त नहीं निकला। कंजूस कहीं का….
फोन की घंटी बजी, रिया दौड़कर फोन के पास गई। “हैलो….” फोन पर पति की आवाज सुनकर चहकते हुए बोली, “हाँ-हाँ, ठीक है। मैं फोन पर कुछ नहीं सुनने वाली… आप आज जल्दी घर आइए। एक खुशखबरी सुनानी है आपको!!”
“पहले मेरी बात तो सुनो, मुझे एक जरूरी काम से हेड ऑफिस जाना है। मैं थोड़ा लेट हो जाऊंगा। तुम बच्चों के साथ खाना खा लेना।”
रिया कुछ बोलती उसके पहले ही फोन कट गया। वह एकदम से झल्ला गई। पैर पटकते हुए वह किचन में चली गई। बर्तनों पर अपना गुस्सा निकालने लगी और साथ में बड़बड़ाते हुए बोल रही थी, “मेरा नसीब ही खराब है जो ऐसे पति से पाला पड़ा है। इनका तो बस एक ही दिनचर्या है – ऑफिस से सीधे घर और घर से ऑफिस। खुद तो कोई शौक नहीं है, मेरे भी सपने कुचल कर रख दिए। इस बार मैं नहीं मानने वाली, जाना है तो जाना है बस।”
शाम को वह अपने दोनों बच्चों को पढ़ाने के लिए बैठ गई। तभी सहेली का फोन आया। वह पूछ रही थी कि क्या प्लान बनाया है जाने को लेकर। रिया के अंदर दिनभर जो गुब्बार भरा था वह फूट पड़ा। वह बोली, “तुम्हारे जैसा न नसीब है मेरा और ना ही तुम्हारे जैसा पति मिला है मुझे। तुम जाओ, मेरे लिए अपनी छुट्टियां बर्बाद मत करो।”
अभी वह कुछ और बातचीत करती इतने में किसी ने दरवाजा खटखटाया। अनमने से उठकर उसने दरवाजा खोला। सामने मुस्कराते हुए पति महोदय ने कहा, “तुम्हारे और बच्चों के लिए एक सरप्राइज है। जल्दी से एक कप चाय पिला दो फिर बताता हूं।”
रिया मन ही मन खुश होने लगी। लगता है जो मैं सोच रही हूं, ये भी शायद वही सोच रहे हैं। इस बार पक्का हम कहीं न कहीं जाएंगे। उठकर किचन में गई और पति के लिए चाय बनाकर ले आई। और फिर इंतजार करने लगी कि कब वह बताएंगे क्या है “सरप्राइज”।
“हाँ रिया, तुम कहती थी न कि बच्चों के कपड़े ज्यादा हो गए हैं, उन्हें रखने में परेशानी होती है, सो मैंने एक बड़े साइज़ का स्टोरवेल ले लिया है। कल सुबह दुकानदार पहुंचा जाएगा। अब बच्चों के कपड़े बिछावन पर बिखरे नहीं रहेंगे।”
सुनते ही रिया आपे से बाहर हो गई। “यही सरप्राइज था आपका! भाड़ में गया आपका स्टोरवेल। मुझे नहीं चाहिए।” गुस्से से उठकर पैर पटकते हुए जाकर अपने कमरे में बंद हो गई। बच्चे भी सहम गए। बेचारे माँ का रौद्र रूप देख रहे थे। उन्होंने ही बताया कि मम्मी की सहेली ने घूमने का प्लान बनाया है। मम्मी भी जाना चाहती है। आप हमें ले जाएंगे क्या…।
बेचारे पति को सब माजरा समझ में आ गया था। उसने बाहर से बहुत समझाने की कोशिश की, पर रिया ने कमरे का दरवाजा नहीं खोला। बच्चे भी बिना खाए-पिए सो गए और वह भी बिना कपड़े बदले ही उनके बगल में सो गया।
सुबह रिया की आंख खुली तो सुबह के नौ बज रहे थे। वह कमरे से बाहर निकलकर आई। चारों तरफ नजर दौड़ाया, सन्नाटा पसरा हुआ था। बाहर कमरे में आकर देखा तो बच्चे अभी भी सो रहे थे, लेकिन उसके पति दिखाई नहीं दे रहे थे। उसने सोचा, “या तो दूध लेने गए होंगे या फिर बाथरूम में होंगे।” वह लौटकर अपने कमरे में जाने लगी तभी दरवाजे की हैंडल में एक कागज फंसा हुआ देखा। मन तो नहीं था फिर भी खोलकर देखने लगी। कुछ ही देर में वह वहीं पर नीचे बैठ गई……
कागज में उसके पति ने लिखा था:
“रिया, दूसरे शहर में मेरी मीटिंग है, सो जाना जरूरी था। मेरे पास जो भी जमा पूंजी थी, वह बाहर वाले कमरे के बिछावन के नीचे रख दी है। उतने में सिर्फ तुम्हारा और बच्चों का घूमना-फिरना ही हो पाएगा। मैं उस बजट में नहीं आ पाऊँगा। मेरे हिसाब से तुम बच्चों के साथ आराम से घूमकर आ सकती हो। साथ में सहेली है ही। मेरा क्या है, मेरी ज़िंदगी तो तुम्हारी छोटी-छोटी खुशियों पर ही टिकी है। ऐसी बात नहीं है कि मुझे कोई शौक नहीं है, लेकिन क्या करूं जिम्मेदारी के नीचे उसे कब का दबा चुका हूं।
मैंने तुम्हें बताया नहीं… पिछले महीने तुम्हारी माँ की आँख के ऑपरेशन का सारा खर्चा मैंने ही उठाया था। मैंने सोचा, घूमने से ज्यादा जरूरी है माँ की आँखें, जिससे उनकी दुनिया में उजाला हो जाए। माँ को मैंने ही मना किया था कि तुम्हें नहीं बताएं। मैं बेटा नहीं हूं तो क्या हुआ, दामाद भी तो बेटे जैसा होता है।
तुम खुश रहो, उसी में मेरी खुशी है। बस दुःख इस बात का है कि सात साल साथ रहने के बाद भी मैं अकेला हूं।”
रिया की आँखों से आँसुओं की धार बह रही थी। कागज के साथ-साथ उसका मन भी गिला हो रहा था। वह अपराध बोध से भीगी जा रही थी और सोच रही थी… वाकई, वेरी वो नहीं, मैं ही हूं शायद…।

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