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काम पङने पर घिघयाते है काम निकल जाने पर सरक जाते हैं धिक्कार है ऐसे लोग

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स्वार्थ शब्द बना है तो अपनी स्वार्थ शक्ति का इस्तेमाल करने के बाद अपनी डायरी में नोट कर लेवें कि अमुक व्यक्ति ने मेरा ऐसा किया तो ईश्वर प्रदत मैं भी मनुष्य योनि में आया हूँ अवश्य ही कभी ना कभी उऋण होना चाहुंगा लेकिन यहाँ तो मतलब निकल गया कि जानते नहीं यूँ जा रहे हैं कि पहचानते नहीं। भले वो कुछ भी बन जाए लेकिन उसमें मानवता का जीवाणु तो दूर किटाणु भी नहीं होता। वादे करते हैं कि जीवन भर आपका अहसान मानूँगा लेकिन दुःख तकलीफ में हालचाल भी नहीं पुछते।

   अच्छे इंसान नेकी कर दरिया में डाल जानते हुए भी वो भी साधारण मनुष्य होता है दुख लगता है कि क्यों किया ऐसा लेकिन फिर ईश्वर का आदेश मानकर लोगों की सेवा में जुट जाते हैं। अच्छे संस्कार नैतिकता एवं जनसेवा का दायित्व उन्हें किसी ने दिया नहीं बल्कि स्वैच्छिक रुप से करते हैं भले ही वो आर्थिक दौङ में पीछे रह जाए लेकिन कंप्यूटर की तरह अच्छे काम जनसेवा परहित सब एक जगह संग्रह होते हैं जो अपने आप किसी ना किसी दिन सुफल प्रदान करते हैं।
  काम पङे कुछ ओर हैं काम सरे कुछ ओर
  रहिमन भंवरी के    भये नदी सिरावत मोर
यानि रहीम दास जी कहते हैं कि काम पङने पर मनुष्य याचक बनकर आ जाता है लेकिन काम निकलने के बाद गिरगिट की तरह रंग बदल लेता है ऐसे व्यक्ति भयंकर स्वार्थी एवं खाकर हराम करने वाले होते हैं। जैसे शादी के समय जो सेहरा दुल्हे की आन बान शान के लिए सीर पर सजाया जाता है वो शादी के बाद नदी में बहा दिया जाता हैं यानि अब यह किस काम का।
    इस प्रथा में अलग अलग रिवाज है तथा आज तो किराये पर लाखों रुपए का सेहरा अथवा पकङी साफा लाया जाता है। यह सौ साल पुराना दोहा है। समाज में बदलाव आया है। मदन सुमित्रा सिंघल
पत्रकार एवं साहित्यकार
शिलचर असम
मो 9435073653

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