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The Diary Of West Bengal Review: ऐसे खुश नहीं होते सियासी आका, सिनेमा से सॉफ्ट पॉवर हासिल करने का गलत फॉर्मूला

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Movie Review

द डायरी ऑफ वेस्ट बंगाल

कलाकार

अरशिन मेहता , यजुर मारवाह , दीपक कंबोज , नीत महल , रीना भट्टाचार्य और प्रीति शुक्ला

लेखक- नोज मिश्रा

निर्देशक – सनोज मिश्रा

निर्माता – वसीम रिजवी

रिलीज – 30 अगस्त 2024

रेटिंग 0/5

हिंदीभाषी क्षेत्रों में बरसात के मौसम की सबसे आम कहावत है, जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं हैं। एक खास समुदाय को निशाने पर लेने के लिए फिल्में बनाने निकले हिंदी सिनेमा के बरसाती निर्माताओं का भी यही हाल है। वे फिल्में बनाते हैं, लेकिन फिल्म बना नहीं पाते हैं। किसी ने इन सबको किसी जमात मे बिठाकर समझा दिया लगता है कि फलां टाइप की फिल्म बनाओगे तो मामला ‘सेट’ हो जाएगा। लेकिन, ऐसा होता नहीं है। ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ बनाने वाले निर्माता संदीप सिंह का क्या हुआ? किसी को पता नहीं। ‘गडकरी’ की बायोपिक बनाने वाले भी दादर में घूमते देखे जाते हैं। ‘आदिपुरुष’ बनाने वाले निर्देशक ओम राउत अब भी अज्ञातवास में हैं। ‘द केरल स्टोरी’ और उससे पहले ‘द कश्मीर फाइल्स’ जरूर सफल रहीं, लेकिन इन दोनों फिल्मों के निर्देशकों के इसके तुरंत बाद की फिल्में देखने उनके प्रशंसकों ने सिनेमाघरों में झांका तक नहीं।

अब बारी फिल्म ‘द डायरी ऑफ वेस्ट बंगाल’ की है। फिल्म कैसी है, इस पर बात करने से पहले बात ये भी जरूरी है कि ये फिल्म बनी क्यों है? वसीम रिजवी को सब जानते ही हैं। उनका नया नाम अब जितेंद्र नारायण सिंह है। पैसा किस नाम से वह बनाना चाहते हैं, फिल्म का ट्रेलर देखकर समझा जा सकता है। कहानी बंगाल की है। बंगाल के पूरब को उसके अपने घरवालों की नजर लगी हुई है। पश्चिम के बंगाल पर हर उस शख्स की नजर लगी है जिसकी वहां की सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस से खटकी हुई है। फिल्म की नजर भी यहीं लगी है। कहानी रोहिंग्या मुसलमानों के भारत आने, फर्जी पहचान पत्र हासिल करने से लेकर वोट न देने वालों के कत्ल तक आ पहुंचती है। ध्यान यहां ये रखना है कि ये बात हम देश के एक हिस्से की कर रहे हैं और देश की ये तस्वीर पूरी दुनिया में दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का आधार बनाना आसान है, लेकिन उसे लागू करना इतना आसान है नहीं, और तब जबकि इसे लागू करने का इरादा रखने वाली पार्टी अल्पमत में हो।फिल्म ‘द डायरी ऑफ वेस्ट बंगाल’ को देखना एक तरह से अपनी ही सिनेमाई सोच पर ये सवाल करना है कि आखिर ये फिल्म देखने आए ही क्यों? कहानी का कोई सिरपैर नहीं है। पटकथा गलियों में घूमती छुट्टा गाय सरीखी है, जिसका जिधर मन होता है सींग घुमा देती है। एक खास खांचे में सेट इस फिल्म को बनाकर सनोज मिश्रा अपना कोई सियासी मकसद साधना चाहते हों, ये तो अब तक सामने नहीं आया। हां, फिल्म बनाने वाले वसीम रिजवी ने अपने सियासी मकसदों को छुपाने में कभी कोई कोताही नहीं की। फिल्म रिलीज होने से पहले लापता रहे सनोज मिश्रा अपनी गुमशुदगी के बाद एकाएक प्रकट होने की तरह इस फिल्म मे कब, क्यूं,  कहां गुल खिला दें, समझना मुश्किल है।

फिल्म की हीरोइन अरशिन मेहता पर जिम्मेदारी भारी है। उन्होंने इस पर खरा उतरने की पूरी कोशिश भी की है। बस दिक्कत ये है कि जी-जान लगाकर मेहनत तो हो सकती है, अभिनय में इतनी अतिरिक्त मेहनत ओवरएक्टिंग मानी जाती है। यजुर मारवाह का काम फिल्म में बहुत खराब है। हीरो बनने के लिए उन्हें अभी बहुत ज्यादा ट्रेनिंग की जरूरत है। दीपक कंबोज के काम से कोई रोशनी नहीं आती और न ही नीत महल, दीपक सूथा, गौरीशंकर आदि कलाकारों से ही फिल्म को कोई मदद मिलती है। फिल्म का गीत-संगीत पक्ष बहुत कमजोर है और फिल्म तकनीकी रूप से भी कहीं प्रभावित नहीं कर पाती है।

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