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गिरमिट’ देशों में हिन्दी के ध्वजावाहक डॉ दीप्ति अग्रवाल

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दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा सम्पन्न शोध के दौरान मुझे गिरमिट देशों जैसे सूरीनाम, त्रिनिदाद एंड टोबैगो, गयाना और मॉरीशस की यात्रा का मौका मिला। यहाँ रह कर मुझे पता लगा कि इन देशों में भारतीय मूल के लोग आज भी भारतीय संस्कृति, भाषा को सँजो रहे हैं और जैसे विदेश में भी इन्होंने छोटे-छोटे भारत बसा रखे हैं। शोध यात्रा में मुझे हिंदी की बहुत सी विदेशी शैलियों जैसी मॉरीशस की भोजपुरी हिंदी, दक्षिण अफ्रीका की नेताली हिंदी, फिजी की फ़िजी बात या फ़िजी हिंदी, गयाना की गयानी हिंदी, त्रिनिदाद की त्रिनिदादी हिंदी और सूरीनाम की सरनामी हिंदी आदि की जानकारी मिली और उनमें रचित हिंदी साहित्य पढ़ने को मिला। साथ ही इन देशों के बहुत से विद्वानों को पढ़ने और मिलने का मौका मिला। ये विद्वान सही अर्थों में हिंदी के ध्वजवाहक हैं क्योंकि इन देशों में हिंदी को लेकर बहुत विपरीत परिस्थितियां होने के बावजूद भी ये अपने लेखन और अध्यापन से हिंदी की सेवा कर रहे हैं। वे विश्व हिंदी के असली ‘भगीरथ’ हैं जिनकी दूरदृष्टि, संघर्ष और निष्ठा से भारत का हिंदी जगत अपरिचित सा है। उनमें से अधिकतर का हिंदी-प्रेम आजीविका का साधन नहीं हैं। वे तो केवल अपने पूर्वजों की भाषा हिंदी को किसी भी कीमत पर अपने देश से लुप्त होने से बचाना चाहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि ‘भाषा गई तो संस्कृति गई’। आइए हम कुछ विद्वानों के बारे में जाने जो हिंदी की सेवा में लगे हुए हैं। शायद उनके कार्यों के बारे में जान कर हम सभी भारतवासी प्रेरित हों और अपने अंतर्मन को टटोल पाए और अपने आपसे प्रश्न करें कि क्या हम अपने ही देश में अपनी ही भाषा हिंदी को महारानी से रानी के पद पर बैठा कर आने वाली पीढ़ी को भारतीय संस्कृति से महरूम तो नहीं कर रहे हैं?
गिरमिट देशों में मुख्यत: मॉरीशस, गयाना, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम और फ़िजी आदि देश आते हैं जहां औपनिवेशिक काल में भारतीय 1834 से 1920 की अवधि में मुख्यत: गन्ने की खेती के लिए भेजे गए थे। जब ये भारतीय वहाँ गए तो अपने ‘जहाजी बंडल’ में आम, तुलसी के बीज, भाषा, संस्कृति, रामचरितमानस का गुटका, सदारंगा आदि भी साथ ले गए थे और वहाँ की धरती पर आम तुलसी जामुन के साथ-साथ भाषा, संस्कृति के बीजों को भी बो दिया था जो आज भी उन देशों में फलफूल रहे हैं। चूंकि अधिकतर श्रमिक हिंदी पट्टी से गए थे अत: हिंदी इन देशों में खूब फली-फूली। कालांतर में गयाना, दक्षिण अफ्रीका और त्रिनिदाद में हिंदी का हास होने लगा लेकिन फिर भी इन देशों के कुछ हिंदी प्रेमी और भारतीय संस्कृति प्रेमी हिंदी को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थे और आज भी हैं। साथ ही भारत और इन देशों की सरकारों के माध्यम से हिंदी कक्षाएं चलाई जा रही हैं और  ‘चटनी संगीत’ के गीतों में हिंदी शब्दों के प्रयोग से हिंदी के बिरवे को सींचा जा रहा हैं। संक्षेप में इन देशों में हिंदी का परचम लहराने वाले कुछ मुख्य जाने-अनजाने विद्वान और उनकी रचनाओं की जानकारी निम्न हैं-
