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दर्प दीप्त मनु पुत्र, देव, कहता तुमको युग मानव, नहीं जानता वह, यह मानव मन का आत्म पराभव! नहीं जानता, मन का युग मानव आत्मा का शैशव, नहीं जानता मनु का सुत निज अंतर्नभ का वैभव! जिन स्वर्गिक शिखरों पर करते रहे देव नित विचरण, जिस शाश्वत मुख के प्रकाश से भरते रहे दिशा क्षण, आज अपरिचित उससे जन, ओढ़े प्राणों का जीवन, मन की लघु डगरों में भटके, तन को किए समर्पण! वे मिट्टी-से आज दबाए मुँह में ममता के तृण नहीं जानते वे, रज की काया पर देवों का ऋण! ज्योति चिह्न जो छोड़ गये जन मन में बुद्ध महात्मन् वे मानव की भावी के उज्वल पथ दर्शक नूतन! मनोयंत्र कर रहा चेतना का नव जीवन ग्रंथित, लोकोत्तर के सँग देवोत्तर मनुज हो रहा विकसित!