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विश्वगुरु के पद से विभूषित-दिवस का स्मरण– डॉ. राजकुमार उपाध्याय ‘मणि’

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हमारी मातृ-भूमि पर ऐसे अनेक व्यक्तियों का जन्म हुआ है, जिन्हें ईश्वर का अवतार माना गया। ऐसे महान पुरुषों में विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न स्वामी विवेकानन्द है। ये हमारी भारतीय संस्कृति के उन्नायक हैं। आज से सपाद-शताब्दी वर्ष पूर्व 11 सितम्वर, 1893 ई. को विश्वधर्म परिषद्- शिकागो में आंग्लों से गुलाम होते हुए भी उन्होंने भारतीय हिन्दू धर्म की प्रशंसा की थी। उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ‘हे पादरियों! हे ईसाइयों ! जो आप लोग अपने धनों का अपव्यय कर रहे हो, बल्कि आप लोग भारत में भूख से पीड़ित प्राणियों की सेवा नहीं कर रहे हो। एक दिन ही आप लोगों को उस भारतीय संस्कृति एवं धर्म का अनुसरण करना होगा, तभी आप लोगों का कल्याण हो सकता है। भारत में धर्म की कमी नहीं, परन्तु भारत में धन की कमी है।’ स्वामी जी ने भारतीय धर्म के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया था। स्वामी जी भारत को अपने सपनों के रूप में साकार करना चाहते थे।