मॉरीशस
मॉरीशस में हिन्दी साहित्य के इतिहास पर शोधकार्य करने और लिखने के क्षेत्र में डॉ मुनीश्वर लाल चिंतामणि, इन्द्र्देव भोला इन्द्र्नाथ, उदय नारायण गंगू जी अग्रणी हैं।  उदयनारायण गंगू जी की   ‘मॉरीशस की संस्कृति और साहित्य’ कवि, कहानीकार डॉ बीरसेन जागासिंह आदि का नाम प्रमुख है। हाल ही में उनकी कविताओं का नया संग्रह ‘हार्दिक प्रतिध्वनियाँ’ आया हैं।  भारतीय लोक संस्कृति और अनुसंधान में सरिता बुद्धू जी भी निरंतर प्रयासरत हैं। उनकी शोधपरक पुस्तक ‘मॉरीशस की भोजपुरी परम्पराएँ हिंदी के लिए एक सराहनीय प्रयास है।
गयाना
गयाना में हिंदी के प्रमुख रचनाकार लाल बिहारी शर्मा जी हैं। शोध के दौरान मुझे लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी में उनकी पुस्तक ‘डमरा फाग बहार’ मिली जिसका गयाना की गुयात्रा बहादुर के सुझाव पर राजीव मोहाबीर ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। पुस्तक में देवनागरी लिपि में भजन, दोहा, चौपाई, उलारा, चौताल, सवैया, कबित्त, आदि छंदों का बड़ी सुंदरता से प्रयोग किया गया है। अभी हाल ही में मुझे गयाना की रामनरेन (रूडी) सासेनरेन की ‘चौताल रंग बहार’  A Treasury of Chowtal Songs from India and the Caribbean पुस्तिका मिली है जिसे पीटर मैनुएल ने संपादित किया है और यह पुस्तक गयाना में गिरमिट काल में हिंदी की स्थिति बताने के लिए ‘मील का एक पत्थर’ है।
त्रिनिदाद
त्रिनिदाद के उपलब्ध प्राचीन साहित्य में से एक ग्रंथ है ‘चौतालमणि’, जिसे छोटकन लाल ने लिखा है। शोधयात्रा के दौरान ही त्रिनिदाद की प्रस्बीटेरीयन चर्च द्वारा सन 1890 के आसपास हिन्दी में लिखित ‘गीतमाला’ पुस्तक छपी और त्रिनिदाद के एंड्रू गयादीन जिनका वास्तविक नाम अयोध्या प्रसाद था वे ‘गीतमाला’ पुस्तक के लिए गीत लिखते थे। वर्तमान में त्रिनिदाद टोबैगो में इंद्राणी राम प्रसाद, सुश्री रुकमनी बीपथ हुलास, श्री रामगनी बॉब गोपी हिंदी के विकास के लिए कार्यरत हैं। गोपी जी ने हिन्दी प्रेम के चलते तीन पुस्तकें लिखी है। उनकी पुस्तक ‘गीत अर्पणम’ में उन्होने अपनी पसंद के गानों और भजनों को देवनागरी में लिख कर साथ ही रोमन में लिप्यंतरण भी कर दिया और अंग्रेजी में उनके अर्थ भी दे दिये हैं। उनकी दूसरी पुस्तक ‘अब हिन्दी बोलो’ पुस्तक मात्र 10  त्रिनिदादियन डॉलर की है और इसमें अभिनंदन, घर परिवार, भोजन, बीमारी, समय आदि से संबन्धित शब्दावली और अंग्रेजी में इसके अर्थ भी दिये गए हैं। उनकी तीसरी पुस्तक ‘हिन्दू नेम्स एंड देयर मीनिंग्स’ हैं जिसमें लड़कों और लड़कियों के नाम अर्थ सहित दिये गए हैं ताकि भारतवंशी अपने नामों के अर्थ जान सकें और गर्व महसूस कर सकें।
दक्षिण अफ्रीका
