जनवरी महीने की आधी रात। ठण्डी हवा के झकोरों से बढ़ती ठिठुरन। कोट, टोपी, मफलर, शॉल में जकड़े लोग-बाग। होजाई के खुले प्लेटफॉर्म पर गाड़ी का सबको इन्तजार। मैं सुबह ही शताब्दी एक्सप्रेस से किशोरकुमार जैन के साथ होजाई में आयोजित “असम साहित्य सभा” के अधिवेशन में भाग लेने आया था। दिनभर की बात थी। हम मंगलचन्द सुरेका के यहाँ टिके थे। किशोर को दूसरे दिन तड़के गुवाहाटी लौटना था। पर, मुझे आहोमों के ऐतिहासिक स्थल चराइदेव और गढ़गाँव देखने शिमलगुड़ी जाना था। शिमलगुड़ी और मैं ठहरे एक दूजे से एकदम अनजान। उस छोटे-से कस्बे में टिकने का उलझाव मुझे उलझाये था।
मेरी उलझन से मंगलचन्द जी के छोटे भाई प्रदीप जी रूबरू हुए। हमारी पहचान टटकी थी, फिर भी उन्होंने अपनी ससुराल शिमलगुड़ी फोन कर मेरे वहाँ रुकने का इन्तजाम करा दिया। मारवाड़ी समाज की यह विशेषता ही कही जाएगी कि आपस में एक दूसरे को सहयोग कर देते हैं। इस समाज की यह गुणसूत्रीयता है कि अपनी आपसी विश्वसनीयता नहीं टूटने देते। रात को स्टेशन जाने से पहले मंगल जी के साथ भोजन कराते समय उनकी पत्नी से बतकही होते-होते पता चला कि उनका पीहर गुवाहाटी है। वे मेरी भतीजी सावित्री (अब स्वर्गीय) के साथ स्कूल में पढ़ी हैं। उसके साथ कई बार हमारे घर गयी हैं। इतनी पहचान भर से थोड़ा अपनापा और जगा और गाड़ी में बैठने अपना एक आदमी मेरे साथ स्टेशन भेज दिया। कामरूप एक्सप्रेस रात बारह बजे स्टेशन पर आयी।
सुबह छह के बदले गाड़ी सात बजे शिमलगुड़ी पहुँची। छोटा-सा स्टेशन। स्टेशन के पास ही प्रदीप जी के ससुर दुर्गा प्रसाद जी मस्करा का बीस-पच्चीस साल पहले बना पक्का मकान है। वहाँ मेरी प्रतीक्षा हो रही थी। स्नान आदि से निवृत्त हुआ तो उन्होंने बड़ी आत्मीयता से चाय-नाश्ता करवाया और वहाँ से बारह कि.मी. दूर चराइदेव तक मेरा जाना-आना भी अपनी गाड़ी और ड्राइवर देकर सुगम कर दिया। ड्राइवर रमाकान्त बरुवा वहीं का रहनेवाला है।
इतिहास पढ़ना और इतिहास से मिलना दो अलग बातें हैं। इस इतिहास-यात्रा की शुरुआत रमाकान्त द्वारा सहज ही हो गयी। उसने कहा- “हम जिस रास्ते जा रहे हैं उसे “धोद आलि” कहते हैं। आहोम-राज्य में अलसी और कामचोरों को काम में लगाने के लिए इसे बनवाया गया था।” असमिया में रास्ते को आलि कहते हैं, यह तो मैं जानता था। “धोद” का अर्थ पूछने पर उसने बताया- “आलसी-कामचोर को धोद कहते हैं।” उसने यह भी कहा- “धोद आलि 185 कि.मी. लम्बी है जो कमारगाँव से गोलाघाट, तिताबर और मरियानी होती हुई नामरूप के पास स्थित जोयपुर तक जाती है।” दरअसल ऐतिहासिक तथ्य यह है कि आहोम राजा गदाधरसिंह ने सत्रों के गोंसाइयों और भक्तों को धोद (आलसी) कहकर उन्हें अपमानित किया और सन् 1687 में जबरन उनसे इस आलि को बनवाया था।