स्वामी जी जब भाषण देने के लिए मंच पर खड़े हुए तो वहाँ के मतावलम्बियों को आश्चर्य हुआ कि यह नवयुवक संन्यासी का वेशभूषा पहने हुए क्या भाषण दे सकता है ? परन्तु जब स्वामी जी दोपहर के बाद भाषण देना आरम्भ किये तो जैसे सूर्य दोपहर के बाद उसका ताप अधिक बढ़ जाता है। उसी प्रकार से स्वामी जी के भाषण से अद्वैत दर्शन की ऊष्मा निकल रही थी। भगिनी निवेदिता ने उनके भाषण के सम्बन्ध में लिखा है कि- ”स्वामी जी ने जब शिकागो महासभा में भाषण देना प्रारम्भ किया तो हिन्दू संस्कृति का अतीत उनके माध्यम से श्रोताओं के समक्ष साक्षात् खड़ा हो गया। भारत के गौरवशाली अतीत की ज्योति देखकर वहाँ के लोग दंग रह गये। पर जब उनका भाषण समाप्त हुआ तब हिन्दू धर्म की सृष्टि हुई।“
11 सितम्बर, 1893 ई. को शिकागो के विश्व धर्म परिषद् में भाषण प्रारम्भ करने के पूर्व स्वामी विवेकानन्द ने आंग्ल भाषा में कहा था कि- “My dear Americans sisters and brothers.” इस प्रकार का सम्बोधन जब उनके मुख से निकला तो प्रत्येक मतावलम्बियों में एक ज्ञान की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो उठी। इस बात की विशेषता थी कि यह एक संन्यासी और ‘सभी अमेरिका निवासियों को अपना भगिनी और भाई’ कहकर संबोधित कर रहा है। सभी स्त्रियों और पुरुषों में आनंद की लहर उत्पन्न होने लगी। विलक्षण पुरुष की प्रत्येक वाणी ऐसे ध्वनित हुई जैसे मन्दिर का घण्टा बजते समय मन्द-मन्द का मधुर ध्वनि हो या भगवान श्रीकृष्ण के बांसुरी की ध्वनि हो अथवा अर्जुन और कर्ण के धनुषों की टंकार की ध्वनि हो। उसी प्रकार से अद्वैत वेदान्त और गीता के मन्त्रों तथा श्लोकों की ध्वनि धर्म सभा में गूँज रही थी। स्वामी जी ने कहा-‘भाइयों ! मैं अपने स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ आप लोगों को सुनाता हूँ, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से करता रहा हूँ और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य करते हैं-रुचीनां वैचित्र्या दृजु कुटिल नाना पथ जुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्व मसि पयसामर्णव इव।। (शि.म.) ‘जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे-साधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।‘ यह सभा, जो संसार की अब तक की सर्वश्रेष्ठ सभाओं में से एक है, जगत् के लिए गीता का उस अद्भुत उपदेश की घोषणा एवं विज्ञापन है, जो हमें बतलाता है- ”ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानु वर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (गीता) ”जो मेरी ओर आता है, चाहे किसी प्रकार से हो; मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में, मेरी ही ओर आते हैं।“ उन्होंने वहाँ सबको सम्बोधित करते हुए कहा था कि हे पादरियों ! हे ईसाइयों ! मेरी श्रुति (वेद) यहाँ तक घोषित करते है कि-”भयाद्स्यग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः।। (कठोप.) ‘जिनके आदेश, जिनके भय से अग्नि दहकती है, और जिसके भय से सूर्य चमकता है, जिसके भय से बादल बरसते हैं, जिसके भय से वायु चलती है और मृत्यु पृथ्वी पर इतस्ततः नाचती है।’
स्वामी जी ने ज्ञान योग, अद्वैत-वेदांत दर्शन, मनुस्मृति, महाभारत, गीता के आदि सुवाक्यों को कह कर भारत को विश्वगुरु के पद से विभूषित किया। हमारी भारतीय संस्कृति सभी व्यक्तियों एवं सभी प्राणियों को शिक्षा देती है। हमारा धर्म भारतीय संस्कृति सभी धर्मों को समान आदर करने वाली है। सभी व्यक्तियों को यह धर्म प्राप्त हो सकता है। हम अपने धर्म का पालन करते हैं तथा अन्य धर्मो की सेवा भी करते हैं। स्वामी जी ने शिकागो के मंच पर यह भी कहा था- ‘मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व हो रहा है कि हमने पृथ्वी के समस्त धर्मों को शरण दिया है और यह भी है कि हमने यहूदियों को विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया। महान जरथुस्त्र जाति को भी शरण दी।‘ मुझे यह महान गर्व होता है कि ”मैं हिन्दू हूँ, मेरा धर्म और संस्कृति हिन्दू संस्कृति तथा मैं भारतीय हूँ। भारत माँ मेरी मातृभूमि है और मेरी मातृभाषा संस्कृत है।“ ऐसा कहकर उन्होंने हम लोगों को भी शिक्षा दी कि हम अपने धर्म का नाम अन्य देशों में भी जगाएँ और फैलाएं।
इस महासभा के होने से पूर्व दुनिया में भारत के नाम की पहचान बाल-विवाह का देश, पति की चिता के साथ पत्नी को जलाने वाला देश, अशिक्षित, अज्ञानी, पत्थरों के पूजक, गरीब असहाय का देश, अपने में ही छुआछूत की भावना रखने वाला देश आदि के रूप में जाना जाता था। ऐसे विकट समय में स्वामी जी ने अपनी मेधा के द्वारा इस महासभा में भारत को महान प्रतिष्ठा दिलायी। विश्व पटल पर उपस्थित होकर स्वामी जी ने भारत को गौरव का स्थान दिलाया। एक पाश्चात्य व्यक्ति ने स्वामी जी से पूछा कि आप इतने समय तक यहाँ रहे हैं। भारत वापस जाने पर आपको भारत कैसा लगेगा ? स्वामी जी ने अत्यन्त आवेश और गर्व से उत्तर दिया- ‘पाश्चात्य देशों के आने से पूर्व मैं भारत को हृदय से प्यार करता था, किन्तु अब मेरे लिए भारत की वायु, यहां तक कि भारत का प्रत्येक धूलि-कण स्वर्ग से भी अधिक पवित्र है। भारत पवित्र भूमि है। भारत मेरा तीर्थ है, उसका केन्द्र मेरी आत्मा है। भारत हमारा जीवन है।’ आंग्ल से भारत गुलाम होते हुए भी एक भारतवासी के द्वारा पश्चिम की धरती पर इस प्रकार से कह देना उस समय कोई सामान्य बात नहीं थी, क्योंकि अंग्रेज अपना अपमान को सहन नहीं कर पाते थे। स्वामी विवेकानन्द का यह कथन श्री राम के उद्घोष जैसा था- ‘‘न मे लक्ष्मण रोचते यद्यपि स्वर्णमयी लंका। जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी।।’’
स्वामी जी की मान्यता थी कि जो सज्जन भारतीय सभ्यता को पाश्चात्य देशों की नकल कहते हैं, उन्हें अपने प्राचीन धरोहर का ज्ञान नहीं है। हमारी सभ्यता अत्यन्त पुरानी है। अन्य देश हमारे देश की सभ्यताओं को सीखकर आगे बढ़ चले। यह हमारी मातृभूमि सब देशों को ज्ञान देने वाली जननी है। अतः हम अपना पहले सुधार करें, तब बाद में दूसरे को सुधारें। स्वामी जी का मत एक महान विद्वान और देवऋषि की वाणी थी। स्वामी जी का विचार था कि यह भारत, मेरे स्वप्नों का भारत होगा। उन्होंने विश्व में भारतीय धर्म एवं संस्कृति को स्थापित कर भारत का नाम ऊँचा किया। वे कहते हुए चले गए कि हे भारतवासियों ! भारत की सेवा अपने जीवन से अधिक करना। वे भारत माता को हृदय से प्यार करके हम लोगों में देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भर गये।
@ एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा (पंजाब)
सचलभाष-9479372732 अणुडाक : rkumanicup@cu.edu.in

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