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चौराहे पर लुटता चीर,
प्यादे से पिट गया वज़ीर,
चलूँ आख़िरी चाल कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊँ मैं?
राह कौन-सी जाऊँ मैं?
सपना जन्मा और मर गया,
मधु ऋतु में ही बाग़ झर गया,
तिनके टूटे हुए बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन-सी जाऊँ मैं?
दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन-सी जाऊँ मैं?
रोते-रोते रात सो गई
रोते-रोते रात सो गई
झुकी न अलकें
झपी न पलकें
सुधियों की बारात खो गई
दर्द पुराना
मीत न जाना
बातों ही में प्रात हो गई
घुमड़ी बदली
बूँद न निकली
बिछुड़न ऐसी व्यथा बो गई
रोते-रोते रात सो गई