मुख्य सड़क से कीलो-ढेड़ कि.मी. अन्दर जाकर चराइदेव का मुख्यद्वार है। कार मिल जाने से समय के साथ कष्ट से भी बचाव हो गया। पुरातत्त्व विभाग का टिकट लेकर भीतर गये। चारों ओर पसरे सन्नाटे को पंछियों का कलरव बीच-बीच में तोड़ जाता है। इस सन्नाटे के बीच टीलों की एक अनगिनत श्रृंखला चारों ओर फैली है, जिनके नीचे सेकड़ों वर्षों से कितने ही मानव-शरीर चिरनिद्रा में मग्न हैं। हाँ, यह एक कब्रिस्तान ही है, लेकिन इसे यह कहना भी उचित नहीं होगा। क्योंकि यह किसी कब्रिस्तान की तरह नहीं लगता। इसे राजा-महाराजाओं, राजमहिषियों, राजकुमारों और राजकुमारियों का समाधिस्थल कहना ही ठीक है। ईसाइयों के जेरूसेलम की तरह यह आहोम जाति की पुण्य-स्थली है। इजिप्त के पिरामिडों की भाँति ही आहोम राजाओं की कई मैदाम यहाँ हैं। ये मैदाम नगा पहाड़ की तलहटी में और दिखौ नदी के उत्तर में हैं। यहाँ कभी आहोमों की राजधानी हुआ करती थी। आज चराइदेव शिवसागर जिले का एक महकमा मात्र है।
असम और आहोम एक दूसरे के पूरक हैं। तेरहवीं शताब्दी में कामरूप प्रदेश की केन्द्रीय शक्ति छोटे-छोटे राज्यों में बँट जाने से दुर्बल हो गयी थी। उस समय बर्मा के श्यान प्रदेश में टाइ जाति के शासक माओलुंग का राज्य था। यह जाति कभी चीन के युन्नान प्रदेश में रहा करती थी। वहाँ से इस जाति के लोग बर्मा, स्याम, कम्बोडिया में जा-जाकर बस गये। इसी टाइ जाति के आहोम हैं।
आहोमों में प्रचलित कथानुसार ये स्वर्ग के राजा लेंग्डेन यानी इन्द्र की सन्तान हैं। असमिया के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक शान्तनु कौशिक बरुवा ने अपनी पुस्तक “असम अभिधान” के पृष्ठ 73 पर इस विषयक एक रोचक आख्यान दिया है जिसका सार संक्षेप है- “युद्ध में कौरवों के विनाश के पश्चात उनकी विधवाओं को अपना वंश चलाने की चिन्ता हुई। उन्होंने अपनी चिन्ता श्रीकृष्ण के पास जाकर बताई। उनके कहने पर इन्द्र ने स्त्रीरूप धारणकर कुरुवंशी युवक दुर्मरीष के साथ परिणय किया। उन दोनों से संसर्ग से एक देवतुल्य पुत्र हुआ।”
स्वर्ग के देवता इन्द्र की सन्तान मानने के नाते आहोम अपने राजा को स्वर्गदेव कहते हैं। क्या दुर्मरीष की सन्तान ही युन्नान प्रदेश में जाकर बसी थी ? इनके पूर्वज पहले बर्मा की इरावती नदी के ऊपरी अंचल मुंबिमुंराम में आकर बसे थे। फिर इनका राज्य श्यान प्रदेश में हुआ।
माओलुंग के पुत्र सुकाफा का अपने भाई से मतभेद हो गया। वह भटकता हुआ अपने विश्वस्तों के साथ असम के पाटकाई पहाड़ के सीमान्त तक आया। भाग्य के धनी सुकाफा को उस पहाड़ का पंचगोन दर्रा मिल गया। तेरह सालों तक उसने पूरी स्थिति को समझा। उस समय पूर्वोत्तर के कोने के उत्तर-पूर्वी हिस्से में सुतिया और पूर्वी-दक्षिणी भाग में कछारी राज्य थे। सही अवसर देखकर उसने सन् 1228 में नगा राज्य का अतिक्रमण किया। उस समय उसके साथ उसकी तीन रानियाँ, बूढ़ागोहाँई और बरगोहाँई का डा-डाङरिया (मन्त्रि-परिषद) एवं नौ हजार स्त्री-पुरुष और बच्चों का काफिला तथा सैन्य सामग्री भी थी।
शब्द भी यात्रा करते हैं। टाइ भाषा के “चे-राइ-डय” से बना चराइदेव और “मो-डाम” से बना मैदाम शब्द भी आहोम कुमार सुकाफा के साथ चलकर यहाँ आये। “चे” का अर्थ नगर, “राइ” यानी जगमगाता और “डय” माने पहाड़ है, अर्थात्- जगमगाता पहाड़ी नगर। इसी प्रकार मैदाम का अर्थ है- देवता तुल्य मृतक का स्थान। स्कूल में असम का इतिहास पढ़ते समय इस सुकाफा नाम को कितनी ही बार रटा होगा और आहोम राजाओं के नाम याद करते-करते तो पसीना आ जाता था।