दक्षिण अफ्रीका के लिखित साहित्य भवानी दयाल सन्यासी का तो नाम जाना पहचान है लेकिन देवी दयाल का ‘हिंदी आल्हा’ और तुलसी राम पांडे का आल्हा शैली में लिखा ‘दरबन का बलवा’ के बारे में भारत का पाठक अनजान है और वे कालजयी कृतियाँ हैं जो इन देशों में एक समय में हिंदी की मजबूत स्थिति बताती हैं। वर्तमान में दक्षिण अफ्रीका के राजेन्द मिस्त्री केप टाउन विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान के एमिरेट्स प्रोफ हैं और उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की नेताली  हिंदी पर लैंग्वेज इन इन्डेन्चर : ए सोसिओ लिंगग्विस्टिक हिस्ट्री ऑफ भोजपुरी, हिन्दी इन साउथ अफ्रीका, लैंग्वेज इन साउथ अफ्रीका आदि महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे जिनका परिचय भारतवासियों को होना जरूरी है। दक्षिण अफ्रीका के राम भजन सीताराम डरबन विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक रहे हैं। उनका कहना है,”बच्चे माँ को मम्मी कहेंगे, पिता को डैडी कहेंगे लेकिन दादी को आजी ही कहते हैं। हिंदी सबके निकट ही है, बस बच्चों को रास्ता दिखाना है और पहचनवाना है।“  इनके अतिरिक्त उषा देवी शुक्ला, हीरा लाल शिवनाथ, बिरजानंद बदलू गरीब भाई भी हिंदी की सेवा में लगे हुए हैं। उषा देवी शुक्ला जी हिंदी शिक्षा संघ की पूर्व अध्यक्षा रह चुकी हैं दक्षिण अफ्रीका में हिंदी भाषा साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में इनका विशेष योगदान है और इनका शोध कार्य प्रवासी देशों में रामचरितमानस पर है।
फ़िजी
गिरमिट काल में फ़िजी के हिंदी के ध्वजावाहकप्रतापचंद्र शर्मा का नाम भारत में अनजान है। उनकी पहली पुस्तक ‘प्रवास भजनांजली’ इंडियन टाइम्स सूवा से और उनकी दूसरी पुस्तक ‘प्रताप कवितांजली’ लोतौका फीजी से छपी।  वर्तमान में फ़िजी में अंग्रेजी भाषा के प्राध्यापक सुब्रमनी जी का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी दो बडे उपन्यास डउका पुराण (521 पृष्ठ) और फ़िजी माँ (1026 पृष्ठ) फ़िजी हिंदी में रोमन लिपि में ना लिख कर देवनागरी लिपि में लिखे। उनके अनुसार रोमन लिपि में लिखी हिंदी आभूषणरहित नारी सरीखी लगती हैं। इसी तरह रोड़ने मोग, सूजन हॉबस, बृज विलास लाल का नाम आता है।  ऑस्ट्रेलिया नैशनल यूनिवर्सिटी कैनबरा में इतिहास विभाग के प्रोफ रहे बृज विलास लाल ने फ़िजी में हिंदी और प्रवासी भारतीयों के लिए संघर्ष किया जिससे उनको फ़िजी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा और उन्होंने देश निष्कासन का दंश झेला। उनकी पुस्तक ‘फ़िजी यात्रा आधी रात से आगे’ नैशनल बुक ट्रस्ट से छपी है और आगामी पुस्तक ‘फीजी हिन्दुस्तानी आपण कहानी आपण भाषा में’ प्रकाशन के लिए तैयार है।
निष्कर्षत: इन देशों के हिंदी-सेवियों की लग्न और निष्ठा को देखकर हम भारतीय उनसे प्रेरणा ले और हमारी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिंदी को आगे बढ़ाएं। जय हिंदी! जय भारत!

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