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मानवता कराह रही है

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कहीं गर्मी से तो कहीं पानी से

पृकृति कहर ढा रही है
अपने पङोसी देश में
मानवता कराह रही है
क्या कसुर इन मासुमो का
ना किसी से लेना देना
खाये दो समय रोटी
वो भी छीनी जा रही है
मानवता कराह रही है
नारी का गहना अस्मत
सरे आम लूटी जा रही है
जला रहे दरिंदे
दुकान घर उन सबके
पुलिस भागी जा रही है
है कौन मालिक इनका
प्रभु आप स्वयं आओ
मानवता कराह रही है
रक्षाबंधन को तुमको
बहने बुला रही है
रख लाज उस राखी की
जो बरसों बांधी जा रही है
सुन देर ना हो जाए
तुझे बहन ढूंढ ना पाये
झरझर नैनों से वो बुला रही है
मानवता कराह रही है।
मदन सुमित्रा सिंघल
पत्रकार एवं साहित्यकार
शिलचर असम
मो 9435073653

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