मनुष्य का साहस ही उसे आगे बढ़ाता है। सुकाफा अपनी बुद्धि-बल से आगे बढ़ते हुए शिमलगुड़ी तक पहुँचा। वहाँ रह रहे मराण, बराही और कछारी जनजातियों को हराकर उसने अपने अधीन किया किन्तु उनके साथ सुकाफा ने व्यवहार अच्छा बनाये रखा। शिमलगुरि (शिमलगुड़ी) के शिमल (सेमल) पेड़ों की जमीन पर निकली गुरि (जड़) पर बैठकर उसने अपने साथियों के साथ भावी योजनाएँ बनायीं। इस असमिया गुरि शब्द ने ही हिन्दी में गुड़ी का रूप धर लिया।
फिर सुकाफा ने खेती के लिए उपयोगी भूभाग और ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से मुक्त क्षेत्र चराइदेव को सन् 1253 में अपनी राजधानी बनाया और लोहित-उपत्यका में छह सौ सालों तक शासन करनेवाले आहोम साम्राज्य की नींव पड़ी। वह अध्यवसायी और परिश्रामी था। उसने स्थानीय जनजाति के लोगों से आपसी सम्बन्धों को बढ़ाने पर ध्यान दिया और साथ ही अपने श्यान प्रदेश से अन्य परिवारों को बुलाकर यहाँ बसाया। आहोमों ने धीरे-धीरे यहाँ के राज्यों को अपने अधीन करना शुरू किया। उसने स्थानीय मराण, बराही और कछारी लेगो से वैवाहिक सम्बन्ध बनाने के लिए आहोमों को प्रोत्साहित किया। इस तरह आहोमों ने यहाँ के धर्म और संस्कृति को अपनाकर स्थानीय परिवेश में भी पूरी तरह ढाल लिया। कालान्तर में कामरूप आहोम नाम पर असम कहलाने लगा।
सुकाफा की सन् 1268 में मृत्यु होने के बाद उसका बेटा सुतेउफा (1268-81) राजा बना। टाइ जाति की एक शाखा नरा भी इस प्रदेश में आयी जिससे सुतेउफा का झगड़ा रहने लगा। आखिर उनके साथ उसने अच्छे सम्बन्ध बनाये। आज भी नरा जाति के लोग असम में रहते हैं।
सुतेउफा के बाद क्रमश: सुखांग्फा, सुबिन्फा और सुख्रांग्फा ने सन् 1364 तक राज्य किया। फिर सुताफा (1364-76) राजा बना। सुताफा की पड़ोसी सुतिया राजा द्वारा हत्या करा देने पर चार सालों तक आहोम सिंहासन रिक्त रहा। राज्य की डा-डाङरिया (मन्त्रि-परिषद) ने विचार-विमर्श कर उसके भाई त्याओखाम्थि को सन् 1380 में राजा बनाया। इधर वह अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए सुतिया राज्य पर हमला करने गया और उधर उसकी अनुपस्थिति में बड़ी रानी ने छोटी गर्भवती रानी को मराने का षड्यन्त्र रचा। छोटी रानी राज्य से पलायन कर गयी। युद्ध से लौटकर त्याओखाम्थि अपनी प्रिय छोटी रानी को न पाकर और बड़ी रानी के व्यवहार से विक्षिप्त हो गया। राज्य का हित सोचकर डा-डाङरिया ने आपस में मन्त्रणा कर सन् 1389 में उसकी हत्या करवा दी।
त्याओखाम्थि को मरवा दिये जाने पर आहोम-सिंहासन फिर एक बार सन् 1389 से 1397 तक रिक्त रहा। अन्त में डा-डाङरिया ने त्याओखाम्थि की छोटी रानी से जन्मे पन्द्रह वर्षीय सुडांग्फा की खोज करा उसे राजा बनाया। उसका लालन-पालन एक बामण (ब्राह्मण) के परिवार में होने के कारण वह बामुणी कोंवर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने अपनी राजधानी चराइदेव से हटाकर चरगुवा नामक स्थान में बनायी। इसके साथ ही डेढ़ सौ सालों तक आहोम राज्य की राजधानी रहा यह चराइदेव अब केवल उनकी मैदामों का समाधिस्थल बनकर रह गया।
