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मनोज_वाजपेयी  फिल्मी दुनिया का व्यक्तित्व 

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कभी संघर्ष और कठिनाइयां बड़ी नही होती , बड़ा होता है  नौ वर्षीय एक बिहारी लड़के का इरादा।
बिहार के एक छोटे से गांव में मेरा घर है। बचपन वहीं पे 5 भाई-बहनों के साथ गुजरा। पढ़ने के लिए झोपड़ीनुमा स्कूल में जाते थे। वहां जिंदगी बेहद सादा थी, पर शहर जब भी जाते तो सिनेमा हॉल जरूर जाते थे। मैं अमिताभ बच्चन का बहुत बड़ा फैन था और अमिताभ बच्चन ही बनना चाहता था। उम्र तब नौ साल ही रही होगी पर हमें मालूम हो गया था कि हमको एक्टर ही बनना है।
मगर तब हैसियत इतनी भी नही थी कि सपने भी देखा जाए। कशमकश के बीच पढ़ाई जारी थी और दिमाग अपने ख़्वाब के अलावा कुछ देखने  को  तैयार नही था। 17 का हुआ तो गांव छोड़ दिल्ली यूनिवर्सिटी चला आया।
और थियेटर करने लगा। तब घरवालों को इसका कुछ अता पता नही था। फिर एक रोज मैंने बाबूजी को खत लिखा और बताया की मैं अभिनेता बनना चाहता हूं। उम्मीद के विपरीत वो गुस्सा नही हुए और मेरी फीस भरने के लिए 200 रुपये भेजा। मुझे हिम्मत मिली पर वहाँ गांव में लोग अब मुझे ‘भांड’ जैसे शब्दों से नवाजने लगे थे। मग़र मुझे अपने ख्वाब पूरे करने थे तो लोगों नूराकुश्ती से आंखे मुंदने में ही भलाई थी। तो मैंने मूंद लिया।
मैं यहाँ बाहरी था तो मुझे इनमें फिट होना बेहद जरूरी था। मैंने इंग्लिश और हिंदी खुद से सीखा क्योंकि मेरे हिंदी का बड़ा हिस्सा भोजपुरी ही था। खैर मैंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए अप्लाई किया और रिजेक्ट हो गया।ऐसा तीन बार हुआ।  जिंदगी पहली बार इतनी निराशाजनक लगी थी। दोस्त मेरे साथ रहते थे। कभी अकेला नही छोड़ते थे कि मैं कुछ कर न लूं। वे मेरा हौसला बढ़ाते थे और एक दिन उनका मुझपे विश्वास फल गया।
उसी साल , एक रोज मैं नुक्कड़ की चाय दुकान पे था तो तिग्मांशु  धुलिया ने अपनी खटारा स्कूटर से आ रहा था। उसे शेखर कपूर ने भेजा था मुझे अपनी फ़िल्म बैंडिट क्वीन में लेने के लिए। कास्टिंग तय होने के बाद मैं दिल्ली छोड़ मुम्बई आ गया।
पहले चार साल बेहद कठिन गुजरें। पांच दोस्तों के साथ मिलकर मैं एक  चॉल में रहता और एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो के चक्कर काटता। कोई रोल हाथ नही लगता। एकबार तो एक असिस्टेंट डायरेक्टर ने मेरा फ़ोटो फाड़ कर फेंक दिया। एकबार मैने एक दिन में तीन प्रोजेक्ट से हाथ धो दिया। कई बार पहले शॉट के बाद मुझे कॉस्ट्यूम उतारकर चले जाने के लिए कह दिया जाता। मेरा चेहरा हीरो जैसा नही था। बड़ी स्क्रीन मेरे लायक नही था। ये वो दौर था जब पैसे भी कभी कभार ही हथेली पे दिखते थे। वड़ा पाव भी महंगा लगता।
मग़र पेट की भूख आत्मा की भूख से बड़ी नही होती।
चार साल के संघर्ष के बाद मुझे महेश भट्ट की टीवी सीरीज मे जगह मिला जहाँ प्रति एपिसोड 1500 मिलते थे।
मेरा काम लोगों की नजर में आने लगा फिर मुझे ‘सत्या’ का भीकू म्हात्रे मिला। एक अलग सी खुशी थी। मैंने अपना पहला घर खरीद। मेरे पांव अब जम जाने को तैयार थे।
आखिरकार कड़ी मेहनत ख्वाब को हकीकत में बदल ही देती है।
कभी संघर्ष और कठिनाइयां बड़ी नही होती , बड़ा होता है  नौ वर्षीय एक बिहारी लड़के का इरादा।
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