मेरे सामने मिट्टी के ऊँचे स्तूप जैसी मैदामें खड़ी हैं। इन्हें भारत के पिरामिड कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बस, दोनों में इतना-सा फर्क है कि पिरामिड जहाँ त्रिभुजाकार होते हैं, वहीं मैदाम गोलाकार। कभी ये मैदामें दस-बारह कि.मी. क्षेत्र में विस्तॄत थीं। ब्रिटिशों ने कितनी ही मैदाम तोड़कर उन पर चाय बागान लगवा दिये। रानी फुलेश्वरी की मैदाम पर तो “चराइदेव चाय बागान” के निदेशक का बँगला ही खड़ा कर दिया गया। खैर, मैं और रमाकान्त बरुवा आगे बढ़ते रहे। सामने एक बड़ी मैदाम पुरातत्त्व विभाग ने खोद रखी थी जहाँ गहराई में र्इंटों से बना एक घर दिखाई दिया। उसे भीतर से देखने की चाह हमें उसके द्वार तक ले गयी, पर वह खाली था। हाँ, वहाँ तक जाना बड़ा रोमांचक रहा। अपनी दोनों ओर मिट्टी के सौ-सवा सौ फुट ऊँचे ढेरों को देखकर सिहरन-सी हुई कि खुदा-ना-खास्ता यदि ये भरभराकर ढह गये तो यहीं हमारी भी मैदाम न बन जाए !
आहोमों में राजाओं और उनके परिवारिक सदस्यों की मृत्यु होने पर उन्हें मैदाम में समाधिस्थ करने की प्रथा थी। राजकीय शव को लकड़ी-बाँस से बनाये घर में रखकर उसे माटी से पाट दिया जाता था। बाद में र्इंटों के घर बनाये जाने लगे। कुछ तो दो से तीन मंजिली मैदाम थीं। मैदाम के बनने तक शव को मसालों का अलेपन कर सुरक्षित रखा जाता था। राजा के शव के साथ उसके व्यवहार में आनेवाली वस्तुओं के सिवाय सोना-चाँदी के गहने, हाथी-घोड़े और दास-दासियों को भी दफन किया जाता था। जीवित लोगों को दफनाने की प्रथा बाद में बन्द कर दी गयी। ऐसी ही बड़ी-छोटी कई मैदाम मेरे सामने हैं। उनमें से एक मैदाम के शीर्ष पर र्इंटों से बने एक ढाँचे ने आकर्षित किया तो हम दोनों साहस कर ऊपर चढ़ गये। वह एक छोटा-सा कमरा मात्र है किन्तु ऊपर बहती बयार तन को और चारों तरफ बिखरी प्राकृतिक नैसर्गिकता मन को खूब सुहायी।
पहले भूत-प्रेत के भय से इन मैदामों को हाथ लगाने से लोग डरते थे। लालच के सामने भय भाग जाता है। सोना-चाँदी पाने की ललक से इन्हें सबसे पहले मुगल सिपहसालार मीरजुमला ने खुदवाकर इनमें दबी पड़ी धन-सम्पदा को लूटा। फिर बर्मी आक्रमणकारियों ने इन्हें लूटा। उनके बाद अँग्रेजों ने भी धन की लालच में इन्हें तहस-नहस किया।
अब हमारी कार चराइदेव से शिमलगुड़ी की ओर वापस जा रही है। रास्ते में रमाकान्त ने गाड़ी रोककर मुझे आहोम शासनकाल में “वन पीस स्टोन” से बनाया गया एक पुल दिखाया। आगे उसने श-धोवा (शव धोने की) पोखरी की तरफ जाने का रास्ता बताया, जहाँ मृत देह को मैदाम में समाधिस्थ करने के पहले स्नान कराया जाता था। इस पोखर के पानी को अपवित्र मानकर पहले काम में नहीं लिया जाता था। कार शिमलगुड़ी की सीमा में आकर शिवसागर जाने के रास्ते की ओर मुड़ी। अब हम आहोम शासन के गौरवशाली इतिहास की प्रसिद्ध राजधानी रहे गढ़गाँव की ओर बढ़ रहे हैं।
भारत के पिरामिड : मैदाम
–डॉ. साँवरमल सांगानेरिया
मोबाइल 8638727870